गजल गीता

।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।

गजल गीता

प्रथमहिं गुरुको शीश नवाऊँ | हरिचरणों में ध्यान लगाऊँ ||१||
गजल सुनाऊँ अद्भुत यार | धारण से हो बेड़ा पार ||२||
अर्जुन कहै सुनो भगवाना | अपने रूप बताये नाना ||३||
उनका मैं कछु भेद न जाना | किरपा कर फिर कहो सुजाना ||४||
जो कोई तुमको नित ध्यावे | भक्तिभाव से चित्त लगावे ||५||
रात दिवस तुमरे गुण गावे | तुमसे दूजा मन नहीं भावे ||६||
तुमरा नाम जपे दिन रात | और करे नहीं दूजी बात ||७||
दूजा निराकार को ध्यावे | अक्षर अलख अनादि बतावे ||८||
दोनों ध्यान लगाने वाला | उनमें कुण उत्तम नन्दलाला ||९||
अर्जुन से बोले भगवान् | सुन प्यारे कछु देकर ध्यान ||१०||
मेरा नाम जपै अरू गावै | नेत्रों में प्रेमाश्रु छावे ||११||
मुझ बिनु और कछु नहीं चावे | रात दिवस मेरा गुण गावे ||१२||
सुनकर मेरा नामोच्चार | उठै रोम तन बारम्बार ||१३||
जिनका क्षण टूटै नहिं तार | उनकी श्रद्घा अटल अपार ||१४||
मुझ में जुड़कर ध्यान लगावे | ध्यान समय विह्वल हो जावे ||१५||
कंठ रुके बोला नहिं जावे | मन बुधि मेरे माँही समावे ||१६||
लज्जा भय रु बिसारे मान | अपना रहे ना तन का ज्ञान ||१७||
ऐसे जो मन ध्यान लगावे | सो योगिन में श्रेष्ठ कहावे ||१८||
जो कोई ध्यावे निर्गुण रूप | पूर्ण ब्रह्म अरु अचल अनूप ||१९||
निराकार सब वेद बतावे | मन बुद्धी जहँ थाह न पावे ||२०||
जिसका कबहुँ न होवे नाश | ब्यापक सबमें ज्यों आकाश ||२१||
अटल अनादि आनन्दघन | जाने बिरला जोगीजन ||२२||
ऐसा करे निरन्तर ध्यान | सबको समझे एक समान ||२३||
मन इन्द्रिय अपने वश राखे | विषयन के सुख कबहुँ न चाखे ||२४||
सब जीवों के हित में रत | ऐसा उनका सच्चा मत ||२५||
वह भी मेरे ही को पाते | निश्चय परमा गति को जाते ||२६||
फल दोनों का एक समान | किन्तु कठिन है निर्गुण ध्यान ||२७||
जबतक है मन में अभिमान | तबतक होना मुश्किल ज्ञान ||२८||
जिनका है निर्गुण में प्रेम | उनका दुर्घट साधन नेम ||२९||
मन टिकने को नहीं अधार | इससे साधन कठिन अपार ||३०||
सगुन ब्रह्म का सुगम उपाय | सो मैं तुझको दिया बताय ||३१||
यज्ञ दानादि कर्म अपारा | मेरे अर्पण तू कर सारा ||३२||
अटल लगावे मेरा ध्यान | समझे मुझको प्राण समान ||३३||
सब दुनिया से तोड़े प्रीत | मुझको समझे अपना मीत ||३४||
प्रेम मग्न हो अति अपार | समझे यह संसार असार ||३५||
जिसका मन नित मुझमें यार | उनसे करता मैं अति प्यार ||३६||
केवट बनकर नाव चलाऊँ | भव सागर के पार लगाऊँ ||३७||
यह है सबसे उत्तम ज्ञान | इससे तू कर मेरा ध्यान ||३८||
फिर होवेगा भक्त महान | यह कहना मम सच्चा जान ||३९||
जो यह सुनै हमारी वाणी | वह भी पार भवसागर प्राणी ||४०||
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गीता पाठ विधि 
~ रामसुख दास जी महाराज
(गीता दर्पण पुस्तक से)

वाञ्छन्ति पठिन्तु गीतां क्रमेण विक्रमेण वा ।
तदर्थ विधयः प्रोक्ताः करन्यासादिना सह ।।
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह जब अति रुचिपूर्वक कोई कार्य करता है, तब वह उस कार्य में तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है। ऐसा स्वभाव होने पर भी वह प्रकृति और उसके कार्य- (पदार्थों, भोगों) के साथ अभिन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह इनसे सदा से ही भिन्न है। परंतु परमात्मा के नाम का जप, परमात्मा का चिंतन, उसके सिद्धांतों का मनन आदि के साथ मनुष्य ज्यों-ज्यों अति रुचिपूर्वक संबंध जोड़ता है, त्यों-ही-त्यों वह इनके साथ अभिन्न हो जाता हो जाता है, इनमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है; क्योंकि वह परमात्मा के साथ सदा से ही स्वतः अभिन्न है। अतः मनुष्य भगवच्चिन्तन करे; भगवद्भविषयक ग्रंथों का पठन-पाठन करे; गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथों का पाठ, स्वाध्याय करे, तो अति रुचिपूर्वक तत्परता से करे, तल्लीन होकर करे, उत्साहपूर्वक करे। यहाँ गीता का पाठ करने की विधि बतायी जाती है।

गीता का पाठ करने के लिए कुश का, ऊन का अथवा टाटका आसन बिछाकर उस पर पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। गीता पाठ के आरंभ में इन मंत्रों का उच्चारण करे-

ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः।
अनुष्टुप् छंदः। श्रीकृष्णः परमात्मा देवता।।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्राज्ञावादांश्च भाष से इति बीजम्।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः।।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम्।।
इन मंत्रों की व्याख्या इस प्रकार-

जैसे माला में अनेक मणियाँ अथवा पुष्प पिरोये जाते हैं, ऐसे ही भगवान् के गाये हुए जितने श्लोक अर्थात् मंत्र हैं, वे सभी श्रीमद्भगवद्गीतारूपी माला की मणियाँ हैं। इस श्रीमद्भगवद्गीता रूपी माला के मंत्रों के द्रष्टा अर्थात् सबसे पहले इन मंत्रों का साक्षात्कार करने वाले ऋषि भगवान् वेदव्यास हैं- ‘ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीता मालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः।

श्रीमद्भगवद्गीता में अनुष्टुप् छन्द ही ज्यादा हैं। इसका आरंभ (धर्मक्षेत्रे.....) और अंत (यत्र योगेश्वरः.......) तथा उपदेश का भी आरंभ (अशोच्यानन्वशोचस्त्वं.....) और अंत (सर्वधर्मान्परित्यज्य)...... अनुष्टुप् छंद में ही हुआ है। अतः इसका छंद अनुष्टुप् है- ‘अनुष्टुप् छंदः।’

जो मनुष्यमात्र के परम प्राणीय हैं, परम ध्येय हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण इसके देवता (अधिपति) हैं-‘श्रीकृष्णः परमात्मा देवता।’

मात्र उपदेश अज्ञानियों को ही दिये जाते हैं और अज्ञानी ही उपदेश के अधिकारी होते हैं। अर्जुन भी बातें तो धर्म की कर रहे थे, पर अपने कुटुम्ब के मोह के कारण शोक कर रहे थे। जब वे शोक के कारण अपने कर्तव्य-कर्मरूप धर्म का निर्णय नहीं कर पाते, तब वे भगवान् की शरण हो जाते हैं। भगवान् अर्जुन का शोक दूर करने के लिए उपदेश आरंभ करते हैं, जो गीता का बीज है- ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषा से इति बीजम्।’

भगवान् के शरण होना संपूर्ण साधनों का, संपूर्ण उपदेशों का सार है; क्योंकि भगवान् की शरण होने के समान दूसरा कोई सुगम, श्रेष्ठ और शक्तिशाली साधन नहीं है। अतः संपूर्ण साधनों का आश्रय छोड़कर भगवान् के शरण होजाना ही जीव की सबसे बड़ी शक्ति, सामर्थ्य है- ‘सर्वधर्मान्परित्यज्यं मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः।’

भगवान् ने यह बात प्रणपूर्वक, प्रतिज्ञापूर्वक कही है कि जो मेरे शरम हो जाएगा, उसको मैं संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, उसका मैं उद्धार कर दूँगा। भगवान् की यह प्रतिज्ञा कभी इधर-उधर नहीं हो सकती; क्योंकि यह कीलक है- ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम्।’इस प्रकार ‘ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीता- मालामंत्रस्य..... इति कीलकम्’ का उच्चारण करने के बाद ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) करना चाहिए।

शास्त्र में आता है कि देवता होकर अर्थात् शुद्ध, पवित्र होकर देवता का पूजन, ग्रंथ का पठन-पाठन करना चाहिए- ‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’। वह देवतापन, शुद्धता, पवित्रता, दिव्यता आती है अपने अंगो में मंत्रों का स्थापना करने से। जिस मंत्र का, जिस स्तोत्र का पाठ करना हो सकी अपने अंगों में स्थापना करनी चाहिए; उसकी स्थापना करने का नाम ही ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) है।

करन्यास

दोनों हाथों की दस अंगुलियों और दोनों हाथों के सामने तथा पीछे के भागों को क्रमशः मंत्रोच्चारण पूर्वक परस्पर स्पर्श करने का नाम ‘करन्यास’ है; जैसे-

1.‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इत्यंष्ठाभ्यां नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों के अंगुष्ठो का परस्पर स्पर्श करे।

2.‘न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत इति तर्जनीभ्यां नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों की तर्जनी अंगुलियों का परस्पर स्पर्श करे।

3.‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों की मध्यमा अंगुलियों का परस्पर स्पर्श करे।

4.‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इत्यनामिकाभ्यं नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों की अनामिका अंगुलियों का परस्पर स्पर्श करे।

5.‘पश्य मे पार्थ रुपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों की कनिष्ठिका अंगुलियों का परस्पर स्पर्श करे।

6.‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’- ऐसा कहकर दोनों हाथों की हथेलियों और उनके पृष्ठभागों का स्पर्श करें।

हृदयादिन्यास

दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से क्रमशः मंत्रोचारणपूर्वक हृदय आदि का स्पर्श करने का नाम ‘हृदयादिन्यास’ है; जैसे-

1.‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इति हृदयाय नमः’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से हृदय का स्पर्श करें।

2.‘न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत इति शिर से स्वाहा’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से मस्तक का स्पर्श करें।

3. ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति शिखायै वषट्’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से शिखा (चोटी) का स्पर्श करे।

4. ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इति कवचाय हुम्’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की पाँचों अंगुलियों से दाहिने कंधे का स्पर्श करे।

5. ‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति नेत्रत्रयाय वौषट्’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों का तथा ललाट के मध्यभाग का अर्थात् वहाँ गुप्तरूप से स्थित रहने वाले तृतीय नेत्र-(ज्ञाननेत्र) का स्पर्श करे। 

6. ‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति अस्राय फट्’- ऐसा कहकर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से उलटा अर्थात् बायीं तरफ से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी तरफ से आगे की ओर ले आये तथा तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजाये।

करन्यास और हृदयादिन्यास करने के बाद बोले- ‘श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः’ अर्थात् मैं यह जो गीता का पाठ करना चाहता हूँ, इसका उद्देश्य केवल भगवान् की प्रसन्नता ही है।

ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्येमहाभारतम।
 अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीमम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम।।१।।

नमोस्तुते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।
येन त्वया भारततैलपूर्ण: प्रज्वालितो ज्ञानमय: प्रदीप:।
पराकृतनमदबंधं परमब्रह्मनराकृति सौंदर्य सार सर्वश्वं वंदे नंदात्मजं मह:।
प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतं दुहे नम: ।।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूर मर्दनं,देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्।
आतसीपुष्पसंकाशं हारनुपुरशोभितम, रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्।।
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला।
अश्वत्थामविकर्ण घोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी सोत्तीर्णा
खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तक: केशव।।५‌।।
पाराशर्यवच: सरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं नानाख्यानककेसरं हरिकथासम्बोधनाबोधितम।
लोके सज्जनषट्पदैरहरह: पेपीयमानं मुदा भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमल प्रध्वंसि न: श्रेयसे।।६।।
मूकं करोतिवाचालं पङ्गुलङ्घ्यते गिरिम।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंदमाधवम।। ७।।
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम...

गीता का पाठ करने के तीन प्रकार हैं- सृष्टिक्रम, संहारक्रम और स्थितिक्रम। गीता के पहले अध्याय के पहले श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक तक सीधा पाठ करना अथवा प्रत्येक अध्याय के पहले श्लोक से लेकर, उसी अध्याय के अंतिम श्लोक तक सीधा पाठ करना ‘सृष्टिक्रम’ कहलाता है। अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक से लेकर पहले अध्याय के पहले श्लोक तक उलटा पाठ करना अथवा प्रत्येक अध्याय के अंतिम श्लोक से लेकर उसी अध्याय के पहले श्लोक तक उलटा पाठ करना ‘संहारक्रम’ कहलाता है। छठे अध्याय के पहले श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक तक सीधा पाठ करना और पाँचवें अध्याय के अंतिम श्लोक से लेकर पहले अध्याय के पहले श्लोक तक उलटा पाठ करना ‘स्थितिक्रम’ कहलाता है। ब्रह्मचारी सृष्टि क्रम से, संन्यासी संहारक्रम से और गृहस्थ स्थिति क्रम से पाठ कर सकते हैं। परंतु यह कोई नियम नहीं है। वास्तव में किसी भी प्रकार से गीता का पाठ किया जाय, उससे लाभ ही लाभ है।

गीता का पाठ संपुट से, संपुटवल्लभी से अथवा बिना संपुट के भी किया जाता है। गीता के जिस श्लोक का संपुट देना हो, पहले उस श्लोक का पाठ करके फिर अध्याय के एक श्लोक तक का पाठ करे। फिर संपुट के श्लोक का पाठ करके अध्याय के दूसरे श्लोक का पाठ करे। इस तरह संपुट लगाकर पूरी गीता का सीधा या उलटा पाठ करना ‘संपुट-पाठ’ कहलाता है। संपुट के श्लोक का दो बार पाठ करके फिर अध्याय के एक श्लोक का पाठ करे। फिर संपुट के श्लोक का दो बार पाठ करके अध्याय के दूसरे श्लोक का पाठ करे। इस तरह संपुट लगाकर पूरी गीता का सीधा या उलटा पाठ करना ‘संपुटवल्ली पाठ’ कहलाता है। गीता के पूरे श्लोकों का संपुट अथवा संपुटवल्ली से पाठ करने से एक विलक्षण शक्ति आती है, गीता का विशेष मनन होता है, अंतःकरण शुद्ध होता है, शांति मिलती है और परमात्मप्राप्ति की योग्यता आ जाती है।

संपुट न लगाकर पाठ करना ‘बिना संपुट का पाठ’ कहलाता है। मनुष्य प्रतिदिन बिना संपुट अठारह अध्यायों का पाठ करे अथवा नौ-नौ अध्याय करके दो दिन में अथवा छः-छः अध्याय करके तीन दिन में अथवा तीन-तीन अध्याय करके छः दिन में अथवा दो-दो अध्याय करके नौ दिन में गीता का पाठ करे। यदि पंद्रह दिन में गीता का पाठ पूरा करना हो तो प्रतिपदा से एकादशी तक एक-एक अध्याय का, द्वादशी को बारहवें और तेरहवें अध्याय का, त्रयोदशी का चौदहवें और पंद्रहवें अध्याय का, चतुर्दशी को सोलहवें और सत्रहवें अध्याय का तथा अमावस्या और पूर्णिमा को अठारहवें अध्याय का पाठ करे। किसी पक्ष में तिथि घटती हो, तो सातवें और आठवें अध्याय का एक साथ पाठ कर लें। इसी तरह किसी पक्ष में तिथि बढ़ती हो, तो सोलहवें और सत्रहवें इन दोनों अध्यायों का अलग-अलग दो दिन में पाठ कर ले।

यदि पूरी गीता कण्ठस्थ हो तो क्रमशः प्रत्येक अध्याय के पहले श्लोक का पाठ करते हुए पूरे अठारहों अध्यायों के पहले श्लोकों का पाठ करे। फिर क्रमशः अठारहों अध्यायों के दूसरे श्लोकों का पाठ करे। इस प्रकार पूरी गीता का सीधा पाठ करे। इसके बाद अठारहवें अध्याय का अंतिम श्लोक, फिर सत्रहवें अध्याय का अंतिम श्लोक- इस तरह प्रत्येक अध्याय के अंतिम श्लोक का पाठ करे। फिर अठारहवें अध्याय का उपान्त्य (अंतिम श्लोक से पीछे का) श्लोक, फिर सत्रहवें अध्याय का उपान्त्य श्लोक- इस तरह प्रत्येक अध्याय के उपान्त्य श्लोक का पाठ करे। इस प्रकार पूरी गीता का उलटा पाठ करे।

संस्कृत भाषा का शुद्ध उच्चारण करने की विधि- शब्द का जैसा रूप है, उसको बीच में से तोड़कर न पढ़े एवं लघु और गुरु का, विसर्गों और अनुस्वारों का तथा श, ष, स का लक्ष्य रख कर पढ़े तो संस्कृत भाषा का उच्चारण शुद्ध हो जाता है।

1. उच्चारण में इ, उ, ऋ- इन तीन अक्षरों के लघु और गुरु का ध्यान विशेष रखना चाहिए। क्योंकि अ और आ का उच्चारण भेद तो स्पष्ट स्वतः ही हो जाता है और लृ का उच्चारण बहुत कम आता है तथा वह दीर्घ होता ही नहीं। ऐसे ही ए, ऐ, ओ, औ- ये अक्षर लघु होते ही नहीं।

2. संयोग का आदि का विसर्गो के आदि का स्वर गुरु हो जाता है; क्योंकि संयोग का उच्चारण करने से पिछले स्वर पर जोर लगेगा ही तथा विसर्ग जो कि आधे ‘ह’ की तरह बोले जाते हैं, उनके उच्चारण से भी स्वर पर जोर लगता ही है। जिससे पीछे वाला स्वर गुरु हो जाता है। व्यंजनों का उच्चारण बिना स्वर के सुखपूर्वक होता नहीं और व्यंजन के आगे दूसरा व्यंजन आ जाने से पीछे वाले स्वर के अधीन ही उसका उच्चारण रहेगा; इसलिए पीछे वाला स्वर गुरु होता है।

3. अनुस्वार और विसर्ग किसी न किसी स्वर के ही आश्रित होते हैं; स्वर के बाद उच्चारित होने से ही उनकी अनुस्वार और विसर्ग संज्ञा होती है। अतः इनका उच्चारण करने से स्वाभाविक ही पिछले स्वर हो जाता है। यहाँ अनुस्वार के विषय में यह ध्यान देने की बात है कि उसका उच्चारण आगे वाले व्यंजन के अनुरूप होता है अर्थात् आगे का व्यंजन जिस वर्ग का होगा, उस वर्ग के पंचम अक्षर के अनुसार अनुस्वार का उच्चारण होगा। जैसे क, ख, ग, घ, ङ, परे होने पर अनुस्वार का उच्चारण ‘ङ्’ की तरह, च, छ, ज, झ, ञ परे होने पर ‘ञ’ की तरह, ट, ठ, ड, ढ, ण परे होने पर ‘ण्’ की तरह, त, थ, द, ध, न होने पर ‘न’ की तरह, प, फ, ब, भ, म परे होने पर ‘म्’ की तरह करना चाहिए। यह नियम केवल इन पचीस अक्षरों के लिए ही है। य, र, ल, व, श, ष, स, ह- ये आठ अक्षर परे होने पर शुद्ध अनुस्वार का ही उच्चारण करना ही चाहिए जो कि केवल नाशिका से होता है।

4. श, ष, स- इन तीनों का उच्चारण भेद समझते हुए इनको निम्नलिखित रीति से पढ़ना चाहिए। मूर्धा से ऊँचे तालु में लीभ लगाकर ‘श’ का उच्चारण करने से तालव्य शकार का ठीक उच्चारण होगा तथा उससे दाँतों की तरफ थोड़ा नीचे लगाकर ‘ष’ का उच्चारण करने से मूर्धन्य षकार का ठीक उच्चारण होगा एवं दोनों दाँतों को मिलाकर ‘स’ का उच्चारण करने से स्वाभाविक ही जीभ दाँतों के लगेगी, तब दन्त्य सकार का ठीक उच्चारण होगा।

श्लोक मंत्रमया: प्रोक्ता: सर्वे च सिद्धिदायक:।
अभीष्टकार्यसिद्धयर्थं विधिस्तेषां निगद्यते॥
श्री मद्भगवतगीता के जिस श्लोक को सिद्ध करना हो, उसका सम्पुट लगाकर पूरी गीता का पाठ करना चाहिये। जैसे, हमें 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:.....शाधि मां त्वां प्रपत्रम्‌'[1] - इस श्लोक को सिद्ध करना हो तो पहले इस श्लोक का एक बार पाठ करके फिर 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे....'[2] - इस श्लोक का पाठ करे। फिर 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:....' श्लोक का पुन: पाठ करके 'दृष्टा तु....' [3] - इस श्लोक का पाठ करें। इस तरह प्रत्येक श्लोक के पहले और पीछे सम्पुट लगाकर पूरी गीता का पाठ करें तो उपर्युक्त श्लोक (मंत्र) सिद्ध हो जायेगा।

सम्पुट से भी सम्पुटवल्ली लगाकर गीता का पाठ बहुत बढ़िया है[4] जैसे, 'कार्पण्य-दोषोपहतस्वभाव:..... 'श्लोक सिद्ध करना हो तो पहले इस श्लोक का दो बार पाठ करके फिर 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे.....' श्लोक का पाठ करें। फिर सम्पुटवल्ली वाले श्लोक का दो बार पाठ करके 'दृष्ट्वा तु...' श्लोक का पाठ करें। इस तरह पूरी गीता का पाठ करके अभीष्ट श्लोक को सिद्ध कर लें।[5]

अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए उपर्युक्त प्रकार से सिद्ध किए हुए मंत्र का जप गंगा जी के जल में खड़े होकर करना चाहिए। ऐसा न कर सकें तो गंगाजी के जल में पत्थरों का आसन बनाकर उस पर उनका आसन बिछाकर, बैठकर जप करना चाहिए। यह भी न कर सके तो गंगाजी के किनारे पर बालू में अपना ऊनी आसन बिछाकर मंत्र का जप करन चाहिए। अगर गंगाजी का सान्निध्य उपलब्ध न हो तो अपने घर में किसी एकान्त कमरे में गोबर और गोमूत्र को पानी में मिलाकर आसन लगाने के स्थान पर लीप दें और उस पर अपना ऊनी आसन बिछाकर, बैठकर मंत्र का जप करें।

गीतोक्त सिद्ध मंत्रों का निम्नलिखित कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है-

1. कोई बात भगवान् से पूछनी हो, किसी समस्या का समाधान पाना हो, ‘मैं ज्ञानमार्ग में चलूँ या भक्ति मार्ग में’- इस उलझन को मिटाना हो तो रात्रि के समय एकान्त कमरे में आसन बिछाकर बैठ जायँ। कमरे की बत्ती बुझा दें। केवल एक अगरबत्ती जलाकर रखें। अँधेरे में चमकती हुई उस अगरबत्ती पर अपनी दृष्टि रखें और भगवान् का ध्यान करें। भगवान् मेरे सामने खड़े हैं और मैं अर्जुन भगवान् से पूछ रहा हूँ- ऐसा भाव रखकर ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।’[1] - इस श्लोक का पाठ करें और साथ में अर्थ का भी चिन्तन करते रहें। पाठ करते-करते श्लोक के जिस चरण में अथवा जिन पदों में मन लग जाय, उसी का पाठ करना शुरू कर दें, जैसे- ‘पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूखढचेताः; पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः’ अथवा ‘निश्चितं ब्रूहि तन्मे; निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ या ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्; शाधि मां त्वां प्रपत्रम्’ आदि किसी एक की बार-बार आवृत्ति करते रहें। इस तरह पाठ करते हुए नींद आने लगे तो पाठ करते हुए ही सो जायँ। ऐसा करने से स्वप्न में भगवान् का संकेत मिलता है। उस संकेत से उलझ लेना चाहिए कि भगवान् का अमुक भाव है। अगर संकेत समझ में न आये तो दूसरे दिन पुनः रात्रि में उपर्युक्त विधि से पाठ करें और भगवान् से प्रार्थना करें करें कि महाराज! आप लिखकर बतायें। ऐसा करने से रूप में लिखकर सामने आ जाएगा। लिखा हुआ भी समझ में न आये तो दूसरे दिन पुनत्र रात्रि में उपर्युक्त विधि से पाठ करें और भगवान् से प्रार्थना करें कि प्रभो! आप कहकर बतायें। ऐसा करने से स्वप्न में आवाज आ जायगी और आवाज के साथ ही हमारी नींद खुल जाएगी।

अगर एक रात में ऐसा स्वप्न न आये तो जब तक स्वप्न न आये, तब तक उपर्युक्त विधि से प्रतिदिन रात में श्लोक का पाठ करते रहें। ग्यारह अथवा इक्कीस दिन तक पाठ किया जा सकता है। इसमें जितनी तेज लगन होगी, उतना ही जल्दी काम होगा।

2. मन में दो बातों की उलझन हो और उनका समाधान पाना हो तो उपर्युक्त विधि से ही ‘व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।’[2] - इस श्लोक का पाठ करना चाहिए।

3. भूत-प्रेत की बाधा को दूर करना हो तो ‘स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृशष्यत्यनुरज्यते च। रक्षांसि भीतानि दिशो दवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।।’[1] - इस मंत्र को पहली कही गयी विधि से सिद्ध कर लेना चाहिए। फिर जिस व्यक्ति को भूत-प्रेत ने पकड़ा है, उसको इस मंत्र का पाठ करते हुए मोरपंख से झाड़ा दें अथवा अपने हाथ में शुद्ध जल से भरा हुआ लोटा ले लें और इस मंत्र को बोलकर जल में फूँक मारते रहें, फिर वह जल उस व्यक्ति को पिला दें। इन दोनों प्रयोगों में इस मंत्र का सात, इक्कीस या एक सौ आठ बार पाठ कर सकते हैं। इस मंत्र को भोजपत्र या सफेद कागज पर अनार की कलम के द्वारा अष्टगंध से लिखें और ताबीज में डालकर रोगी के गले में लाल धागे से पहना दें।

4. शास्त्रार्थ में, वाद-विवाद में विजय पाने के लिए ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।’[2] - इस मंत्र का जप करना चाहिए।

5. सब जगह भगवद्भाव करने के लिए सातवें अध्याय के सातवें अथवा उन्नीसवें श्लोक का पाठ करना चाहिए।

6. भगवान् की भक्ति प्राप्त करने के लिए नवें अध्याय का चौंतीसवाँ, ग्यारहवें अध्याय का चौवनवाँ अथवा पचपनवाँ, बारहवें अध्याय का आठवाँ और अठारहवें अध्याय का छाछठवाँ- इनमें से किसी एक श्लोक का पाठ करना चाहिए।

इस तरह जिस कार्य के लिए जो श्लोक ठीक मालूम दे, उस का पाठ करते रहें तो कार्य सिद्ध हो जाएगा। अगर वह श्लोक अर्जुन का हो तो अपने में अर्जुन का भाव लाकर भगवान् से प्रार्थना करें; और भगवान् का श्लोक हो तो ‘भगवान् मेरे से कह रह हैं’- ऐसा भाव रखते हुए पाठ करें। गीता के श्लोकों पर जितना अधिका श्रद्धा विश्वास होगा, उतना ही जल्दी काम सिद्ध होगा।


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