आर्य समाज के कुछ असंगत नियमों का खंडन

।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।

1

ब्रह्म के साकार रूप में भी विद्यमान होने का वैदिक प्रमाण। स्वयं को वैदिक कहकर देवताओं, पुराणों के आलोचकों की आलोचना।


जो धूर्त स्वयं को वैदिक कहकर पुराणों, देवताओं का अपमान करते हैं, यह Research उन्हीं के लिये है। मैं आर्य को कुछ नहीं कहुँगा क्योंकि आर्य वह हर व्यक्ति है जो भारतवर्ष में निवास करता है।
मैं उन्हें गलत नहीं कहता जो निराकार ब्रह्म को मानते हैं, अनाम ब्रह्म के उपासक हैं परंतु जो साकार को भी न मानें मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा मूढ़ वही है।
वेद के संबंध में जरा भी ज्ञान नहीं, वे यहाँ तक कह देते हैं कि वेद में केवल निराकार के संबंध में लिखित है, दयानंद नें भी यही किया है।
मुझे वेद में ऐसे कई मंत्र मिले हैं जो सिद्ध करें कि ब्रह्म साकार रूप में भी विद्यमान है, और अंध वैदिकों को जो ईश्वर का अपमान करते हैं उन्हें दर्पण दिखाने जा रहा हूँ…

भगवान शिव जिसे वैदिक नहीं मानते…
शुक्ल यजुर्वेदोक्त श्लोक जिसमें देवता इंद्र का भी वर्णन है,
“उग्रँ लोहि तेन मित्रगूँ सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येनेन्द्रं प्रकीडेनमरुतो बलेनसाद्ध्यान्प्रमुदा। भवस्य कण्ठ्यगूँ रुद्रस्यान्त: पाश्व्य महादेवस्य यक्रच्छर्वस्यवनिष्ठ: पशुपते: पुरीतत्।।”

उक्त श्लोक रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोध्याय के तृतीय मंत्र के रूप में वर्णित है, अर्थ…

“अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”

और शायद अंधो को ही निम्नांकित श्लोक न दिखे…
“यज्जागृतो दूरमुदैति दैवं तदुसप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु।।”
उक्त संकल्पमंत्र में भी शिव के संबंध में वर्णित है जाकर यजुर्वेद देखें।

“ओउ्म् गणानांत्वा त्वा गणपतिगूँ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिगूँ हवामहे निधीनां त्वा निधिपति गूँ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।”

उक्त श्लोक यजुर्वेद 23|19 है, यहाँ भगवान गणेश वर्णित हैं।

जाकर वेदों का पठन करें, ऐसे कई साक्ष्य मिलेंगे।

जब वेदों में ही साकार रूप की उपासना हैं तो फिर मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?
और दयानंद ने वेदों में सिर्फ निराकार का उल्लेख है, ऐसा क्यों कहा? इसमें तो साकार और निराकार दोनों का वर्णन है।

अब आईये इस लेख में जिसमे मैंने प्रथम मंडल के 16 से 25 सूक्तो का समावेश किया हैं। इन सूक्तो में मुझे विष्णु का भी स्तुति मिली। आप देख ले।

मैं ये नही कहता की इस्वर के निराकार रूप नही है। आप इस्वर को जैसा मानेंगे वो उसी तरह आपको दिखेंगे। वैसे भी, साधारण मानव बिना आकृति के ब्रह्म का ध्यान कैसे करेगा? खैर, ये बात छोडिये आईये ऋग्वेद की ऋचाओ पर ध्यान देते है की किस प्रकार वेदों ने ब्रह्म के साकार रूप की स्तुति की है।

प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।

“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।

“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”

इस मन्त्र में तो अग्नि देव को भी रूप वाले कहा हैं। अर्थात वेद साकार की उपासना करने को कह रहे हैं।
प्रथम मंडल के सूक्त 22 में लगातार इन 6 मंत्र हैरान करने वाले हैं। क्योंकि इसमें संस्कृत में भी स्पष्ट शब्दों में विष्णु की स्तुति हैं।

“अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः।।”

“जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें।”

“इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांगूँसुरे स्वाहा।।”

“यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है।”

“त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्।।

“विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वाराविश्व का संचालन करते है।”

“विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।।”

“हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शनकिया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)।”

“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।।”

“जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं।”

“तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्।।

“जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है।”

विष्णु जी का सदा विरोध करने वाले वैदिक लोगो को पढना चाहिए कि वेदों में भी उनका वर्णन है।

प्रथम मंडल के सूक्त 24 के इस मन्त्र को देखे।

“शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्।।”

“तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें।”

यहाँ पर तो साफ शब्दों में वरुण देव को अदिति पुत्र कहा गया हैं। अर्थात वरुण देव साकार है। यानि यहाँ पर भी साकार की स्तुति हैं।

प्रथम मंडल के 25 वें सूक्त में तो साफ साफ वरुण देव के हृष्ट पुष्ट शरीर का वर्णन हैं और वो भी कवच धारण करने वाले।

“बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे।।

“सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है।”

तो यहाँ पर भी साफ सुथरे शब्दों में वरुण के साकार रूप की स्तुति हैं। तो फिर आर्य लोग मूर्ति पूजा का क्यों विरोध करते हैं ?
25 वें सूक्त में तो वेदों ने यहाँ तक कह रहे है की वरुण देव दर्शनीय है हमने उनको देखा है।

“दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मेगिरः।।”

“दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।”

जो साकार होता है वही दर्शनीय होता हैं। ये सब तो आर्य और वैदिक लोग जानते ही होंगे। तो यहाँ पर भी साकार देव की ही स्तुति! तो मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?

ऋग्वेद के तो प्रथम मण्डल में ही अग्निदेव आदि की स्तुति है।

“अग्निनां रयिमश्र्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।।”

“ये अग्निदेव मनुष्यों को विवर्धमान धन धन्य यश से संपूर्ण करने वाले हैं।”

“वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधीहवम्।।”

“हे वायुदेव! हमारी प्रार्थना सुनकर यज्ञस्थल में आवें। आपके निमित्त प्रस्तुत सोमरस का पान करें।”
(अगर ईश्वर निराकार है तो सोमरस का पान कैसे करे?)

“अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम्।।”

“हे महाबाहो अश्विनीकुमारों! हमारे द्वारा समर्पित हविष्यान्न से आप भलीभाँति संतुष्ट हों।”

“उप न: सवनागहि सोमस्यसोमपा: पिब। गोदा इंद्रेवतो मद:।।”

“हे सोमरस पान करने वाले इंद्रदेव! आप सोमरस पान कर यजकों को यश तथा गौएँ प्रदान करें।”
अब समर्थक कहेंगे कि “इंद्र अर्थात् प्रकाशक (ईश्वर)। इसमें प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर सोमरस पान करते हैं? हाँ तो कैसे? बिना मुख के? मुख है तो निराकार कैसे?
फिर समर्थक कहेंगे कि इंद्र किसी व्यक्ति हेतु कहा गया होगा। फिर प्रश्न उठता है कि, इंद्र नामक केवल स्वर्ग का राजा वर्णित है, फिर एक यज्ञ (इन सूक्तों का उपयोग वेदों में यज्ञ के समय देवताओं के आवाहन हेतु हुुआ है) में किसी इस प्रकार प्रार्थना करके केवल देवों का आवाहन किया जाता है न कि व्यक्ति का। क्यो?

ऐसे ही कई सूक्त हैं।

ऋग्वेद में देवी भगवती स्वयं ब्रह्मद्वेषियो के वध के लिए हाथ में रूद्र का धनुष ग्रहण करती हैं।

“अहं रुद्राय धनुरा तनोमि। ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।।”
(10|7)

“ब्राह्मणोस्यमुखमासीद् बाहूँ राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ गूँ शूद्रो अजायत।।” (पुरुषसुक्त)

“उनके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा पाद से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। तो जिनके अंग हों उनका देह कैसे नहीं??”

“मैं ही ब्रह्मद्वेषियो का वध करने के लिए रूद्र का धनुष तानती हूँ।”

इसका तात्पर्य यह है कि देवी का स्वरूप भी है हाथ भी है तभी हाथ में शिव का धनुष धारण करेगी।

इस पोस्ट को देखकर स्वयं को वैदिक बताने वालों की बुद्धि की दुकान बंद हो जाएगी। इनकी बुद्धि इसी प्रकार है जैसे मरीज को डाक्टर से दवाई लिखवाकर परचा दे दीजिये। मरीज पर्चा को ही दवाई समझ लिया और उसी पर्चे को खा जाय।

ये वेद के मंत्रो का अर्थ नहीं जानते है। वेद की किताब को ही विद्या समझ कर खा गए हैं, डकार ले रहे हैं।

जहाँ तक राम और कृष्ण का सवाल है, यह तो पुराणों में वर्णित ही है कि न ही उनका जन्म गर्भ से ही हुआ है वरन् वे चतुर्भुज ही आए तत्पश्चात् ही बालक रूप धारण किया। जिन राम का नाम लेकर रूद्र ने हलाहल पान किया उन्हें केवल योगी कहना मूढ़ता है।

अब ये बोलेंगे कि हम पुराण को नहीं मानते… ये लो..

“ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।” (अथ. 11|9)

इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।

“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” (बृहदारण्यकोपनिषद्)

अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराणों द्वारा ही करना चाहिये।

अंत में एक बार फिर से आप सब से ये कहना चाहूँगा की अगर आप निराकार की उपासना करते हैं तो बहुत अच्छा है। मैं उसका तनिक भी विरोध नही करता। क्योंकि वेद में तो निराकार इश्वर की भी उपासना हैं। लेकिन साकार इस्वर की भी उपासना हैं। तो आप भले भी निराकार को माने लेकिन साकार अर्थात मूर्ति पूजा का विरोध ना करें, क्योकि वैदिक ऋषि तो साफ साफ साकार रूप की स्तुति कर रहे हैं। गीदड़ शेर की छाल पहन ले तो शेर न हो जाएगा अत स्वयं को वैदिक कहने वालों से कहना चाहुँगा कि अभी भी समय है उचित पथ पर आ जाओ। अन्यथा ईश्वर देख रहा है…

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2

भगवान निराकार और साकार दोनों है? - वेदों के प्रमाणों द्वारा।

क्या भगवान् निराकार और साकार दोनों है? - वेद के अनुसार

आदिशङ्कराचार्यः के विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। 


 भगवान साकार और निराकार दोनों है - वेदों के प्रमाणों द्वारा। तो अब मन में यह शंका होती है की क्या भगवान निराकार और साकार दोनों है? अगर है तो कैसे? क्या वेदों में कोई प्रमाण है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर वेद के द्वारा देंगे। वेदों के उत्तर भाग और अंतिम भाग को उपनिषद् से जानन जाता है। यह ध्यान रहे की उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं, अतएव यह वेद का ही अंश है।

उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर निम्नलिखित वेद मन्त्रों द्वारा कुछ इस प्रकार है -

    य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद् वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति।
    विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥
    - श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१ 

भावार्थ:- जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजनवाला होने के कारण विविध शक्तियों के संबंध से सृष्टि के आदि में अनेक रूप-रंग धारण कर लेता है तथा अन्त में यह सम्पूर्ण विश्व (जिसमें) विलीन भी हो जाता है, वह परमदेव (परमात्मा) एक (अद्वितीय) है, वह हम लोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करें।

अर्थात् जो भगवान निराकार स्वरूप में रंग-रूप आदि से रहित होकर भी सृष्टि के आदि में किसी रहस्यपूर्ण प्रयोजन के कारण अपनी स्वरूपभूत नाना प्रकार की शक्तियों के संबंध से अनेक रूप-रंग आदि धारण करते है (अर्थात् साकार रूप धारण करते है)।

    द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च
    स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च॥
    - बृहदारण्यकोपनिषद् २.३.१ 

भावार्थ:- ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत, स्थित और यत् (चर) तथा सत् और त्यत्।

अर्थात् वो भगवान के ही दो स्वरूप है एक निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त)। प्रश्न - उस भगवान के दर्शन कैसे हो सकते है? उत्तर -

    नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
    यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥
    - मुण्डकोपनिषद् ३.२.३ और कठोपनिषद् १.२.२३ में भी इसी प्रकार है। 

भावार्थ:- यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसको स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है (क्योंकि) यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।

    अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
    तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः॥
    - कठोपनिषद् १.२.२० 

भावार्थ:- इस जीवात्मा के हृदयरूप गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से भी महान है। परमात्मा की उस महिमा को कामनारहित और चिन्तानरहित (कोई विरला साधक) सर्वाधार परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पता है।

अर्थात् जो ब्रह्म अब तक निराकार है, उसको उसकी कृपा से देखा जा सकता है। प्रश्न - भगवान को हम क्यों नहीं देख पाते? उत्तर -

    हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
    तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
    - ईशोपनिषद् १५ 

भावार्थ :- हे सबका भरण-पोषण करने वाले परमेश्वर सत्य स्वरूप आप सर्वेश्रर का श्रीमुख ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलस्वरूप पात्र से ढका हुआ है। आपकी भक्तिरूप सत्यधर्म का अनुष्ठान करने वाले मुझको अपने दर्शन करने के लिए उस आवरण को आप हटा लीजिये।

अर्थात् कोई आवरण है जिसको हटाने पर भगवान के स्वरूप को देखा जा सकता है। इस वेद मन्त्र में साधक भगवान के दर्शन के लिए जिस आवरण को हटाने को कहता है, वह आवरण योग माया का है। गीता ७.२५ 'नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः' और कठोपनिषद् भी इस बात की पुष्टि करता है -

    तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।
    अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥
    - कठोपनिषद् १.२.१२ 

भावार्थ :- जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्व्याप्ति सबके हृदयरूप गुफा में स्थित (अतएव) संसाररूप गहन वन में रहने वाला सनातन है, ऐसे उस कठिनता से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धियुक्त साधक अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा समझकर हर्ष और शोक को त्याग देता है।

    एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।
    दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥
    - कठोपनिषद् १.३.१२ 

भावार्थ :- यह सबका आत्मरूप परमपुरुष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से देखा जा सकता है।

उपर्युक्त वेद के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान के ही दो स्वरूप है - निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त), जिसे न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से जानन जा सकता है क्योंकि वो योग माया के पर्दे में छिपा हुआ है। जिस पर भगवान कृपा करके योग माया के पर्दे को हटा देता है वो भगवान के दिव्य स्वरूप को देख लेते है।

अगर अभी भगवान अवतार लेकर आये तो भी हम अपने इस चर्म चक्षु से उनको माया के आधीन कोई व्यक्ति समझेंगे। लेकिन जिन जीव ने भगवान की शरणागति कर ली है उन पर से भगवान योगमाया का पर्दा हटा देते है, जिस के फल स्वरूप जिस अवतारी भगवान को वो माया के आधीन देखता था, अब उन्ही भगवान को उनके दिव्य स्वरूप में देखता है।
 


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3

सत्यार्थ प्रकाश का असत्य
वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारो वेद कहानी ( सत्यार्थ प्रकाश नानकपंथ समीक्षा का खंडन )
 

राम चरित्र मानस में तुलसीदास लिखते हैं कि-
जब-जब होई धरम के हानि....!
बढहिं अधम असुर अमिभानी...!!
तब-तब प्रभु धर विविध शरीरा...!
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा......!!
और इसी अवतार परंपरा के बारे स्वयं गीताकार योगेश्वर ने गीता में कहा कि-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ : साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।


स्वामी दयानंद सस्वती ये नाम सुनते ही अनेकों व्यक्तियों को ऐसा लगता है कि स्वामी दयानंद सस्वती ने ही सनातन धर्म की रक्षा की है स्वामी दयानंद सस्वती ने ही राष्ट्र के टुकड़े टुकड़े होने से बचाया है स्वामी दयानंद सस्वती ने ही जाति और वर्ण के भेद भाव को मिटाकर सबको एक करने का प्रयास किया है लेकिन ये बिल्कलु भी सत्य नहीं है , हम आपके सामने एक छोटा सा उदहारण रख रहे है उसके पश्चात् निर्णय आपको करना है क्या स्वामी दयानंद सरस्वती जी को स्वामी या महर्षि बोलना कंहाँ तक उचित है – 

स्वामी दयानंद सरस्वती उर्फ़ झुठानंद जी अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश उर्फ़ असत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास अर्थात ग्यारहवे अध्याय के नानकपंथ समीक्षा में लिखते है कि-

                  वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारो वेद कहानी |

                  संत की महिमा वेद न जानी || (सुखमनी अष्टपदी ७, पद ८)

जब हमने सुखमनी को पढ़ा तो वंहा ऐसा कुछ नहीं मिला सत्यार्थ प्रकाश में सन्त है जबकि इसमें साध है इससे हमें कोई परेशानी नही लेकिन पहली पंक्ति वेद पढत ब्रह्मा मरे चारो वेद कहानी ये स्वामी जी अपनी तरफ से लिख गये है अब बताओ सत्यार्थ प्रकाश को कँहा से सत्य मान लिया जाए , यंहा स्वामी जी ने सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं को सिक्खों के प्रति भडकाने का और फूट डालने का कार्य किया है अंग्रेजों की रणनीति अपनाई फूट डालो राज्य करो ,प्रमाण के रूप में दोनों पुस्तकों से चित्र दे रहे है निर्णय आपके हाथ में है स्वामी दयानंद सरस्वती सनातन धर्म के रक्षक है या भक्षक , कृपया पोस्ट पर किसी भी प्रकार की भद्दी कमेन्ट न करें सप्रमाण बात करें || जय श्री राम ||


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वेदों और गीता का आपसी सम्बन्ध: एक तार्किक अध्ययन

Shrimad Bhagavad Gita & Veda: The Principle of Correlation A Scientific Study.

वैदिक व्यवस्था को आधार मानकर राज्य व्यवस्था एवं राष्ट्र निर्माण के सर्वोत्कृष्ट अनुभव हमें गीता करवाती है, भगवन श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन एवं उनके भाइयों को जो उपदेश युद्ध के मैदान में दिए गए वह सभी उपदेश वेदों की आज्ञा ही तो है, किन्तु अज्ञानवश हम उन वेदाज्ञाओं को भूलकर वेदों में न जाने कौन सा ज्ञान खोजने लग जाते है कि चाहे राष्ट्र, समाज, संस्कृति पूर्ण नष्ट हो जाये परन्तु फिर भी हम यही सोचते रहते है की कोई चमत्कार हो जायेगा.

चमत्कार तो तभी हो सकता है जब हम सभी मिलकर उस पौरुष को कर दिखाएं, जिसे श्री कृष्ण ने मनोबल विहीन, संख्याबल में कमजोर एवं युद्ध की अनिच्छा रखने वाले अर्जुन, एवं उनके भाइयों से करवा लिया. अर्जुन को तो ऐन युद्ध के समय गीता का ज्ञान मिला था आज तो घर घर में गीता है फिर घर घर में अर्जुन क्यों नहीं है? फिर भी हम विजयी होने के स्वप्न नहीं देखते, हम विजयी नहीं होना चाहते तो फिर क्या काम ऐसी गीता का, एवं क्या लाभ वैदिक ज्ञान का, जिसके बूते आर्य विश्व विजयी थे, सर्वोत्कृष्टथे, सर्वसमृद्धि के स्वामी थे. गीता का स्पष्ट अर्थ है पुरुषार्थ करों एवं शत्रु पर सर्वश्रेष्ठ एवं अंतिम विजय प्राप्त करों नहीं तो पुरुषार्थहीन होकर रोज नयी परिभाषाएं गढ़ लो, मंदिर बना लो, कीर्तन करते हुए गीता जी को सिर पर धारण कर लो और अपनी अपनी दुकानदारी चलाओ, गीता तो समझ आने से रही, गीता तो सिर के अन्दर धारण करने से ही समझ में आयेगी, एवं इसके लिए किसी बाहरी आडम्बर की आवश्यकता नहीं है.

यदि गूढ़ ज्ञान के भण्डार को संकुचित कर वेदों की ऋचाओं में बद्ध कर दिया गया है, एवं वेदों की प्रत्येक ऋचा में यह ज्ञान संकलित है, तो यह जान लीजिये कि वेदों की शत्रुनाशन ऋचाओं में जो गूढ़ ज्ञान है उसी का विस्तृत परीक्षण महाभारत के युद्ध में गीता के उपदेश के माध्यम से हुआ है. शत्रुनाशन सूक्त का ही प्रायोगिक परीक्षण है गीता. अब या तो आप उस सूक्त में गीता समझ लें, या फिर गीता को समझने में हजारों ग्रंथों की रचना कर लें, गीता तो तभी समझ आयेगी जब सोया हुआ आत्सम्मान एवं आत्मबल जागेगा, जब समाज एवं राष्ट्र का चिंतन बाकी के सभी विचारों से पहले होगा.

गीता मतलब शत्रुनाशन, गीता मतलब शत्रु का सर्वस्व नाश, गीता मतलब सर्वश्रेठ कर्मों एवं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ शत्रु नाश करने में कोई संशय नहीं होना, यही गीता है| यही ऋग्वेद में लिखा है, यही अथर्ववेद में भी लिखा है. गीता को गीतोपनिषद भी कहा जाता है,गीता क्या किसी वेद का उपनिषद है? यदि गीता उपनिषद है तो किस वेद के कौन से सूक्त का? मुझे यह मान लेने में कोई संकोच नहीं है कि गीता ऋग्वेद के दशम मंडल के ८३ एवं ८४ सूक्तो का उपनिषद है. इन्ही ऋचाओं को अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के ३१वें एवं ३२वे सूक्त में यथारूप ग्रहण किया है. मन्यु का अर्थ दुष्टों पर उत्साह युक्त क्रोध है, इसी लिए यजुर्वेद 19.9 में प्रार्थना है —

मन्युरसि मन्युं मयि धेहि,

हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर)! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये. महाभारत के पश्चात ऐसा लगता है कि समाज मन्यु विहीन हो गया है, तभी तो हम सब दुष्टों के व्यवहार को परास्त न कर के, उन से समझौता करते चले आ रहे हैं. समाज, राष्ट्र, एवं संस्कृति की सुरक्षा के लिए, मन्यु कितना मह्त्व का विषय है यह इस बात से सिद्ध होता है कि ऋग्वेद, अथर्ववेद के बाद भी सरल भाषा एवं पूरे विस्तार से समझाने के उद्देश्य से गीता में उन भावों को पुरे विस्तार से जन हितार्थ समझाया गया है.

यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक |
साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता || ऋ 10/83/1

हे मन्यु, जिस ने तेरा आश्रयण किया है, वह अपने शस्त्र सामर्थ्य को, समस्त बल और पराक्रम को निरन्तर पुष्ट करता है. साहस से उत्पन्न हुवे बल और परमेश्वर के साहस रूपी सहयोग से समाज का अहित करने वालों पर बिना मोह माया (स्वार्थ, दुख) के यथायोग्य कर्तव्य करता है, श्रीकृष्ण के शब्दों में

कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचनः,

वेद फिर कहते हैं :

संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः |
भियं दधाना हर्दयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् || ऋ10/84/7 AV4.31.7

हे मन्यु , बोधयुक्त क्रोध , समाज के शत्रुओं द्वारा (चोरी से) प्राप्त प्रजा के धन को तथा उन शत्रुओं के द्वारा शत्रुराष्ट्र में पूर्व में एकत्रित किये गये दोनो प्रकार के धन को शत्रु के साथ युद्ध में जीत कर सब प्रजा जनों एवं उचित अधिकारियों को प्रदान कर (बांट). पराजित शत्रुओं के हृदय में संग्रामभूमि में इतना भय उत्पन्न कर दे कि वे निलीन हो जाएं. वेदों के अनुसार त्यागी, तपस्वी,राजपुरुष, एवं विद्वानों के प्रेमपूर्वक समझाने पर भी जो भ्रष्टाचार और दुराचार का परित्याग न करे, एवं जिसके कृत्य समाज के लिए घातक हो उनको राजा द्वारा कठोर दंड देना चाहिए, उन पर दया नहीं दिखलानी चाहिए. थोड़े से लोगों को भी ऐसा कठोर दंड देने से अन्य लोग प्रेरणा प्राप्त कर उन पाप कार्यों में निवृत नहीं होंगे. इसीलिए वेदों में दंड विधान में छोटे दंड से लेकर कारागार, एवं कारागार से लेकर मृत्यु दंड तक का विधान हैं. अस्त्रशस्त्र का उपयोग केवल अन्य राष्ट्र पर आक्रमण ही नहीं है किन्तु इनके उपयोग द्वारा ही राष्ट्र, समाज, एवं संस्कृति की रक्षा संभव है, शत्रु का नाश संभव है, इसीलिए वैदिक व्यवस्था में स्पष्ट है कि समाज की प्रत्येक इकाई अपने निजी जीवन में स्वार्थ वश हिंसा न करे, यानि अहिंसा परमो धर्मः किन्तु साथ ही साथ यह भी स्पष्ट प्रावधान है कि अस्त्र शस्त्रों का निरंतर अभ्यस एवं निर्माण भी राष्ट्र में सतत चलते रहना चाहिए, जिससे राष्ट्र के शत्रुओं द्वारा यदि किसी भी प्रकार का अधार्मिक आचरण किया जाता है तो उसका समुचित प्रतिकार किया जा सके यानि धर्म हिंसा तथैवचः।

यदि हमारा राष्ट्र, समाज एवं संस्कृति सुरक्षित है तो ही हम अपने जीवन में सर्वोच्च वैदिक आदर्शों पालन कर पाएंगे, यदि राष्ट्र ही सुरक्षित नहीं है तो न संस्कृति बचेगी न समाज, अतः वेदों में राष्ट्र की सुरक्षा को सर्वोपरि माना गया है| वैदिक दंड विधान, जिसे गीता में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा और स्पष्ट किया गया है, से ही विश्व शांति की कल्पना सिद्ध होती हैं। वेदों के अनुसार विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से ही दंड व्यवस्था का प्रावधान हैं। अगर राष्ट्र में देशद्रोही,चोर, डाकू, भ्रष्टाचारी, अनाचारी, अत्याचारी लोग अपने कुकृत्य में लगे रहेंगे तो विश्व में शांति की स्थापना हो ही नहीं सकती। इसलिए उनका उचित समाधान निकालने से ही शांति संभव हैं। वेदों में सामान्य प्रजा जो अपना धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर रही हैं की रक्षा करने का आदेश हैं, एवं रक्षा तभी संभव है जब राष्ट्र एवं समाज अस्त्र शस्त्रों से एवं इनके सञ्चालन के ज्ञान से पूरी तरह संपुष्ट होगा, इसलिए वेदों पर एवं वैदिक ज्ञान पर विश्वशांति स्थापित करने की महत्ती जिम्मेदारी भी है.

गीता स्पष्ट कहती है जो पुरुषार्थ करेगा वह विजयी होगा, तो फिर देर किस बात की, उठो और इन अँगुलियों से सम्पूर्ण विश्व के भाग्य के लेख लिखो, गीता का कृष्ण पुरुषार्थ का देवता है, अर्जुन उसका अनुगामी, तुम भी पुरुषार्थी बनो, पुरुषार्थी भीख मांगने के लिए नहीं है वरन देने के लिए बना है, क्या अर्जुन ने श्री कृष्ण से भीख मांगी? नहीं उन्होंने दृष्टि मांगी, अर्जुन की दृष्टि स्वार्थ की थी, स्वार्थ की दृष्टि संकुचित होती है, वह स्वार्थ पर ही टिकती है, किन्तु कृष्ण की दृष्टि, वेदों की दृष्टि तो समस्त भूमंडल पर है, स्वार्थ में कपट है, कृष्ण दृष्टि में, गीता की दृष्टि में दायित्व बोध है, इसलिए गीता की दृष्टि अपनाओ. दायित्व बोध की आवश्यकता तब होती है जब किंकर्तव्यविमुढ़ता हावी हो जाती है, जब सही एवं गलत का निर्णय करने में हम सक्षम नहीं होते. यदि अर्जुन जैसा शूरवीर, युधिष्टिर जैसा ज्ञानी, भीम जैसा योद्धा, एवं नकुल सहदेव जैसे प्रतापी भी विमूढ़ता की स्तिथि को प्राप्त होते हैं तो साधारण मानव के लिए ऐसा होना कोई गलत नहीं होगा किन्तु साथ ही साथ हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए के जिस गीता के सन्देश से उनकी दृष्टि स्पष्ट हुई एवं लक्ष्य का संधान कर पाई वही सन्देश हमें भी सुलभ है, अनेक मित्र वेदों के बारे में परिचित नहीं है, कुछ मित्रों को गीता के बारे में भी बहुत गलतफहमियां है , साथ ही साथ करीब-करीब सभी मित्र गीता अथवा वेदों को धार्मिक ग्रन्थ मानने के भ्रम से पूर्वाग्रही हैं…

क्या वेद अथवा गीता वास्तव में धर्म ग्रन्थ हैं अथवा कुछ और हैं, यदि हमें वेदों एवं गीता का यथारूप समझने का अवसर मिल जाए तो यह स्पष्ट हो जायेगा की वेदों एवं गीता का धर्म के नाम की कथित अफीम से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं है. वेदों का धर्म, गीता का धर्म तो मात्र राष्ट्र उत्थान, समाज उत्थान एवं मानव उत्थान का मार्ग है, जिस धर्म की परिभाषा को हम जी रहें हैं उससे तो वेदों का, भगवन श्रीकृष्ण का या गीता का कोई वास्ता ही नहीं है. हमें अपनी परिभाषाओं पर पुनर्विचार करना होगा, यदि भारत को विश्व गुरु बनाना है तो प्रत्येक भारतीय को इस पर चिंतन करना होगा, १०० करोड़ की सम्मिलित सोच की शक्ति दावानल बनकर मानवता विरोधी शक्तियों को जलाकर भस्म कर देगी एवं पूरे विश्व में ज्ञान विज्ञान की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी, किन्तु यह उन्नति तभी संभव है जब हमें हमारे इतिहास का सही ज्ञान होगा, इतिहास में हमारे समाज द्वारा अर्जित ज्ञान एवं वैभव की जानकारी एवं हमारे समाज के पतन होने के कारणों की जानकारी होगी.

मानवमात्र का जीवन निश्चित वर्षों का होता है, किन्तु राष्ट्रों एवं संस्कृतियों का जीवन हजारों वर्षों का होता है, इन हजारों वर्षों की निर्मिती के मूल में मानव मात्र की प्रत्येक पीढ़ी का योगदान एवं भविष्य को निर्धारित करने की सोच एवं प्रयासों से ही यह महानिर्माण संभव हो पाता है, वेद यही तो हमें बताते हैं, गीता एवं अन्य उपनिषद हमें आत्मुत्थान का मार्ग ही तो बताते है, किन्तु सारा आत्मुत्थान उस समय किसी काम नहीं आता जब समाज का वीर्य क्षीण हो जाता है एवं उस समाज से रजोगुणों का नाश हो जाता है तो वह समाज स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए भी पराभिमुख हो जाता है. ऋषियों ने राष्ट्र के अनुभवों को,अपने अनुभवों के साथ जोड़कर हमारे लिए मार्गदर्शन दिया एवं वेदों की रचना हुई, पुरुषार्थी समाज ने इन अनुभवों से सीख कर प्रायोगिक परीक्षण किया जो हमारा इतिहास बना, हमें मूल के परिणाम इतिहास से ज्ञात होते हुए भी मूल एवं इतिहास दोनों को भूलकर किस ज्ञान की तलाश है? हमें मूल को ग्रहण करना है न की मीमांसाओं में डूब जाना है.

और एक बात विचारणीय है कि महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विषाद युक्त होने पर अनार्य कहकर संबोधित किया इसका अर्थ यह हुआ कि आर्य हम पहले से ही है न कि दयानंद जी ने आर्य समाज की स्थापना की जैसा कि तथाकथित पढ़ाया जाता है उन्होंने केवल पुनर्जागरण किया था।

So my Request is to that....

Dear members of Arya Samaj, ISKCON, Ram Krishna Mission and every sect of Hinduism (including Buddhism, Sikhism, Jainism and everyone who believes in self-realization): If for next 10 years, you can let go of criticizing other sects you will do a phenomenal service of Dharma and Bharat Mata. If you do not criticize (like most people in your group), naman to you. Spread this message to the rare but damaging ones that are into bashing others. I know that you know that your sect is the best and everyone else has a defect. But understand that we are fighting forces that are defects themselves. Feel free to promote your sect as much as you want. But start mixing with other sects. Take part in each others' festivals and events. Have united activities. Chant Hanuman Chalisa together and then Ved Mantras. Do not do things that hurt other sects. Don't tell them why they are wrong. Draw a bigger line, one will automatically understand. And in next 10 years, unite for fight against the nonsense that we have tolerated for last 1300 years. If you do not do so, and insist on criticizing others in name of truth-promotion and removal of superstitions, you will be acting as traitors. Despite your best intentions that I respect, you will be playing in hands of enemies. Shastras say that Truth is Truth only when it is relevant. One who cannot replace a truth with a better truth as per need of hour can never progress. Only a dynamic practical relevant truth wins. Satyameva Jayate.

#TerrorizingTerrorists 

अस्तु ।
ॐ श्रीराधाकृष्णार्पणमस्तु

By B. R. Shriradhakrishnasharnam 

(Vaidic Philosophy Dept.)
Faculty of BHU Varanasi


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साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय में 'साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता के निर्णय का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

    1 साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का
    2 टीका टिप्पणी व संदर्भ
    3 सम्बंधित लेख
        3.1 महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ

साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का

संबंध- गीता के दूसरे अध्‍याय से लेकर छठे अध्‍याय तक भगवान ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्‍याय से ग्‍यारहवें अध्‍याय तक तो विशेष रूप से सगुण भगवान की उपासना का महत्त्व दिखलाया है। इसी के साथ पांचवे अध्‍याय में सत्रहवें से छब्‍बीसवें श्लोक तक, छठे अध्‍याय में चौबीसवें से उन्‍तीसवें तक, आठवें अध्‍याय में ग्‍यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण की उपासना का महत्त्व भी दिखलाया है। आखिर ग्‍याहरवें अध्‍याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्‍य भक्ति का फल भगवत्‍प्राप्ति बतलाकर ‘मत्‍कर्मकृत्’ से आरम्‍भ होने वाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार-स्‍वरूप भगवान के भक्त की विशेष-रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकर ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन हैं- अर्जुन बोले- जो अनन्‍य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्‍यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म को ही अतिश्रेष्‍ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्‍ता कौन हैं? श्रीभगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्‍यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्‍ठ श्रद्धा से युक्‍त, होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं,[2] वे मुझको योगियों में अति उत्‍तम योगी मान्‍य हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्‍तम योगवेता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्‍या निर्गुण-निराकर ब्रह्म के उपासक उत्‍तम योगवेत्ता नहीं है; इस पर कहते हैं।[1] परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्‍यापी, अकथनीय स्‍वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से (अभिन्‍नभाव से) ध्‍यान करते हुए भजते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों के हित में रत[3] और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्‍त होते हैं।[4]

संबंध- इस प्रकार निर्गुण-उपासना और उसके फल का प्रतिपादन करने के पश्चात अब देहाभिमानियों के लिये अव्‍यक्‍त गति-की प्राप्ति को कठिन बतलाते हैं- उन सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म में आसक्‍त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है,[5] क्‍योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्‍यक्तविषयक गति दु:खपूर्वक प्रा‍प्‍त की जाती है।[6] परंतु जो मेरे परायण रहने वाले[7] भक्तजन सम्‍पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके[8] मुझ सगुणरूप परमेश्‍वर को ही अनन्‍यभक्ति योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं।[9] हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्‍यु रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।[10] संबंध- इस प्रकार पूर्वश्लोकों में निर्गुण-उपासना की अपेक्षा सगुण-उपासना की सगुमता का प्रतिपादन किया गया। इसलिये अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन-बुद्धि लगाकर सगुण-उपासना करने की आज्ञा देते है। मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके अनंतर तू मुझमें ही निवास करेगा,[11] इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यदि तू मन को मुझमें अचल स्‍थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्‍यासरूप योग के द्वारा मुझको प्रा‍प्‍त होने के लिये इच्‍छा कर।[12][13]

यदि तू उपर्युक्‍त अभ्‍यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो जा।[14] इस प्रकार मेरे निमित्‍त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि का ही प्राप्‍त होगा।[15] यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्‍त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धिआदि पर विजय प्रा‍प्‍त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्‍याग कर।[16] संबंध-छठे श्लोक से आठवें तक अनन्‍य ध्‍यान का फल सहित वर्णन करके नवें से ग्‍यारहवें श्लोक तक एक प्रकार के साधन में असमर्थ होने पर दूसरा साधन बतलाते हुए अंत में ‘सर्वकर्मफलत्‍याग’ रूप का साधन का वर्णन किया गया। इससे यह शंका हो सकती है कि ‘कर्मफलत्‍याग’ रूप साधन पूर्वोक्‍त अन्‍य साधनों की अपेक्षा निम्‍न श्रेणी का होगा; अत: ऐसी शंका को हटाने के लिये कर्मफल के त्‍याग का महत्त्व अगले श्लोक में बतलाया जाता है[13]- मर्म को न जानकर किये हुए अभ्‍यास से ज्ञान श्रेष्‍ठ है,[17] ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्‍वरूप का ध्‍यान श्रेष्ठ[18] है और ध्‍यान से भी सब कर्मो के फल का त्‍याग श्रेष्‍ठ है;[19] क्‍योंकि त्‍याग से तत्‍काल ही परम शांति होती है।[20][21]

source: krishnakosh.org
 


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विश्वरूपदर्शन गीत में विश्वरूप

आर्य समाजी प्रसंगवशात् अर्जुन के विश्वरूपदर्शन का उल्लेख करते हुए यह लिखते है कि गीता के एकादश अध्याय में विश्वरूपदर्शन का जो वर्णन किया गया है वह है नितान्त असत्य, कवि की कल्पना-मात्र । हम इस बात का प्रतिवाद करने के लिये बाध्य हैं । विश्वरूपदर्शन गीता का अत्यंत प्रयोजनीय अंग है, अर्जुन के मन में जो दुविधा और संदेह उत्पन्न हुआ था, उसका श्रीकृष्ण ने तर्क और ज्ञानगर्भित उक्ति द्धारा निरसन किया था, किंतु तर्क और उपदेश  द्धारा प्राप्त ज्ञान दृढ़प्रतिष्ठ नहीं होता, वही ज्ञान दृढ़प्रतिष्ठ होता है जिसकी उपलब्धि हुई हो । इसी कारण अर्जुन ने अन्तर्यामी की गुप्त प्रेरणा से विश्वरूपदर्शन की आकांक्षा प्रकट की । विश्वरूपदर्शन से अर्जुन का संदेह चिरकाल के लिये तिरोहित हो गया, बुद्धि पवित्र और विशुद्ध हो गीता का परम रहस्य ग्रहण करने योग्य हुई । विश्वरूपदर्शन से पहले गीता में जो ज्ञान कहा गया है वह साधक के लिये उपयोगी ज्ञान का बहिरंग है; उस विश्वरूपदर्शन के बाद जो ज्ञान कथित हुआ है वह ज्ञान है गूढ़ सत्य, परम रहस्य, सनातन शिक्षा । उसी विश्वरूपदर्शन के वर्णन को यदि हम कवि की उपमा कहें तो गीता का गांभीर्य, सत्यता और गंभीरता नष्ट हो जाती हैं, योगलब्ध गंभीरतम शिक्षा कतिपय दार्शनिक मत और कवि-कल्पना के संयोग में परिणत हो जाती है । विश्वरूपदर्शन कल्पना नहीं, उपमा नहीं, सत्य है; अतिप्राकृत सत्य नहीं, क्योंकि विश्व है प्रकृति के अंतर्गत, विश्वरूप अतिप्राकृत नहीं हो सकता । विश्वरूप कारण जगत् का सत्य है, कारण जगत् का रूप दिव्य चक्षु के सम्मुख प्रकट होता है । दिव्यचक्षुप्राप्त अर्जुन ने कारण जगत् का विश्वरूप देखा था ।

 

साकार और निराकार

 

    जो निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं वे गुण और आकार की बात को रूपक और उपमा कह उड़ा देते हैं; जो सगुण निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं वे शास्त्रों की दूसरी तरह की व्याखाया कर निर्गुणत्व को अस्वीकार करते हैं, एवं आकार को रूपक और उपमा कह उड़ा देते हैं । सगुण साकार ब्रह्म के उपासक इन दोनों पर ही तलवार खिंचे रहते हैं । हम इन तीनों मतों को संकीर्ण तथा अपूर्ण-ज्ञान-संभूत मानते हैं । कारण, जिन्होंने साकार और निराकार, द्धिविध ब्रह्म की उपलब्धि की है वे भला कैसे एक को सत्य और दूसरे को असत्य कल्पना कह ज्ञान के अंतिम प्रमाण को नष्ट कर सकते हैं, असीम ब्रह्म को सीमा के अधीन कर सकते हैं ? अगर हम ब्रह्म के

 

२३७ 

निर्गुणत्व, निराकारत्व को अस्वीकार करें तो हम भगवान् की खिल्ली उड़ाते हैं, यह सत्य है; परंतु अगर हम ब्रह्म के सगुणत्व और साकारत्व को अस्वीकार करें तो हम भगवान् की अवमानना करते हैं--यह भी सत्य है । भगवान् रूप के कर्ता, स्रष्टा और अधीश्वर हैं, वह किसी रूप में आबद्ध नहीं; परंतु जिस तरह सकारता से आबद्ध नहीं उसी तरह निराकारता से भी आबद्ध नहीं । भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, स्थूल प्रकृति के नियम अथवा देश-काल के नियमरूप जाल में उन्हें फंसाने का स्वांग भर अगर हम यह कहें कि तुम जब अनंत हो तो हम तुम्हें सान्त नहीं होने देंगे, कोशिश करो, देखें, तुम नहीं हो पाओगे, तुम हमारे अकाट्य तर्क युक्ति से आबद्ध हो, जैसे प्रास्पेरो के इन्द्रजाल में फर्डिनैण्ड था, कैसी हास्यास्पद बात, कैसा घोर अहंकार और अज्ञान ! भगवान् बंधन-रहित हैं, निराकार और साकार हैं, साकार हो साधक को दर्शन देते हैं--उस आकार में पूर्ण भगवान् रहते हैं--संपूर्ण ब्रम्हाण्ड में परिव्याप्त । क्योंकि, भगवान् देशकालातीत, अतर्कगम्य हैं, देश और काल उनके खेल की सामग्री हैं, देश और कालरूपी जाल फेंक, सर्वभूत को पकड़ वह क्रीड़ा कर रहे हैं; परंतु हम उन्हें उस जाल में नहीं पकड़ सकते । हम जितनी ही बार तर्क और दार्शनिक युक्ति का प्रयोग कर उस असाध्य को साध्य करने जाते हैं उतनी ही बार रंगमय उस जाल को हटा, हमारे सामने, पीछे, पार्श्व में, दूर, चारों ओर, मृदु-मृदु हंसते हुए, विश्वरूप और विश्वातीत रूप को फैला हमारी बुद्धि को परास्त करते हैं । जो कहता है कि मैंने उन्हें जान लिया वह कुछ नहीं जानता; जो कहता है कि मैं जानता हूं फिर भी नहीं जानता, वही है सच्चा ज्ञानी ।

 

विश्वरूप

 

   जो शक्ति के उपासक हैं, कर्मयोगी हैं, यंत्री का यंत्र बन भगवन्निर्दिष्ट कार्य करने का आदेश पा चुके हैं, उनकी दृष्टि में विश्वरूपदर्शन अत्यंत आवश्यक है । विश्वरूपदर्शन से पहले भी उन्हें आदेश मिल सकता है किंतु उस दर्शन के न हो जाने तक वह आदेश ठीक-ठीक स्वीकृत नहीं होता, पेश हो जाता है, मंजूर नहीं होता । उस समय तक उनकी कर्मशिक्षा का और तैयारी का समय होता है । विश्वरूपदर्शन होने पर होता है कर्म का आरंभ । विश्वरूपदर्शन कई प्रकार का हो सकता है-जैसी साधना हो, जैसा साधक का स्वभाव हो । काली का विश्वरूपदर्शन होने पर साधक जगत्-भर में अपरूप नारी-रूप देखते हैं, देखते हैं एक, फिर भी अगणित  देहों से युक्त, सर्वत्र वही निविड़-तिमिर-प्रसारक घनकुष्णा कुन्तलराशि आकाश को छाये हुए हैं, सर्वत्र उसी रक्ताक्त खड़ग की आभा आंखों को झुलसाती नृत्य कर रही है, जगद्व्यापी भीषण अट्टहास का वह स्रोत  विश्व-ब्रम्हाण्ड को चूर्ण-विचूर्ण कर रहा है । यह सब बातें कवि-कल्पना नहीं, अतिप्राकृत उपलब्धि को अपूर्ण मानव भाषा में प्रकट करने का विफल प्रयास नहीं ।

 

 २३८

यह है काली का आत्मप्राकट्य, हमारी मां का वास्तविक रूप,-जो कुछ दिव्य-चक्षु द्धारा देखा गया है उसी का अतिरंजित सरल सच्चा वर्णन । अर्जुन ने काली का विश्वरूप नहीं देखा, देखा था कालरूप श्रीकृष्ण का संहारक विश्वरूप । एक ही बात है । दिव्य-चक्षु से देखा था, बाह्यज्ञानहीन समाधि में नहीं-जो कुछ देखा उसी का अविकल अनतिरंजित वर्णन व्यासदेव ने किया । यह स्वप्न नहीं, कल्पना नहीं, है सत्य, जाग्रत् सत्य ।

 

कारण जगत् का रूप

 

भगवत्-अधिष्ठित तीन अवस्थाओं की बात शास्त्रों  में पायी जाती है-प्राज्ञ-अधिष्ठित सुषुप्ति, तैजस या हिरण्यगर्भ-अधिष्ठित स्वप्न, विराट्-अधिष्ठित जाग्रत् । प्रत्येक अवस्था है एक-एक जगत् । सुषुप्ति में कारण जगत् है, स्वप्न में सूक्ष्म जगत, जाग्रत् में स्थूल जगत् । कारण में जो निर्णीत होता है वह हमारे देश-काल से अतीत सूक्ष्म में प्रतिभासित होता है और स्थूल में आंशिक रूप में स्थूल जगत् के नियमानुसार अभिनीत होता है । श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, मैं धार्तराष्ट्रगण का पहले ही वध कर चुका हूं, फिर भी स्थूल जगत् में धार्तराष्ट्रगण उस समय कुरुक्षेत्र में अर्जुन के सामने उपस्थित थे, जीवित, युद्ध में संलग्न । भगवान् की यह बात न असत्य है न उपमा ही । कारण जगत् में उन्होंने उनका वध किया था, अन्यथा इहलोक में वध करना असंभव होता । हमारा प्रकृत जीवन कारण में होता है, स्थूल में तो उसकी छाया-भर पड़ती है । परंतु कारण जगत् का नियम, देश, काल, रूप, नाम भिन्न है । विश्वरूप कारण का रूप है, स्थूल में दिव्य-चक्षु के सामने प्रकट होता है ।

 

दिव्य-चक्षु

 

    दिव्य-चक्षु क्या है ? यह कल्पना का चक्षु नहीं, कवि की उपमा नहीं । योगलब्ध दृष्टि तीन प्रकार की होती है--सूक्ष्म-दृष्टि, विज्ञान-चक्षु और दिव्य-चक्षु । सूक्ष्म-दृष्टि से हम स्वप्न में जा जाग्रत् अवस्था में मानसिक मूर्तियों को देखते हैं; विज्ञान-चक्षु से हम समाधिस्थ हो सूक्ष्म जगत् और कारण जगत् के अंतर्गत नाम-रूप की प्रतिमूर्तियों और सांकेतिक रूपों को चित्ताकाश में देखते है, दिव्य-चक्षु से कारण जगत् के नाम-रूप की उपलब्धि करते हैं, समाधि में भी उपलब्धि करते हैं, स्थूल चक्षु के सामने भी देख पाते हैं । जो स्थूल  इंद्रियों के लिये अगोचर है, वह यदि इंद्रियगोचर हो तो इसे दिव्य-चक्षु का प्रभाव समझना चाहिये । अर्जुन दिव्य-चक्षु के प्रभाव से जाग्रत् अवस्था में भगवान् के कारणान्तर्गत विश्वरूप को देख संदेहमुक्त हुए थे । वह विश्वरूपदर्शन भले ही स्थूल जगत् का इन्दियगोचर सत्य न हो, पर स्थूल सत्य की अपेक्षा कहीं अधिक सत्य है--कल्पना, असत्य या उपमा नहीं ।

२३९ 


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सिद्ध धर्म ईश्वरपुत्र श्रीराधाकृष्णशरणम् के शुभ विचार 
प्रत्यक्ष क्या भगवान के दर्शन सम्भव है ?

एक सबसे अद्भुत और मौलिक प्रश्न है कि क्या ईश्वर को देखा जा सकता है ? अर्थात् ईश्वर को "साकार विग्रह" मेँ कोई भक्त देख सकता है या नहीँ ? ये वो प्रश्न है जिसको सुलझाने के लिए एक लम्बे समय से एक लम्बी बहस जारी है । आज जब "विज्ञान" अपने चरमोत्कर्ष पे है, तब उन लोगोँ का साहस ये कहते हुए और अधिक बढ जाता है कि ईश्वर का वास्तव मेँ साकार दर्शन हो ही नहीँ सकता क्योँकि वो अब ये जानते है कि यदि कोई व्यक्ति या कोई मेरे जैसा व्यक्ति ये कहे कि "ईश्वर के साकार दर्शन होते है !" तो वो कहेगा "हाँ, तो ठीक है, हमारे सामने ला कर दिखा दो; हम मान जायेँगे ।" ये बेहद मूढतापूर्ण प्रश्न है और ये पूरी की पूरी तर्कशृंखला एक तरह से मूढताप्रधान शृंखला ही है । इसके पीछे के रहस्य को हमेँ भलीभाँति समझना चाहिए ।....सर्वप्रथम "शास्त्र" क्या कहता है क्योँकि शास्त्र ही "प्रमाण" है । प्राचीन काल से लेकर अब तक रहस्यशास्त्रोँ नेँ ही मनुष्य का मार्ग प्रश्स्त किया है । आज; जब "धर्म" की बडी हानि हो रही है, और "भक्त" लगातार व्याकुल हो रहे है और तरह तरह के "तर्कशास्त्री" तरह तरह के "तथाकतथित विज्ञानवादी" और कुछ "तथाकथित धर्म से भयभीत रहनेवाले व्यक्ति" अनेकोँ प्रकार के कुतर्क देते है और ये प्रमाणित करने का प्रयास करते है कि ईश्वर को साकार रुप मेँ तो देखा ही नहीँ जा सकता और इसके लिए वो कुछ "कथित सबूत" और "झूठे प्रमाण" और "तथ्य-आँकडे" तुम्हारे सम्मुख लाकार प्रस्तुत कर सकते है, लेकिन "तुम अपने दर्शन को दृढ रखना क्योँकि धर्म नेँ सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन किया है ।" धर्म क्या कहता है ? कि क्या ईश्वर को देखा जा सकता है ? सर्वप्रथम हमेँ अपने भारतीय वाङ्गमय को जब हम टटोलते है तो उसे बारीकी से देखना होगा । ईश्वर को दो स्वरुपोँ मेँ जाना गया है, प्रथम "निर्गुण ब्रह्म"; जो निराकार है, अजन्मा है, नित्य है, सर्वव्यापक है, आनन्दमय है, तेजोमय है, जिसके भीतर ये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड लीन है, जिस से ये उत्पन्न हुआ; जिसके भीतर ये है; और जिसके भीतर ये पुनः समा जायेगा वही "ब्रह्म" है । जिस ब्रह्म के सिवा दुसरा कोई तत्त्व इस सृष्टि मेँ है ही नहीँ वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही भगवान है, लेकिन दुसरा प्रश्न; कि यदि भगवान अजन्मा है वो पैदा नहीँ होते तो "भगवान राम" कौन है ? "भगवान ईसा मसीह" कौन है ? या "मोहम्मद पयगम्बर" खुद आकर "किसका" सन्देश देकर जाते है मानवता को ? इसका अर्थ है चाहे "गुरु नानक" हो चाहे "महावीर" हो या कोई "सन्त" होँ "तुलसीदास", "मीराबाई", "रैदास" या "भक्त ध्यानु" सब के सब किसी "साकार विग्रह" की तरफ भी इशारा करते है, और जो "अवतारी पुरुष" है वो कौन है ? इसे तुम एक छोटे उदाहरण से समझोँ....एक समुद्र है, बहोत बडा, बहोत विशाल ! समुद्र अपनेँ आप मेँ "देवता" है । बहोत ऊँचे हिमालय पर्वतोँ के निकट जहाँ वन प्रदेश था । एक ऊँचे से टीले पर एक विशाल गाँव बना हुआ था, उस गाँव से पहली बार एक व्यक्ति समुद्र देखने गया और जब वो समुद्र के तट पर पहुँचा तो भयभीत होकर समुद्र को देखने लगा ! क्योँकि उसकी लगभग आधी आयु बीत चूकी थी लेकिन उसने विशालकाय समुद्र को कभी नहीँ देखा था, तब उसके ह्रदय मेँ ये विचार आया कि 'मेँ अपनेँ गाँव से इतने दूर इस समुद्र को देखने आया हुँ, तो क्योँ न इस समुद्र की इस लहरोँ को कैद कर अपनेँ घर ले जाऊँ !' तो उसने एक छोटे से पात्र मेँ समुद्र का जल भर लिया और उसे लेकर अपनेँ गाँव लौटा । जैसे ही वो अपनेँ गाँव लौटा तो गाँव के सभी लोग उसे घेरकर बैठ गये कि तुम क्या लेकर आये हो ! तो उसनेँ कहा कि "कि मेँ समुद्र को अपने पास लेकर आया हुँ ।" और जो समुद्र का जल था उसने सभी को वो जल दिखाया । तो क्या उन्होँने समुद्र का जल नहीँ देखा ? जिस प्रकार उस कलश उस पात्र के भीतर रखा हुआ जल स्वयं मेँ समुद्र ही है, समुद्र का ही जल है ठीक उसी प्रकार से "अवतारी पुरुष" होते है । कोई भी अवतारी आत्मा कोई भी अवतारी चेतना कोई भी अवतारी देह जब इस पृथ्वी पर रहती है तो वो उस "अनन्त-विराट परमात्मा का एक साकार विग्रह" होता है, अर्थात् महासागर का एक छोटा सा कलश मेँ आया हुआ हिस्सा मात्र, इसलिए कुतर्क देनेँवाले ये कहते है कि यदि "राम" भगवान थे तो वो "क्राइस्ट" को नहीँ जानते थे और यदि "जीजस" भगवान थे तो वो "भगवान श्रीकृष्ण" को नहीँ जानते थे और "भगवान श्रीकृष्ण" यदि भगवान थे तो वो "महात्मा बुद्ध" को नहीँ जानते थे । ये बडा ही ओछा और निम्न कोटि का तर्क है, और सावधान रहना; तुम्हे इसी तरह के तर्क देकर कुछ "तथाकथित बुद्धिमान" तुम्हारी "महामति" को भ्रमित कर सकते है, और इसे "माया" ही कहा जाता है क्योँकि माया क्या है ये वो नहीँ समझ सकते । माया का अर्थ है सबकुछ झूठ है; जबकि माया का ये अर्थ नहीँ है, और अभी मेरा ये विषय भी नहीँ है । पुनः मूल बिन्दु पर आता हुँ । एक भक्त ध्यानु हुए । जो माँ को इतना प्रेम करते थे; माँ दुर्गा के इतने प्रचण्ड भक्त थे कि भक्ति करते करते उन्होने एक बार जब वो पराकाष्ठा की स्थिति पर पहुँच गये तो अपना ही सर गरदन से काटकर देवी माँ के चरणोँ पे अर्पित कर दिया और कथा ये कहती है कि देवी माँ प्रकट हुई ! उन्होनेँ उनकी कटी हुई गरदन को पुनः जोड दिया और उसे कुशलतापूर्वक वरदान देते हुए प्रत्यक्ष दर्शन देते हुए अतर्ध्यान हो गयी । अब यहाँ दुसरे बिन्दु पर बात करता हुँ । मान लो तुम बहोत अधिक प्रेम ईश्वर से करते हो । ये कहते हो कि "मेँ सदा भोलेनाथ की भक्ति करता हुँ । मेँ उनकी स्तुति करता हुँ । सुबह उठता हुँ तो कृष्ण की स्तुति, शाम होती है तो कृष्ण का नाम, दिन होता है तो जय श्री कृष्ण, सुबह होती है तो केवल कृष्ण, केवल कृष्ण और केवल कृष्ण । तुम साँस लेते हो तब भी कृष्ण; तुम साँस छोडते हो तब भी कृष्ण । तो क्या इसका तात्पर्य ये हो गया, कि तुम यदि वर्षोँ से ऐसा अभ्यास कर रहे हो और तुम्हे ये लगने लगे कि तुम्हारे स्वप्नोँ मेँ कृष्ण है, तुम्हारे आसपास कृष्ण है, तुम्हारे संग संग कृष्ण है और एक दिन तुम ये "मूरखता" करो कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के पास जाकर ये कहो कि 'हे श्रीकृष्ण ! अब तो तुम्हे प्रकट होना ही होगा; प्रत्यक्ष होना ही होगा । मेँ तुम्हारा सर्वोच्च भक्त हुँ । मुझे तुम पर विश्वास है' और ये कहकर तुम एक धारदार हथियार से अपनी गरदन काट डालो...तो क्या तुम्हारी गरदन जुड जायेगी ? कभी नहीँ । तुम कहोगे ये मेँ दोहरी बात क्युँ कर रहा हुँ ? मेँ दोहरी बात नहीँ कर रहा । मेँ शास्त्र की उस श्रुति को तुम्हे समझाने का प्रयास कर रहा हुँ जो आवश्यक है । सर्वप्रथम ईश्वर निर्गुण, निराकार, दिव्य, चैतन्य और तेजस्वी है, सर्वकला और सर्वगुणोँ से सम्पन्न है; लेकिन वो "ईश्वर" तुम्हारे एक स्तरविशेष पर पहुँच जाने पर तुम्हे सगुण मेँ आकर दर्शन देते है; लेकिन कौन व्यक्ति है जो उनके दर्शन प्राप्त कर सकता है ? ये प्रत्यक्ष भोजन करने जैसा नहीँ है; कि तुमने एक बार भोजन तैयार किया, अपनी थाली मेँ परोस लिया औ उसको आहार की भाँति ग्रहण कर लिया । जीवन मेँ जैसे "ज्ञान" दुर्लभ और दुरुह है...मेँ पहले ही समझा देता हुँ...जब एक छोटा सा बालक जो पैदा होता है वो पैदा होते ही चलना नहीँ जानता । उसे चलने के लिए बहोत बार अभ्यास करना होता है । आज तुम दौड सकते हो लेकिन याद रखना, जब तुम उत्पन्न हुए थे तो तुम्हारी माता नेँ तुम्हारे घिसटते हुए चलनेँ के लिए भी महीनोँ प्रतिक्षा की थी ! लगातार तुम्हारी ऊँगली थामेँ हुए तुम्हे आगे बढना और चलना सिखाया था, तभी तुम आज इस स्थिति तक पहुँचे हो कि आज तुम दौड सकते हो । ठीक उसी प्रकार ईश्वर के सगुण और साकार दर्शन केवल वही कर सकता है जो उसके "लायक-पात्र" हो । अन्यथा हर नास्तिक को, अन्यथा हर कुकर्मी को, अन्यथा हर पातकी को सहज ही ईश्वर के दर्शन हो जाते । तब ईश्वर को एक पापी और एक पुण्यात्मा मेँ... हालाँकि ईश्वर दोनोँ मेँ अन्तर नहीँ मानता लेकिन एक पापी व्यक्ति और एक पुण्यात्मा मेँ अन्तर ही शेष नहीँ रहता । तब कोई भी व्यक्ति इस सृष्टि मेँ "चेतना को उर्ध्वमुखी" नहीँ करता । कोई भी "विराट" नहीँ बनता । कोई भी "परिश्रम" नहीँ करता । इस जीवन मेँ कोइ भी "कर्म के सिद्धान्त" को नहीँ मानता । ये जगत कर्म पर चलता है; और "अध्यात्म" भी तो कर्म पर ही चलता है । कैसे ?... ईश्वर को कौन व्यक्ति देख सकता है इसके लिए "भारतीय वाङ्मय" का अध्ययन करो । जहाँ एक ओर योग, ज्योतिष, तन्त्र, कर्मकाण्ड और अनेकोँ प्रकार की ललित कलाओँ का अभ्यास करवाया जाता है । वहीँ समाधि की ओर गति, व्रत, संयम, इन्द्रियनिग्रह, सत्य, आस्तेय और धर्मपथ पर चलना ये सब अनिवार्य कहा गया । एक साधारण से सांसारिक व्यक्ति को देख लो, वो दैहिकरुप से उतना ह्रष्टपुष्ट और तीव्र नहीँ हो सकता जितना एक दिव्य योगी और नित्य योग का अभ्यासी हो सकता है । एक व्यक्ति जो योग को सम्पूर्णता से अपने जीवन मेँ उतारता है उसका मस्तिष्क कितना दिव्य और कितना तीव्र हो सकता है इसकी कोई कल्पना नहीँ कर सकता । ये इस बात पर निर्मर करता है कि वो कितनी अधिक मेहनत करता है, उस योग का कितना जटिल अभ्यास करता है । तो एक योगी योगासन, प्राणायाम, नियम, यम, आहार से लेकर विहार से लेकर, वाणी-संयम से लेकर, दृष्टि-संयम से लेकर मनोसंयम तक प्रत्येक तत्त्व पर अभ्यास करता है...निरन्तर...निरन्तर.... कुण्डलिनी जागरण का अभ्यास करता है, मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपूर-अनाहत-विशुद्ध-आज्ञा-सहस्रहार कमलदल का जागरण करता है । उसके पश्चात मन्त्र-साधना करता है और कर्मकाण्ड करता है । भक्ति और यन्त्र इत्यादि का साकारात्मक विग्रह बनाते हुए "स्थूल पूजन" भी करता है । तब जाकर निरन्तर कठोर तप करनेँ के पश्चात....आप पुराणोँ को पढिए-शास्त्रोँ को पढिए...जिस जिस को परमात्मा नेँ साकार दर्शन दिए वो युगोँ युगोँ तक तपस्या करता रहा है, सदियोँ तक अनेको प्रकार के जप-तप करता रहा है । तत्पश्चात ही उसे दर्शन हुए है और कोई व्यक्ति ये सोच लेँ कि आज ही प्रत्यक्ष परमात्मा को दिखाया जा सकता है ये असम्भव है । ये पुण्य तो केवल तभी मिल सकता है जब स्वयं परमात्मा साकार शरीर धारण कर तुम्हारे मध्य होँ और तुम्हारे पास ऐसी दृष्टि हो कि तुम उसे देख सको । लेकिन... तुम इस व्यर्थ के प्रपंच मेँ न पडना... तुम ये न सोचना कि ईश्वर साकार दर्शन नहीँ देते । मेँ ये पूरे दावे से कहता हुँ, पूरे प्रमाण के साथ कहता हुँ कि यदि तुम शास्त्रीय कथन को, यदि तुम निम्न स्तर से योग के सभी अंगो का लगातार अभ्यास करो, अपनी चेतना को महाविराट बनने का अवसर प्रदान करो, निरन्तर उस दिव्यता मेँ जाने के लिए प्रयत्नशील रहो तो अवश्य तुम्हे ईश्वर के दर्शन होते है और साकार रुप मेँ दर्शन होते है । भले ही समस्त संसार अपना पूरा बल झोँक दे, भले ही वो हम जैसे संतो को प्रताडित करे लेकिन हम जैसी अवतारी चेतनाएँ सदा से ये कहती रही है कि ईश्वर को तुम "साकार" देख सकते हो, अपनी भाँति देख सकते हो, अपने पास देख सकते हो । बस, तुम्हारे भीतर वो क्षमता होनी चाहिए । एक छोटी सी बात मैँ अन्त मेँ कहना चाहता हुँ । मान लीजिए कि सारी दुनिया के मनुष्य एक तरफ हो जाए और ये कहने लग जाए कि, "सूर्य "सूर्य" है ही नहीँ; वो तो अन्धकार का पिण्ड है ।" और उसके लिए वैज्ञानिक तर्क देनेँ लग जाए, उसके लिए नास्तिक तर्क देनेँ लग जाए तो क्या तुम मानोगे ? नहीँ । तुम तो अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करोगे । लेकिन जब ईश्वर साकार है या नहीँ ? ईश्वर कैसा है ? जब इस पर कभी भी "तर्कशास्त्री" या "मनोविज्ञानी" या "आधुनिक विद्वान" जिन्होनेँ "आधुनिक कथित शिक्षा" ग्रहण कर रखी है, इस प्रकार के लोगोँ के समूह जब इकठ्ठा होकर-मिलकर ये प्रमाणित करनेँ की कोशिश और चेष्ठा करते है 'कि भगवान तो साकार होते ही नहीँ है ये तो "अन्धविश्वास" है है ये तो "भ्रम" है' तो तुम मानने लग जाते हो ! जैसे वो लोग उस "तत्त्व" को नहीँ जानते वैसे ही तुम भी उस "तत्त्व" को नहीँ जानते हो । इसे सूक्ष्मता से समझना....वो केवल उस तथ्य को "मानकर" बैठे है कि ईश्वर साकार नहीँ होता । उन्होने उसे "जाननेँ" के लिए "सम्पूर्ण योग प्रणाली" का अध्ययन नहीँ किया और ना ही उन्होने अपने कई युगोँ के जीवन और अपने जीवन-संयम को उस परम्परा मेँ ढाला है.....और ये याद रखना चाहिए तुम्हेँ कि जितनेँ भी ये तथाकथित मनघडंत किस्म के तर्कशास्त्री है और इस तरह के तथाकथित बुद्धिजीवी है उन्हेँ ये लगता है कि जितनेँ भी वेद, पुराण और शास्त्र तुम्हारे बाजारोँ मेँ उपलब्ध है सारा का सारा ज्ञान भारतीय धर्मदर्शन का केवल उतना ही है । ये वो भूल रहे है कि श्रीमद्भगवद्गीता "रहस्यों का स्रोत" है; यहाँ रहस्य योगी है; यहाँ रहस्य विज्ञानी है जिन्हेँ तुम नहीँ जानते....और उनका एक साधारण सा तर्क होता है कि यदि है तो उन्हेँ उनके सामनेँ लाया जाए । अरे वाह ! "पाँच हजार गीदड" मिलकर ये कह रहे है कि 'जंगल मेँ कोई "शेर" है ही नहीँ यदि है तो "शेर" को हमारे सामनेँ लाया जाए क्योँकि ये तो लोकतन्त्र है ।' याद रखो, गीदडोँ की सेना "गीदडोँ की सेना" ही रहेगी और सिंघ अपने आप मेँ "महासिंघ" ही रहेगा ये प्रकृति का सिद्धान्त है, और प्रकृति ये कहती है कि "सत्य" ही सार्वभौमिक है और ये प्रमाणित किया जाता है कि "सत्य" वही केवल अर्वाचीन था-प्राचीन था और वही सदा और सदैव रहनेवाला है और "सत्यमेव जयते ।"-"केवल सत्य की ही विजय होती है ।" ये श्रुतिवाक्य है और "सत्य ही ईश्वर है ।" तुम केवल अपने ह्रदय के कपाट खोलो ! ईश्वर तुम्हारे सदृश होँगे ।....और तुम्हे एक और विशेष बात मैँ बता देता हुँ, कि तुम्हारे शास्त्रोँ नेँ प्रथम पूर्व मेँ हीँ ये वर्णित कर रखा था कि "कलियुग" आते ही ये सब प्रश्न तो उठेँगे ही । ऐसा नहीँ है कि प्राचीनकाल मेँ उठते नहीँ थे...तब लोग इतने कुमति नहीँ थे; तब उनका भोजन इतना निम्नस्तरीय नहीँ था; तब उनकी प्राणवायु इतनी निम्नस्तरीय नहीँ थी; तब अरण्योँ से विहीन वो नहीँ थे; तब वो केवल अपनेँ कक्षोँ मेँ दुबके हुए से नहीँ रहते थे । वो विशाल वनोँ के मध्य विचरते थे । वो प्राणियोँ के मध्य रहते थे । पशु-पक्षीओँ को चहचहाता हुआ देखते थे । "कृत्रिम" पदार्थोँ के मध्य नहीँ रहते थे । आज तो तुम्हारा जीवन कृत्रिमताओँ से भरा पडा है । ऐसे मे शायद ये तुम्हेँ बेहद जटिल लगे कि जो मैँ कह रहा हुँ इसे तुम कैसे समझोगे...और "रहस्य योगी" सीधे सीधे सरलता से तो अपनेँ तथ्य प्रकाशित नहीँ करते । ईश्वर है और प्रत्यक्ष दिखते है, प्रत्यक्ष मिलते है उसका क्या तरीका है ये केवल "रहस्य योगियोँ" के पास ही सुप्त और लुप्त पद्धति मेँ विद्यमान है । अब मुस्कुराते है ये सुनकर "तर्कशास्त्री", ये सुनकर "मलेच्छ" हँसते है क्योँकि उन्हेँ ये मालूम है कि अब तो वो ये कहेँगे कि देखो, इनके पास दिखानेँ को कुछ नहीँ है तो कहेँगे 'ये रहस्य है' ।.....अगर तुम्हारे पास हीरा होगा तो क्या तुम उसे चौराहे पर दिखाते फिरोगे ? अगर मेरे पास ईश्वर को जाननेँ कि पद्धति और रीत होगी तो क्या मैँ मलेच्छोँ को बाँटता फिरुँगा ? नहीँ । हालाँकि समस्त जगत मेरा है । सम्पूर्ण सृष्टि मेरी है । उसके लिए मेँ कल्याण कामना करता हुँ लेकिन "नकारात्मक शक्तियोँ" के लिए नहीँ । नकारात्मक शक्तियोँ का "वध" हो ! नकारात्मक शक्तियोँ का "नाश" हो ! कुमतियोँ का "अन्त" इस सृष्टि मेँ हो ! ये मेरी ह्रदय से प्रार्थना है...और मैँ ये चाहता हुँ कि एक दिन ये सृष्टि केवल "ईश्वरत्व के पथिकोँ" के लिए बनेँ । ये "स्वर्ग" केवल उन्हीँ के लिए है जो केवल ईश्वर के पथिक हो । वो फिर चाहे "किसी भी धर्म" के होँ, "किसी भी पंथ" के होँ, मुझे इससे कोई आपत्ति नहीँ । तुम मोहम्मद-के बताये पथ पर चलो, तुम ईसा मसीह-उनके बताये पथ पर चलो, तुम महावीर-उनके बताये पथ पर चलो, तुम गुरु नानकदेव जी-उनके पथ पर चलो अथवा तुम महात्मा बुद्ध के बताये मार्ग पर चलो । लेकिन जब तुम आगे बढोगे तो तुम एक सगुण साकार परमात्मा को अवश्य प्राप्त करोगे और उससे भी उस पार... निर्गुण, सत्यमय, परम शाश्वत "ब्रह्म" को अवश्य प्राप्त कर पाओगे...इसलिए भ्रमित न होना और ये याद रखना कि ऋषि-मुनियोँ को पूर्व मेँ ही ये ज्ञात था कि ऐसा भविष्य मेँ होनेवाला है इसीलिए उन्होने इसे "कलियुग" कहा । तुम्हारे चारोँ तरफ सूचना का जो तन्त्र है वो निरन्तर तुम्हे ये समझाने की कोशिश करेगा कि परमात्मा है ही नहीँ, वो साकार होता ही नहीँ है, वो तुम्हारे जीवन मेँ आता ही है...और ये सत्य भी है । अगर परमात्मा हर दिन, हर क्षण, हर पल तुम्हारे जीवन मेँ दखलंदाजी करने लग जाए तो तुम्हारा जीवन अपनेँ आप मेँ नर्क हो जाएगा । तब तो कोई पाप-पुण्य बचेगा ही नहीँ, इसलिए परमात्मा नेँ तुम्हेँ "निजीता" दी है; जीवन की निजीता, मृत्यु की निजीता, भावनाओँ की निजीता और पृथ्वी पर रहनेँ की निजीता...इसलए केवल उसी सत्य को "सत्य" मानकर मत बैठ जाना जो केवल दिखाई देता हो, आँखोँ की दृष्टि से उस पार भी कुछ सूक्ष्म है । लोग कहते है प्रमाण लाओ, प्रमाण लाओ, प्रमाण लाओ । हम प्रमाण लेकर आए भी तो तुम जैसे मूढोँ के सामनेँ क्योँ आए ? "प्रमाण..प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने है ।" यदि तुम उसे जान सको, यदि तुम उसे पहचान सको तो वो तुम्हारी इन्द्रिय और तुम्हारी चेतना पर निर्भर करता है । अभी प्रत्यक्ष ईश्वरीय प्रश्न का उत्तर केवल इतना ही है कि "हाँ, ईश्वर को प्रत्यक्ष भी देखा जा सकता है और उसके वास्तविक स्वरुप मे साधक "लीन" भी हो सकता है...इसी कारण न केवल हिन्दु धर्म वरन् सम्पूर्ण भूमण्डल पर जितनेँ भी धर्म है वो किसी न किसी रुप मेँ ईश्वर को, अमरता को, नित्यता को सदैव स्वीकारता आया है । अभी केवल इतना ही । 

जय श्रीराधाकृष्ण ! 


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