तुलसीदास जी
।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।
हमारे प्रसिद्ध सन्त राम भक्त शिरोमणि तुलसी दास जब मथुरा वृन्दावन में तीर्थाटन कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि यहाँ हर कोई राधा-राधा कहता है । राम की तो कोई बात ही नहीं करता । तुलसीदास जी सोच रहे है कोई तो राम- राम कहेगा। लेकिन कोई नही बोलता। जहाँ से देखो सिर्फ एक ही आवाज राधे- राधे आती है । श्री राधे-श्री राधे। तब उन्हें यह बात खराब लगती है , क्या यहाँ राम जी से बैर है लोगो का। तब उनके मुख से निकला-
वृन्दावन ब्रजभूमि में , कहा राम सो बैर ।
राधा राधा रटत हैं , आक ढ़ाक अरू खैर।
जब तुलसीदास भगवान श्री कृष्ण का दर्शन कर रहे थे तब कृष्ण जी को दण्डवत प्रणाम किया तो परशुरामदास नाम के पुजारी ने व्यंग किया-
अपने अपने इष्टको, नमन करे सब कोय।
बिना इष्ट (इष्ट विहीन) के जो नवै सो मूरख होय।।
तुलसी दास जी के मन में श्रीराम—कृष्ण में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु पुजारी के व्यंग से आहत हो कर उन्होंने कहा कि- हे राम जी! मैं जानता हूँ क़ि आप ही राम हो आप ही कृष्ण हो लेकिन आज आपको राम बनना पड़ेगा आप कृपया अपने भक्त की खातिर राम बन जाइये , तभी मैं आपको नमन करूँगा ।
कहा कहों छवि आज की,
भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै जब,
धनुष बाण लो हाथ।।
और तब भगवान ने भक्त की बात मान ली और सभी ने देखा कि कृष्ण भगवान का मोर मुकुट और वांसुरी गायब हो गयी और धनुष वाण लिये भगवान राम की मूर्ति प्रत्यक्ष दिखने लगी :-
कित मुरली कित चन्द्रिका,
कित गोपिन के साथ ।
अपने जन के कारणे,
कृष्ण भये रघुनाथ।।
मुरली मुकुट दुराय कै, धरयो धनुष सर नाथ। तुलसी लखी रुचि दास की, कृष्ण भये रघुनाथ।
देखिये कहाँ तो कृष्ण जी बांसुरी लेके खड़े होते है गोपियों और श्री राधा रानी के साथ लेकिन आज भक्त की पुकार पर कृष्ण जी साक्षात् रघुनाथ बन गए है और हाथ में धनुष बाण ले लिए है ।
यह प्रसङ्ग भले ही भक्ति का और तर्क का कोई ताल मेल नहीं होता है । भक्ति और श्रद्धा हमें वह बाते भी मानने के लिये विवश करती हैं जो वास्तव में असम्भव हों । जो बातें असम्भव होती वो भी सम्भव प्रतीत होती हैं यदि हम उनकी सही और सटीक जानकारी प्राप्त हो जाये ।
आईये जानते हैं कि तुलसीदास जी ने कृष्ण को राम बनने का आग्रह कयों किया । जिस वक्त की यह घटना है उस समय मुगलों(औरँगज़ेव) का शासन था और हिंदुओं पर काफी अत्याचार होता था । और वक्त की मांग थी एक ऐसे अवतार की जो अन्याय और अपराध के विरुद्ध खड़ा हो सके और वीरता पूर्वक आतताइयों से लोहा ले सके ।
तब सन्त तुलसीदास कहते हैं कि हे प्रभु यह वक्त वांसुरी बजाने का नहीं है, यह वक्त रास रचाने का भी नहीं है न ही यह वक्त उत्सव मनाने का है । इस वक्त तो हमे चाहिये वह राम जिसने कहा था ।
निश्चर हीन महि करूँ ,
भुज उठाई प्रण कीन्ह ।
जिसने जीवन भर युद्ध किया और मानव मात्र की रक्षा में धर्म के लिये लड़ता रहा । और हे प्रभु जब आप धनुष वाण धारण करेंगे तुलसी का मस्तक तभी आपका नमन करेगा ।
और फिर भगवान कृष्ण की मूर्ति राम के रूप में बदल गयी । जिसका अर्थ था कि परमात्मा उस वक्त के पूर्ण गुरु और सिखों के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह के रूप में अवतार ले चुके हैं । जिन्होंने राम के ही समान घोषणा कर दी थी ।
गीदड़ को मैं शेर बनाऊं ।
"चिडि़यों से मै बाज तड़ाऊं।
सवा लाख से एक लड़ाऊं।
ताँ गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।"
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।।श्रीराधाकृष्ण विजयतेतराम।।