हरि हरि! विफले जनम

।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।


हरि हरि! विफले जनम 
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर द्वारा रचित 
 
 
हरि हरि! विफले जनम गंवाईनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥
गोलोकेर प्रेमधन, राधाकृष्ण संकीर्तन,
रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले,
जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥

ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ,
बलराम हइल निताइ।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,
ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत,
करुणा करह एइ बार।
नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय,
तोमा बिना के आछे आमार॥4॥
 
 
शब्दार्थ
(1) हे भगवान्‌ हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
(2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।

(3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
(4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’

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