उपदेशामृत प्रकरण २
।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।
प्रकरण दूसरा
श्री भगवान का निश्चय एवं माहात्म्य का प्राधान्य
श्री धोराजी गांव में लाल वटवृक्ष के नीचे श्रीजीमहाराज ने एकादशी का महोत्सव किया, उस समय महाराज ने अपना प्रताप सब को दिखाकर सर्वोपरी निश्चय कराया । तत्पश्चात् आत्मानंद स्वामीने महाराज से कहा कि ‘सत्संग बहुत हुआ’ तब महाराज ने कहा कि ‘एक एक संत के पीछे लाखों लोग फिरेंगे तब सत्संग हुआ ऐसा समझना ।’ ऐसा कहकर कहा कि हम तो सौ करोड ‘मनवार’ लेकर आये हैं; उतने जीवों का उद्धार करना है । उसमें प्रथम तो चिंतामणियाँ भरेंगे, फिर पारसमणियाँ भरेंगे, फिर हीरे, फिर मोतियाँ, फिर गहने, फिर सोना मुहरें, फिर राल, फिर रुपए और अन्तमें शेष कीचड भरकर भी पूरी करेंगे । इस तरह मुक्तोंके अनन्त भेद हैं और कल्याण भी अनेक प्रकार के हैं । इस तरह बहुत बातें कही । (१)
फिर स्वामीने बात कही कि, एक दिन महाराज नर्मदा में स्नान करके ध्यान करने बैठे सो उठे ही नहीं । फिर मुक्तानंद स्वामीने हाथ जोडकर दो-तीन बार कहा कि ‘हे महाराज ! आप अल्पाहार करें तो ठीक ।’ फिर महाराज ने कहा,जो ‘अल्पाहार तो करना हैं परन्तु हमें तो बात करनी हैं ।’ फिर स्वामी ने कहा कि ‘हे महाराज ! आप बात कहिए ।’ फिर महाराज बोले कि ‘पचास करोड योजन यह पृथ्वी है, उससे दस गुना जल है, उससे दस गुना तेज है, उससे दस गुना वायु है, उससे दस गुना आकाश है, उससे दस गुना अहंकार है, उससे दस गुना महत्तत्व है, उससे दस गुने प्रधान-पुरुष है, उससे अनंत गुना प्रकृति है, उस से अनंत गुने पुरुष हैं और उस से अनंत गुना परे अक्षरधाम है और उस धाममें रहनेवाले जो अनंत कोटि मुक्त हैं, उनको पुरुषोत्तम का संबंध हैं, अन्य को नहीं है । कितने को तो इन्द्रादिक का संबंध हैं और कईयों को तो ब्रह्मादिक का संबंध हैं और कईयोें को तो वैराटादिक का संबंध हैं, कईयोें को तो प्रधान-पुरुषादिक का संबंध हैं और कईयों को तो प्रकृति पुरुषादिक का संबंध है किन्तु पुरुषोत्तम का नहीं हैं ।’ तब मुक्तानंद स्वामीने कहा कि, ‘यहाँ किसीको पुरुषोत्तम का संबंध हो तो ?’ तब महाराजने कहा कि, ‘बस इतनी ही बात समझनी है; क्योंकि जो एक अक्षर के मुक्तों को पुरुषोत्तम का संबंध हैं या आप सबको हैं, परन्तु अन्य किसीको नहीं हैं ।’ इस प्रकार अपने पुरुषोत्तमपन के प्रताप की बहुत बातें की । उस में सेयह तो संकेतमात्र (अल्प) लिखी है । (२)
फिर स्वामी ने बात कही कि, मुक्तानंद स्वामी कोे श्रीजीमहाराजने पूछा कि; ‘हम जिन जिन धाम में जाते हैं उन उन धाम में आपकी बहु प्रशंसा हो रही है; अतः आपमें ऐसा कौनसा बडप्पन है कि वे सब आपकी प्रशंसा करते हैं ?’ ऐसा कहकर कहा कि, ‘यह तुम्बीपात्र फूट जाय तो जोडना आता हैं ?’ तब मुक्तानंद स्वामीने कहा कि, ‘नहीं महाराज !’ तब महाराजने कहा कि, ‘आप अपने बडप्पन को जानते नहीं हैं ।’ ऐसा कहकर बोले कि, ‘लो हम कहते हैं । ऐसा कहकर बोले किः जोय पचास कोटि योजन यह पृथ्वी है, उससे दस गुना जल है, उससे दस गुना तेज है, उससे दस गुना वायु है, उससे दस गुना आकाश है, उससे दस गुना अहंकार है, उससे दस गुना महत्तत्व है, उससे दस गुने प्रधान-पुरुष हैं, उससे अनंत गुना प्रकृति-पुरुष है और उन प्रकृति-पुरुष से परे अक्षरधाम है; उस धाम मे से लाख मन लोहै का गोला फेंके तो वायु के झोंके से रगडता हुआ पृथ्वी पर आये तब रजकण के साथ मिलकर रजकण हो जाय; उतना दूर है किन्तु जो यहाँ कोई अल्प सा जीव हो और उसके लिये आप चाहो कि यह जीव अष्ट आवरण से परे अक्षरधाममें जाये, तो तत्काल जायेगा जैसे गोफन में पत्थर डालकर फेंकते हैं वैसे; ऐसी आपकी कलाई में ताकत है, परन्तु आप उसे जानते नहीं हैं ।’ ऐसा कहकर कहा कि ‘ऐसा बडप्पन आपमें आया हैं उसका कारण कहता हूँ, वह सुनिए; कि सबसे परे जो अक्षरधाम उसमें विराजमान ऐसे भगवान उनका आपको साक्षात् संबंध हुआ हैं ।’ इस प्रकार कई बातें की । (३)
और फिर स्वामीने बात कही कि भगवान के अवतार मात्रमें चमत्कार तो लौहचुम्बक के पत्थर जैसा है । उसमें कोई तो मन जैसे हैं, कोई तो दस मन जैसे हैं, और कोेई तो सो मन जैसे हैं और कोई तो लाख मन जैसे हैं । उसमें जो मन चमक जैसे है वह इस मंदिर के लोहै को खींच लें और दस मन चुम्बक हो तो सारे शहर के लोहे को खींच लें और सौ मन चुंबक हो तो पूरे देश के लोहे को खींच ले और लाख मन चुंबक हो तो पूरे मुल्क के लोहै को खींच ले । और आज तो संपूर्ण चुम्बक का पहाड आया है; अन्यथा सारा ब्रह्माण्ड कैसे आकृष्ट हो जाय ?’ इस तरह बात कर बोलेः कि ‘पूर्व के अवतारमें जैसा ऐश्वर्य है, उसमें उतने लोग उसमें आकर्षित हुए हैं किन्तु आज तो सर्व अवतार के अवतारी, सर्व कारण के कारण ऐसे जो पुरुषोत्तम स्वयं ही पधारे है ;उनको देखकर अनंत धाम के पति और वे धामों के मुक्त उनकी मूर्ति में आकृष्ट हो गये । जैसे चुम्बक के पर्वत को देखकर नौका के खिले खींच जाते हैं, वैसे ।’ (४)
और स्वामीने बात कही कि, ‘वादी, फूलवादी एवं गारडी, उसमें वादी हो वह तो भोला-भला साँप हो उसको पकडे और फूलवादी हो वह तो हाथ लगे तो पकडे अन्यथा कपडे के छोर से झपटकर मार डाले और गारडी हो उसके आगे तो कैसा भी मणिधर हो वह भी डोलने लगे । यह तो दृष्टांत और सिद्धांत तो यह हैं कि दत्तात्रेय और कपिल तो वादी के स्थान पर हैं, वे मुमुक्षु हो उनका कल्याण करें और रामचंद्रजी एवं श्रीकृष्ण तो फूलवादी के स्थान पर हैं, वे तो अपनी आज्ञा माने उनका कल्याण करें और न मानें तो तलवार से समाधान करके कल्याण करें; और श्रीजी महाराज तो गारडी के स्थान पर हैं; उनके आगे तो जीव, ईश्वर, पुरुष और अक्षरादि सब हाथ जोडकर खडे हैं । (५)
फिर स्वामीने बात कही कि श्रीजी महाराजका जेसंगभाई ने प्रश्न पूछा कि, ‘भगवान का किया सब होता है, तब वे भगवान रक्षा करे तो क्या नहीं होगा ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि, ‘रक्षा तो भगवान बहुत करते हैं, अगर रक्षा नहीं करते होते तो काल, कर्म और माया आदि कोई प्रभु भजन करने दें ऐसे नहीं हैं । क्योंकि मूल माया को किसीने छेडी नहीं थी, जिसको हमनें छेडी है; वह क्या ? तो घुंघट रखाकर उसका बार बार तिरस्कार करते हैं और यदि भगवान रक्षा न करते होते, तो यह दीवार गिराकर मार दें या तो पृथ्वी फाडकर अंदर घुसा दें, ऐसी माया क्रुधित हुइ है ।’ तब पूछा कि ‘ऐसी रक्षा कब तक करेंगे ?’ ‘तब श्रीजी महाराज बोले की अभी रक्षा कर रहे हैं और बाद में नहीं करेंगे ऐसा मत समझना ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘पूर्व देश मे से एक पुरुष चला आ रहा था, उसके आगे लाखों ताड़ के वृक्ष आयें उनको देख एक ताड़ को धक्का दिया और लाखों ताड़ वृक्षों को गिराकर चला गया । इस प्रकार हमने पृथ्वी पर आकर काल, कर्म, माया को धक्का दिया है । वे खडे होकर दुःख देने समर्थ नहीं होंगे इस तरह समझना ।’ (६)
फिर स्वामी ने बात कही कि श्रीजी महाराज ने एक दिन आनंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी तथा स्वरुपानंद स्वामी उन तीनों से पूछा कि, ‘हम आपको जो जो आज्ञा करें कि इस प्रवृत्ति की क्रिया करिए, तब कैसे करोंगे ?’ तब पहले आनंद स्वामी ने कहा कि ‘जैसे आप कहोगे वैसा करेंगे ।’ तत्पश्चात् मुक्तानंद स्वामीने कहा कि ‘हृदयमें से एक बेंत्ता वृत्ति बाहर निकालूँ तब क्रिया होगी और वह जो एक बित्ता बाहर निकाली हुई वृत्ति को एक हाथ पीछे मोडुं तब सुख होता ।’ तत्पश्चात् स्वरुपानंद स्वामीसे पूछा, ‘आप कैसे करेंगे ?’ तब वे बोले कि, ‘जो क्रिया करने या देखने जाऊँ तो वह पदार्थ मिट जाय और आपकी मूर्ति दिखाई दे।’ तब श्रीजीमहाराज बोले कि ‘पदार्थ मिट जाय और मूर्ति दिखाई दे यह बात सब को मानने में आती नहीं हैं ।’ तब स्वरुपानंद स्वामी बोले कि ‘जैसे तीर में नींबू घुसाया हो और वही तीर को जिस ओर करे उस ओर तीर में नींबू दिखाई देता हैं; उसी तरह वृत्तिमें भगवान रहे हैं, सो उस वृत्ति को जिस ओर करे उस ओर भगवान दिखाई देते हैं ।’ फिर श्रीजी महाराज ने कहा कि ‘तीनो के अंग भिन्न-भिन्न दिखाई दे रहे हैं । अतः आनंद स्वामी को मुक्तानंद स्वामी का समागम करना एवं मुक्तानंद स्वामी को स्वरुपानंद स्वामी का समागम करना चाहिए । ऐसा करे तो एक दूसरे की कसर मिटेंगी’ , इस तरह उत्तम मध्यम और कनिष्ठ भेद है ।’ (७)
बादमें फिर स्वामी ने बात कही कि एक दिन स्वरुपानंद स्वामी गाँवोंमें विचरण करके आये । उसे श्रीजी महाराज ने पूछा कि ‘देश में मनुष्य कैसे हैं ?’ तब स्वरुपानंद स्वामी धीरे से बोले कि ‘हे महाराज ! मनुष्य तो नीम के नीचे देखा है और कहीं तो मनुष्य है ही नहीं ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘देश फिर कर आये और मनुष्य तो देखे ही नहीं ?’ तब सभी संतोंने पूछा कि ‘कल्याण किसका किया होगा ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘दूसरे तो नियम देकर वर्तमान धर्म पालन करवायें तब कल्याण होता है और स्वरुपानंद स्वामी के तो दर्शन से कल्याण होता है ।’ (८)
फिर स्वामी ने बात कही कि मुक्तानंद स्वामी एवं ब्रह्मानंद स्वामी देश (गावों में सत्संगार्थ) फिर कर आकर फिर श्रीजी महाराज के पास बैठे तब श्रीजी महाराज ने ब्रह्मानंद स्वामी से पूछा कि ‘देश में सत्संग कैसा हुआ है ?’ तब ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि ‘महाराज सत्संग तो बहुत हुआ है ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘आप सत्संगी हुए क्या ?’ तब स्वामी ने कहा कि ‘हम तो बराबर सत्संगी हुए हैं ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘आप तो अभी गुण बुद्धिवाले सत्संगी बने है और यदि बराबर सत्संगी हो तो कहो कि हम कहाँ थे और कहाँ से आ रहे हैं ?’ तब ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि ‘नहीं महाराज एसे सत्संगी तो नहीं हुए हैं ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘हमारे पक्के सत्संगी तो गोवर्धनभाई तथा पर्वतभाई आदिक हैं । वे तो हमको तीनों अवस्था में निरंतर देखते हैं ।’ फिर मुक्तानंद स्वामी बोले कि ‘हे महाराज ! वैसे सत्संगी कैसे बन सकते हैं ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘वैसे सत्संगी तो तब हो सकते हैं जब मायिक भाव मिटाकर अपने को अक्षररुप मानकर मेरी मूर्ति का चिंतन करोगे तो वैसे सत्संगी हो सकेंगे।’ तब ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा कि ‘हे महाराज ! आप कृपा करें तो एसे सत्संगी तोहो जाय ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘अब भी कृपा चाहिये ? देखिए ! हम अक्षरधाम से यहाँ आये, सो प्रकृति पुरुष के लोक में न रहे और प्रधान-पुरुष के लोक में भी न रहे एवं अनंत दूसरे धामों और ईश्वरों के अनंत स्थान में कहीं नहीं रहे और आपके साथ यहाँ आकर रहे हैं और अब भी आप को कृपा चाहिए ?’ तब ब्रह्मानंद स्वामी बोले कि ‘हे महाराज ! कृपा तो बहुत की हैं, किन्तु हमें तो माया का आवरण वह समझ में आता नहीं हैं ।’ तब श्रीजी महाराज खडे होकर ओढे हुए उत्तरीय वस्त्र को नीचे छोडकर बोले कि ‘अब है माया का आवरण ?’ तब कहा ‘ना महाराज !’ (९)
फिर स्वरुपानंद स्वामीने श्रीजी महाराज से पूछा कि ‘हे महाराज ! सत्संगी का कैसा कल्याण होता हैं ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘जैसा कल्याण बडे बडे अवतारों का होता हैं, वैसा कल्याण सत्संगी का होता हैं ।’ तब स्वामी बोले कि ‘गुरु साहब ! तब तो बहुत बडा कल्याण होता है ।’ (१०)
फिर स्वामीने बात कही कि गाँव जाळ्यिामें श्रीजी महाराज बहुत देर तक सो कर जागे; बाद में सभी संतोंने पूछा कि ‘हे महाराज ! आज तो आप बहुत देर तक सोते रहे ।’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘आपने बहुत तप किया, इससे हम प्रसन्न हुए सो आज तो आपके लिये हम धाम देखने गये थे, पहले तो हम बदरिकाश्रम में गयें, वे बदरिकाश्रमवासी ओने हमारी पूजा आरती-स्तुति करके बैठे; फिर हमने उनसे पूछा कि ‘हमारे साधु के लिये जगह देखने आये हैं ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘हे महाराज ! यह धाम आपका ही है । इसलीए यहाँ साधुओं को रखिये ।’ फिर हमको ऐसा लगाः कि ऐसा तो चरोतर प्रदेश है,क्योंकि कैथ-बैर तो वहाँ भी मिलते हैं । फिर हम वहाँ से श्वेतद्वीप में गये तो वहाँ के निवासीने हमें बिठाकर पूजा-आरती-स्तुति करके वे बैठे, फिर उन्होंने हम से कहा कि ‘हे महाराज ! बहुत दया करके दर्शन दिये ।’ फिर हमने उन से कहा कि ‘हमारे साधु के लिये जगह देखने आयें हैं ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘हे महाराज ! यह धाम आपका है, तो यहाँ साधुओं को रखिये ।’ फिर हमको लगा कि स्थान तो बहुत अच्छा है किन्तु प्रभु भजन में सानुकूल नहीं है; क्योंकि क्षीर समुद्र एक ओर गर्जता रहता है । फिर वह देख हम चल पडे और वैकुंठ लोक में गये । वहा वैकुंठवासी रामचन्द्रजीने हमारी पूजा-आरती-स्तुति की और बैठे । फिर उनको हमने कहा कि ‘हमारे साधु के लिये जगह देखने आये हैं ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘हे महाराज ! यह धाम आपका है इसलिये यहाँ साधुओं को रखिये ।’ फिर हमको उस धाम में कुछ अच्छा नहीं लगा, क्योंकि चार भुजा और स्त्रियों का प्रसंग, वह ठीक नहीं हैं; फिर वह देखकर हम चल पडे और गोलोक में गये; फिर वहाँ के निवासी श्रीकृष्णने हमारी पूजा-आरती-स्तुति की और बैठे । फिर हमने उनसे कहा कि ‘हमारे साधु के लिये जगह देखने आये हैं ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘हे महाराज ! यह धाम आपका है, अतः यहाँ साधुओं को रखिये ।’ फिर हमको उस धाममें भी कुछ अच्छा नहीं लगा, क्योंकि गोप-गोपियाँ को देख प्रभु भजन नहीं हो सकता और कई प्रकार की गडबडी । उसे देख हम चल पडे और प्रकृति-पुरुष के लोक में गये । वह लोक देखकर बहुत खुश हुए कि यहाँ साधु को रखें । वहा तो पुरुष एवं प्रकृति दिखाइ दिए । उसे देख प्रकृति से पूछा कि ‘तुम गोरी क्यों हो और यह पुरुष काला क्यों हैं ?’ तब उसने कहा कि ‘यह पुरुष मेरे साथ जुडनेसे मेरा कालापन उसमें गया और उसका रुप था वह मुझ में आया है ।’ फिर हमने सोचा कि यहाँ साधुओं को रखना ठीक नहीं हैं क्योंकि माया काले कर देती हैं । फिर उन्हे देखकर हम पडे और अक्षरधाम में गये । वह अक्षरधाम के मुक्तो नें हमको दिव्य सिंहासन पर विराजित कर हमारी पूजा-आरती-स्तुति करके बैठे । फिर हमने कहा कि ‘हमारे साधुओं के लिये धाम देखने आये हैं ।’ तब उन मुक्तों ने कहा कि ‘हे महाराज ! यह धाम आपका है और हम भी आपके ही हैं । अतः यहाँ साधुओं को रखिये और सुख दीजिए ।’ फिर हमको ऐसा लगा कि यह धाम जैसा कोई धाम नहीं हैं अतः यहाँ साधुओं को रखना यही ठीक है । (११)
फिर स्वामीने बात कही कि ‘महाराज को पुरुषोत्तम जाने बिना अक्षरधाम में नहीं जा सकते और ब्रह्मरुप हुए बिना महाराज की सेवामें नहीं रह पाए ।’ तब शिवलाल (बोटाद गांव के नगरशेठ)ने प्रश्न पूछा कि ‘पुरुषोत्तम कैसे जानें और ब्रह्मरुप कैसे हो सकें ?’ तब स्वामी ने कहा कि ‘महाराज तो सर्वोपरी हैं, सर्व अवतार के अवतारीं और सर्वकारण के कारण हैं । उस पर गढपुर मध्य प्रकरणका नववाँ एवं गढपुर अन्त्य प्रकरणका ३८वाँ वचनामृत पढवाकर कहा कि ‘आज तो सत्संग में आचार्य, मंदिर एवं मूर्तियाँ वे सर्वोपरी हैं, फिर महाराज सर्वोपरी हो उसमें क्या कहना ? यह तो सर्वोपरी ही हैं ऐसा समझना । और ब्रह्मरुप तो इस तरह बन सकते हैं; कि जो ऐसे साधु को ब्रह्मरुप जानकर, मन, कर्म वचन से उनका संग करते हैं वे ब्रह्मरुप हो जाते हैं ।’ उस पर वरताल प्रकरण का ग्यारहवाँ वचानामृत पढवाकर कहा जो ‘ऐसे बनें तब पुरुषोत्तम की सेवा में रह सकते हैं ।’ एक हरिभक्त ने चार-पाँच वचनामृत पढें, उन वचनामृत के नाम प्रथम प्रकरण का तेईसवाँ, मध्य प्रकरण का तीसवाँ एवं पैतालीसवाँ और अहमदाबाद का दूसरा एवं तीसरा, तब स्वामीजी उठ कर बोले कि ‘मानो कि ये वचनामृत तो सुनें ही नहीं थे, ऐसा कहकर बोले कि ‘फिर पढिये ।’ तब दुसरी बार पढे गये । तब स्वामी बोले कि ‘ये वचनामृत सुनकर ऐसा लगा कि कोटि कल्प तक भी ऐसा किए बिना छुटकारा नहीं हैं । सो आचार्य हो या भगवान का पुत्र हो या तो ईश्वर हो या छोटे-बडे भगवान के अवतार हो किन्तु ऐसा किये बिना छुटकारा नहीं हैं; क्योंकि वह भी महाराज का मत है उस पर महाराज का कहा गया श्लोक बोले कि,
निजात्मानं ब्रह्मरुपं देहत्रयविलक्षणम् ।
विभाव्य तेन कर्तव्या भक्तिः कृष्णस्य सर्वदा ।।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।।
परिनिष्ठतोऽपि नैर्गुण्ये उत्तम श्लोक लीलया ।
गृहित चेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ।।
आत्मारामश्च मुनयो निर्ग्रन्थाऽप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्य हैतुकीं भक्तिमित्थं भूतगुणो हरिः ।।
ऐसे कई श्लोक बोलकर कहाः कि ‘ऐसे बनें तब उसके हृदयमें भगवान अखण्ड निवास करके
रहते हैं ।’ (१२)
फिर एक हरिभक्त के सामने देखकर बोले कि ‘आपको मूर्ति तो हैं, लेकिन मंदिर बिना पधराएँगे कहाँ ? अतः भगवान स्थापित करना हो तो इस में कहा वैसा मंदिर बनाना सीखो तो भगवान रहेंगे ऐसा कहकर बोले कि ‘इस मंदिर के लिये मूर्तियाँ लेने गये तब शिल्पकार ने कहा कि ‘कैसी मूर्तियाँ दूं ?’ तब साधु ने कहा कि ‘इस मानचित्र के अनुसार दीजिए ।’ तब शिल्पीने कहा कि ‘लाखों रुपए का मंदिर हो तब ऐसी मूर्तियाँ शोभा दें ।’ फिर साधुने कहा कि ‘मंदिर के अनुरुप ही मूर्तियाँ लेने आये हैं ।’ तब कहा कि ‘तब तो निकाल देता हूँ ।’ फिर शिल्पी ने मूर्तियाँ निकाल दी । उसी प्रकार हमभी ब्रह्मरुप हुए बिना पुरुषोत्तम भगवान को बिराजमान करेंगे कहाँ ? अतः पुरुषोत्तम भगवान को स्थापित करना हो तो ब्रह्मरुप होना ।’ ऐसा कहकर उठ खडे हुए । फिर एक हरिभक्त की कलाई पकड कर चले और कहा किः‘खबरदार संकल्प किया तो !’ तब उस हरिभक्त के संकल्प बंद हो गये। फिर उसको कहा कि ‘इस प्रकार निरंतर रह सके तो तो संशयग्रंथि, कर्मग्रंथि, इच्छाग्रंथि, ममत्वग्रंथि और अहंग्रंथि आदि अनेक प्रकार की ग्रथियों का नाश हो जाता है और निरंतर भगवान में रह सकते हैं ।’ (१३)
फिर स्वामी ने बात कही कि प्रभु भजन के लिए देह धारण तो किया है, परंतु पंचविषय दमघोष के बेटे(शिशुपाल) जैसे है । वे भगवान से विवाह नहीं करने देते, ऐसे बुरे हैं । तब पूछा कि ‘रुक्मिणिजी एक बार भगवान के गुणों को सुनकर बोलेः कि विवाह करुं तो भगवान से करुं, अन्यथा जीभ कुचलकर मर जाऊँ लेकिन दमघोष के पुत्र शिशुपाल से तो विवाह नहीं करुं ।’ ऐसा कहा और आज तो महाराज और बडे संत निरंतर कहते हैं; फिर तो भी भगवान को छोडकर दूसरे से क्यों विवाह करते हैं ? तब स्वामी बोले कि ‘हमने भगवान से विवाह करने देह लिया नहीं हैं और रुक्मणिजीने तो भगवान से विवाह करने हेतु देह धारण किया था और हमको तो महाराज एवं बडें साधु का योग हुआ है, भले ही आज प्रभु के स्वरुपमें रहना कठिन पडता है किन्तु फिर तो बाहर निकलना कठिन पडेगा; ऐसा सत्संग का प्रताप हैं ।’ तब पूछा कि ‘यह देह छोडने के बाद हम कैसे होसकेंगेे ?’ तब स्वामी बोले कि ‘व्यापकानंद स्वामी तथा स्वरुपानंद स्वामी होसकेंगे । ऐसा महाराज और बडे साधु का प्रताप हैं ।’फिर स्वामी ने बात कही कि ‘जैसे महाराज हैं और जैसे ये साधु हैं वैसे यदि समझमें आ जाय तो उसे कुछ समझना और कुछ करना शेष नहीं रहता ।’ तब पूछा कि ‘जैसे महाराज हैं और जैसे साधु हैं वैसे जानते हो उसकी समझ कैसी होती हैं ?’ तब स्वामीबोले ‘‘जो वेत्ति युगपत्सर्वं प्रत्यक्षेण सदा स्वतः’’ यह श्रुति बोलकर कहाः ‘ऐसी समझ हो तब भगवान और बडे संतको जान लिये समझना ।’ तब फिर पूछा कि ‘ऐसी समझ होने के बाद भी बुरा आचरण होता है ?’ तब स्वामी बोले कि ‘जिसको ऐसी समझ हो उसे तो बुरा संकल्प भी नहीं होता; तो फिर आचरण तो होगा ही कैसे ?’ जिसको जितना बुरा आचरण होता है उतना अज्ञान है उतना ही कुसंग होता है । (१४-१५)
एक दिन वेदांती के समक्ष स्वामी ने ऐसी बात कहीः कि ‘जो भगवान के स्वरुप को निराकार कहनेवाले हैं और जानने वाले हैं और सत्शास्त्र के अर्थ को उल्टा करनेवाले हैं, वे तो अनंत जन्मों तक एवं अनंत कल्पों तक किसी स्थानकेबीच बालक आवाज देकर बनकर रोयेगा नहीं और सतयुग में लाख वर्ष तक और त्रेतायुग में दस हजार वर्ष तक एवं द्वापरयुग में हजार वर्ष तक और कलियुग में सौ वर्ष तक उसको गर्भमें शसत्रसे काट काट कर निकालेंगे किन्तु बालक जैसे खुली आवाज से रो नहीं पायेगा और वैसे ही वैसे अनंत कल्पों तक दुःख भोगता रहेगा किन्तु सुख तो होगा ही नहीं । ऐसा कहकर बोले कि स्वामिनारायण भगवान ने इस पृथ्वी पर आकर पाँच पैर गाडे है,ं उन्हें मिध्या कर जीव का भला होता ऐसा कह दिखाओ ? और वे पाँच पैरवो क्या ? वे निष्काम, निर्लोभ, निःस्वाद, निःस्नेह व निर्मान य जो पाँच पैर गाडे है, उन्हें हिलाने से कोई समर्थ नहीं । जैसे रावण की सभामें अगंद ने पैर गाडा था, वह किसी से हिला नहीं वैसे हमने भी ये पैर गाडे है; वे किसीसे मिथ्या नहीं होगे’ ऐसा कहकर स्नान करने पधारे ।फिर स्वामीने बात कही कि ‘महाराजने जीव के मोक्ष के लिए अनंत प्रकार की बातों का प्रवर्तन किया है किन्तु उसमें चारों बाते हैं वे तो जीव के जीवन रुप हैं । वह क्या ? वो एक तो महाराज की उपासना, दूसरी महाराज की आज्ञा, तीसरी बडे एकान्तिक के साथ प्रीति और चौथी भगवदीय के साथ सुहृदभाव । ये चार बातें तो जीव का जीवन है उसे तो छोडना ही नहीं और यदि अशुभ देश, काल, संग, क्रिया, शास्त्र, मंत्र, दीक्षा और देवता ये आठ अशुभ का योग हो तो महाराज एवं अन्य अवताेंरोके बीच समभाव करा डालें और आज्ञा के प्रति गौणभाव दिखा दें और बडे संत और जो सत्संग में गडबडी समझवाला हो उन दोनों के प्रति समान भाव कर दें और भगवदीय के प्रति दोष भाव बता दें । वे आठ देशादिक तो असत्पुरुषमें रहे हैं, इसलिये जिसको जीव का जीवन रखना हो उन्हें तो परखकर जीव जोडना ।’ तब एक हरिभक्तने हाथ जोडकर कहा कि ‘मुझे तो बहुत बंधन हुआ है तो मैं क्या करुँ ?’ तब स्वामी बोले कि ‘मैं तो बहुत ही सुखी बना दूँ किन्तु आप से वैसा नहीं होगा और यदि मैं कहूँ वैसा आप करोगे तो वहाँ से पागल हो जाओ तब बात बनेगी परंतु उसके बिना तो होगा नहीं । तब फिर पूछा कि आप कहें वैसा करे तो वह पागल कैसा कहलायेगा ? तब स्वामी बोले कि देखो ये दो आदमी मैं कहता हूँ वैसा करते हैं तो वहाँ सब उसको पागल मानते हैं । किन्तु यदि महाराज और बडे साधु प्रसन्न हैं तो सबप्रसन्न हो रहे है । इतनी बात कहकर मंदिर में पधारे । (१६-१७)
स्वामी ने बात कही कि साधु तो कहाँ पहचाने जाते हैंं ? ऐसा कहते हुए कहा कि जिस वर्ष छातेँ तोड दीं और पिटारे निकलवाये, उस दिन एक साधु ने मुझे कहा कि यह भजनानंद स्वामी जैसा सत्संग में कोई साधु नहीं है; क्योंकि दूसरे सबके पिटारे में से कुछ न कुछ निकला किन्तु उसके पिटारे से कुछ भी नहीं निकला । तब मैं ने कहा कि क्या तेरा सिर मिले, गाँव में कहीं रख दिया होगा और कुछ भी न हो तो दो पिटारे रखने की जरुरत होगी ? और सत्संग में वैदपन करके कई पदार्थ इक्कठे किये थे, वह कुसंग में कहीं रहा किन्तु सत्संग के काम में नहीं आया । लो देखो वैसे को भी बडा माने हैं, अतः साधु पहचाने नहीं जाते । ऐसा कहकर फिर बोले कि जब पहले महाराज ने मंडल बनवाया तब सभि साधुओं को कहा कि जो गुरु-गुरु हो वे एक ओर बैठो । तब जितने गुरु थे वे उठकर एक ओर बैठे । फिर महाराजने कहा, ‘जहाँ जिसे मैलआये वहाँ बैठो ।’ फिर जिसे जिसके साथ मैलथा वे वहाँ बैठे फिर स्वामी ने कहाः मैं ब्रह्मानंद स्वामी के पास रहता सो उठकर आत्मानंद स्वामी के पास जाकर बैठा । क्याेंकि ब्रह्मानंद स्वामी टोकते नहीं और वे तो खुद महा कविराज सो उनके पास खाने का बहुत आयें, वह युवा अवस्थावाले को ठीक नहीं । फिर महाराज उठकर जहाँ संत मंडल बैठे थे वहाँ देखते देखते जहाँ आत्मानंद स्वामी बैठे थे वहाँ आकर मुझसे कहा कि ‘आप तोे ब्रह्मानंद स्वामी के पास रहते थे न ?’ फिर मैंने कहा ‘आत्मानंद स्वामी वृद्ध साधु हैं, उनकी सेवा करनेवाला कोई नहीं है इसलिए उनके पास रहा हूँ ।’ फिर महाराज ने कहा ‘अच्छा’ । फिर तो सबको देखकर बोले, जो ‘गुरु भी मूर्ख है और चेले भी मूर्ख हैं; क्योंकि सत्संग के स्तंभ जैसे हैं उनको पहचानते नहीं हैं और जो हिन्दुस्तान में ले चले ऐसे हो, उसके पास जाकर रहे हैं और गुरु भी मूर्ख हैं क्योंकि साधु की गर्ज रखते नहीं हैं; अतः कुछ गर्ज करना सीखो ।’ इतनी शिक्षा देकर गुरु गुरु के मंडल बनवाये । फिर स्वामी ने कहा कि हमारी प्रकृति तो एक भी साधु न रखे ऐसी थी किन्तु महाराज की इच्छा देखकर सारे सत्संग का ख्याल रखना पडता है । अन्यथा तो महाराज की मूर्ति के सिवा कुछ चाहिए ही नहीं और एक दिन पुस्तक बाँधते हाथ से (बांधने का कपडा) गिर पडा; फिर बांधा ही नहीं गया, क्योंकि जब पुस्तक बांधे तब भगवान कब याद करें ? ऐसा कहकर बोले कि ऐसा तो बालमुकुंदानंद स्वामी कहते थे कि ‘दूसरे तो ये पत्थरका हृदय पर ढेर करते हैं, और उसको कोई छुडावे तो मृत्युं हो जाती है और हमें तो बाहर ही रखना हैं और हृदय में तो महाराज को रखना ।’ ये बातें तो एकांतिक की है । (१८)
स्वामीने बात कही कि जीव अन्यत्र कहीं भी रुुकता नहीं और महाराज को पुरुषोत्तम कहने में ठिठकता है । फिर रघुवीरजी महाराजने प्रश्न पूछा कि ‘महाराज के चरित्र देखें-सुनें हो तो भी कहने-लिखने में रुकते है क्यों ? फिर स्वामी बोले कि एक घोडे का स्वप्न में पैर टूट गया, वह जब जागा तब पैर तोल के खडा रहा किन्तु पैर नीचे रखे नहीं; फिर वैद्य को दिखाया; तब वैद्यने कहा कि, ‘इस घोडे का पैर नहीं टूटा, वैसे कुछ बीमार भी नहीं हुआ; उसको तो स्वप्न हुआ है सो पैर तोलकर खडा हैं ।’ तब पूछा जो ‘उसका क्या करें ?’ तब उसने कहा, ‘दो सौ घोडे तैनात करो और तोप एवं बँदूकों की आवाज करने लगो ईससे चमकेगा तब स्वप्न हुआ हैं वह छोड देगा ।’ ठीक इसी तरह जीव को शास्त्र के शब्दों कि भ्रांति हुई है, सो निरंतर ऐसे ही (कथा-वार्ता के) धडाके और हाकल करते रहेंगे तो (भ्रांति) छोड देंगे; इतनी बात की औेर फिर रघुवीरजी महाराज गद्दी पर चम्पा के तीन फूल रखकर बोले कि ‘कोई तो इस फूल तक पहुँचते हैं और कोई तो इस फूल तक, किन्तु इस फूल तक कोई पहुँचता नहीं है ।’ इस प्रकार मर्म में बात कही । फिर स्वामी ने तीसरा फूल था वह अचिंत्यानंद ब्रह्मचारी को दिया । फीर रघुवीरजी महाराजने कहा कि ‘स्वामी! पारसा आए (इशारे से समझाये) कि ? ऐसा कहकर भोजन करने पधारे । (१९)
एक बडे हरिभक्त थे उसने स्वामी को बुलाकर कहा कि ‘गाडी में आइये !’ तब स्वामी गाडी में बैठे । फिर प्रश्न पूछा कि ‘हृदय में शीतलता कैसे हो ?’ तब स्वामी बोले कि ‘हृदय में शांति तो तब होती है कि जब भगवान के सामने देखते रहते है उसी तरह बडे साधु के सामने देखते रहेंगे तब हृदय शांत होगी’ ऐसा कहकर बोले कि ‘जैसे गाय का बछडा हो वह गाय के शरीर में कही भी मुँह लगाये किन्तु दूध का सुख नहीं आता वह तो जब थन में मुँह लगावे तब ही दूध का सुख आता है; वह तो द्रष्टांत है और उसका सिद्धांत तो यह है, कि जो ये सब सत्संग तो महाराज का शरीर है किन्तु जो बडे एकांतिक संत हैं उनके द्वारा तो महाराज अखंड रहे है; इससे यदि संत के साथ लगे है उन्हे महाराज का सुख आता है । जैसे गाय के थन में से दूध का सुख आता है वैसे ।’ (२०)
स्वामीने एक दिन शिवलाल को गाडीमें बिठाकर कहा कि ‘तेरे मन में तुम ऐसा मानते हो कि मैंने गढपुर में मूर्ति प्रतिष्ठा करवाई और भावनगरमें रघुवीरजी महाराज की पधरावनी कराई वह बहुत बडा काम किया परंतु तुम्हारे जीव के सामने देखता हूँ तो सत्संग आधा रहा है ।’ तब उन्होनें हाथ जोडकर कहा कि ‘हाँ महाराज !’ फिर स्वामी बोले कि ‘ऐसे साधु को छोडकर जो अन्य सुख की इच्छा रखना, वह तो जैसे एक दिन गाय का बछडा छूटकर गौशाला में गया और सोचा कि दूध का सुख ले लूँ; किन्तु वहाँ तो सब बैल थे । अतः जहाँ (दूध पीने थनमें) मुँह डालने जाय वहाँ लातें पडी; सो लाते खा-खा कर मुँह सूज गया ! किन्तु दुध का सुख आया नहीं फिर उसकी माँ आयी तो भी दूध पीने समर्थ नहीं हुआ । इसी तरह ऐसे साधु को छोडकर अन्यत्र सुख लेने जाते हैं, वे तो लातें खाने जैसी बात हैं क्योंकि जो आज्ञा-उपासना में भंग होगा तब ऐसे संत के पास नहीं बैठा जायेगा; जैसे गाय का बछडा गाय के पास नहीं जा सका वैसे ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘ऐसे ही ऐसे दो माह तक बातें करुँगा, तब आगे जैसा भगवान में जीव जुडा हुआ था वैसा जुडेगा; ऐसा स्थूल भाव आ गया हैं और ये बातें तो भगवानमें जोडने की हैं । (२१)
स्वामीने एक दिन शिवलाल से कहा कि ‘आज कहाँ गये थे ?’ फिर (उन्होंने) हाथ जोडकर कहा कि ‘आज तो शहर में गया था, वह वहाँ से एक रसोई ले आया हूँ ।’ फिर स्वामीने कहा, ‘रसोई कैसी ?’ तब शिवलालने कहा कि ‘सोना लेकर दूसरी जगह दिया, उसमें से देढसो रुपए बचे उसकी रसोई ।’ तब स्वामी बोले कि ‘यह तो ठीक किन्तु जैसे सोना लेने का संकल्प हुआ लेकिन किसी दिन करोड मन धुस्से लेकर कमाई करें ऐसा संकल्प होता है ?’ तब कहा, ‘ना महाराज !’ तब स्वामी बोले कि ‘बडे संत की दृष्टि में तो महाराज की मूर्ति बिना प्रकृति पुरुष तक सब धुस्सा ही है किन्तु उसमें कुछ माल नहीं दिखाई देता और आप इतनी देर तक ऐसे साधु के दर्शन और बातें छोडकर कैसी कमाई की ?’ ऐसा कहकर (उनका) बुद्धि का अहं मिटा दिया । (२२)
एक हरिभक्तने प्रश्न किया कि ‘गोलोक के बीच अक्षरधाम है ऐसा संप्रदाय के ग्रंथोंमें लिखा है वह कैसे समझें ? यह प्रश्न है;’ फिर स्वामी बोले कि ‘जैसी जिसकी समझ हो वहाँ उसने अक्षरधाम माना है; उनमें कई ने तो बदरिकाश्रम को अक्षरधाम माना होता है । कई ने तो श्वेतदीप को अक्षरधाम माना होता है । कई ने तो वैकुंठलोक को अक्षरधाम माना है । कई ने तो गोलोक को अक्षरधाम माना होता है । किन्तु जिसे महाराज की महिमा है उसे जैसा है वैसा अक्षरधाम समझ में आता है । उस पर प्रथम का ६३वाँ वचनामृत पढाकर कहा कि देखो महाराज लिखकर गये हैं कि जैसे छोटे मच्छर हो उन के बीच चींटी हो वह बडी दीखती और चींटियों के बीच बिच्छू हो वह बडा दीखता और बिच्छूओं के बीच साँप हो तोे वह बडा दीखता और साँपों के बीच चील हो वह बडा दीखता और चीलों के बीच भैंसा हो वह बडा दीखता और भैसों के बीच हाथी हो वह बडा दीखता और हाथियों के बीच गिरनार जैसा पर्वत हो तोे वह बडा दीखता और वही पर्वतों के बीच मेरु पर्वत हो वह बडा दीखता है और मेरु जैसे पर्वतों के बीच लोकालोक पर्वत हो वह बहुत बडा दीखता है, वैसे गोलोक के बीच अक्षरधाम है ऐसा समझना किन्तु कहीं एक हाथी में गिरनार पर्वत आ गया ऐसा नहीं समझना और दूसरे अनन्त पर्वतों को छोडकर गिरनार को गिना है और दूसरे अनन्त पर्वतों को छोडकर मेरु पर्वत गिना है और दुसरे अनन्त पर्वतों को छोडकर लोकालोक पर्वत गिना हैं, ठीक उसी तरह अनंत धामों को छोडकर अक्षरधाम को कहा है किन्तु कहीं गोलोक में अक्षरधाम आ गया वैसा नहीं है और दूसरे धाम की अवधि कही गई है किन्तु अक्षरधाम की तो अवधि की गई नहीं हैं यह सिद्धांत की बात है ।’ (२३)
स्वामीने बात कही कि ‘हम जो-जो आज्ञा करते हैं और महाराज की मूर्ति देते किन्तु जिसको ज्ञान नहीं उसे यह बात समझ में नहीं आती और महाराज तथा बडे साधु का एक सिद्धांत हैं वह महाराज को तो अपनी मूर्ति का ही सुख देना है किन्तु ऐश्वर्य का सुख नहीं देना हैं; क्योंकि जीव ऐश्वर्यार्थी हो जाय । ठीक वैसे ही बडे साधु का भी यही मत है कि महाराज की मूर्ति में ही सबको जोडना है परंतु विषय के प्रति और देह के प्रति जोडना नहीं है और जो विषय के प्रति जोडते हैं वे एकांतिक नहीं है और जो ऐश्वर्य के प्रति जोडते हैं वे पुरुषोत्तम नहीं है । यही मर्म को तोे प्रह्लादने जाना था कि ‘विषय दें वह भगवान नहीं और विषय माँगे वह भक्त नहीं ।’ अतः जिसको भगवद्निष्ठ होना हो उसे महाराज की मूर्ति बिना अन्य कुछ चाहना नहीं; यह बात सिद्धांत रुप है । ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘ये भगवान और साधु के रुप को तो सिद्धियाँ भी धारण नहीं कर सकती; क्योंकि ये तो अटल हैं और दूसरे विभूति अवतार का रुप तो सिद्धयाँ धारण करती हैं परंतु यह प्रत्यक्ष महाराज और प्रत्यक्ष संत का रुप सिद्धियाँ धारण करती ही नहि । जैसे जो राजा गद्दी पर बैठा हो उसका वेश नट धारण करता नहीं वैसे’ (२४)
फिर स्वामी ने बात कही कि श्रीजी महाराज और बडे साधु का हृदगत अभिप्राय जानना वेतो बहुत ही कठिन है; वह तो कब जान सकें ? तो यदि एक कल्प तक जो मुक्तानंद स्वामी तथा गोपालानंद स्वामी तथा कृपानंद स्वामी जैसे का सेवन करें तब जान सके किन्तु उसके बिना तो पता ही नहीं चलता यह बात सिद्धांत रुप है और उसके बिना हमें जो कुछ दिखाई देता है, वह तो श्रीजी महाराज की एवं यह बडे संत की दृष्टि को लेकर समझमें आता है और उनकी दृष्टि कब है ? तो दृढ धर्म हो तथा आत्मा परमात्मा का अति दृढ ज्ञान हो तथा पंच विषय के प्रति अति दृढ वैराग्य हो तथा पुरुषोत्तम भगवान की माहात्म्य ज्ञान सहित अनन्य भक्ति हो, उस पर दृष्टि होती है किन्तु देहाभिमानी पर दृष्टि नहीं होती और उसके बिना जो कुछ दृष्टि जैसा दिखाई देता है, वह अन्त मे नहीं रहेगा उसमें कोई संशय नहीं । (२५)
फिर स्वामीने बात कही कि ‘जैसा सत्संग हैं वैसा दिखाई ही नहीं देता और किसी को दिखाई दे तो सत्संग करते नहीं और यदि कोई करे तो जैसा सत्संग है वैसा होता नहीं और यदि होता है तो संभाल ना बहुत कठिन होता है । वह यातो बहक जाय यातो पागल होजाय किन्तु सत्संग रहता नही वह सत्संगकौन रख सकता है ? तो जिसको महाराज के प्रति और ये बडे संत के प्रति माहात्म्य ज्ञान सहित प्रीति हो वही रख सकता है, किन्तु दूसरे से नहीं रहता ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘आज वर्तमान कालमें जिसने देह धारण किया है, उनका तो एक पैर अक्षरधाममें है और जिसको ऐसे साधु की पहचान हुई है उनके तो दोनों पैर अक्षरधाम में हि हैं किन्तु जिसको जिन्हें इस बात का ज्ञान नहीं उन्हे यह बात समझाती और इस सत्संगमें तो अनंत प्रह्लाद, अनंत अंबरीष एवं पर्वतभाई जैसे अनंत हैं किन्तु साधु के समागम बिना ज्ञान होता नहीं और ज्ञान हुए बिना ऐसी महिमा जानी नहीं जाती और महिमा जानें बिना सुखी हो नहीं सकते; उसमें कोेई संशय नहीं हैं ।’ (२६)
स्वामीने बात कही कि ‘सहि ज्ञान हो तो वह माया के फंदे में फँसता नहीं । वह जैसे जलमुर्गी को जल भीगा नहीं सकता, वैसे ऐसे पुरुष माया में आए तो भी माया उसे (अपने रंगसे) भीगा नहीं सकती तथा जैसे जाल काटनेवाली मछली जाल में फँसती नहीं है; क्योंकि उन्हें दोना ओर अस्तरे जैसी धार होे । वह जाल को काटकर निकल जाय । उसी प्रकार ऐसे समर्थ पुरुष हो वह अनंत जीवों को माया से परे कर दें ऐसे हैं और आपको तो यह पृथ्वी का निसाना है, वह क्या ? तो प्रत्यक्ष महाराज और प्रत्यक्ष संत प्रकट विराजते हैं ऐसा आपका बडा भाग्य है । उस पर गन्ने का दृष्टांत दिया; जैसे गन्ना हो उसका मूल का छोर बहुत कडा होता हैं और उपर का भाग फीका होता है और बीच का भाग मीठा होता हैं । उसी तरह आपको आज प्रभु भजन की सानुकूलता है क्योंकि बडे संत का योग है और पहले तो मारते थे और खाना नहीं मिलता किन्तु आज तो सर्वांग सानुकूलता हैं; तो प्रभु भजन कर लेना किन्तु आलसी मत होना । (२७)
स्वामी ने बात कही कि ‘सौ कोटि राख की पुडियाँ बनाकर तिजोरी में भरकर ताला दे रखें और जिस दिन (रुपयें की) जरुरत पडे और निकालें तो कुछ अच्छा निकलेगा ?’ तब कहा कि ‘नहीं महाराज !’ तब स्वामी बोले कि ‘भगवान की मूर्ति बिना और ऐसे साधु बिना प्रकृति पुरुष तक राख की ही पुडियाँ हैं । सो चाहे तो मूर्ति का छोडकर देवलोकमें जाओ और चाहे तो ईश्वर कोटि के लोकमें जाओ और चाहे तो पुरुष कोटि के लोकमें जाओ किन्तु महाराज की मूर्ति बिना और ये साधु बिना सुख व शान्ति कहीं भी नहीं हैं ऐसा कहकर बोले किःसुरपुर नरपुर नागपुर ये तीन में सुख नाहीं, काँ सुख हरि के चरन में काँ संतन के माहीं ।’’ (२८)
स्वामी ने ऐसी बात कही कि चंद्रमा का प्रतिबिम्ब जल में पडता है, तब उन्हें देखकर मछली प्रसन्न होती हैं और ऐसा समझे जो कि यह भी हमारे जैसी मछली हैं किन्तु जैसा चंद्रमा है और जैसा उसका मण्डल है और जैसा उसमें तेज हैं और जैसा उसका ऐश्वर्य व सामर्थ्य है, उन्हे मछली जान सकती नहीं तथा जैसे समुद्र में नौका चली जाती हो, उन्हे देखकर बडे मच्छ हों वे मनमे ऐसा जाने कि यह भी हमारे जैसा मच्छ चला जा रहा है किन्तु जैसी वह नौका है और समुद्र को पार करके लाखों-करोंडों का माल ले जाती है, लाती है उसको नहीं जान सकते यह तो दृष्टांत उसका सिद्धांत तो यह हैं कि ‘जैसे महाराज है और महाराजके के संत हैं और जैसे उनके स्वरुप, स्वभाव, गुण, ऐश्वर्य और सामर्थ्य हैं, उसे जान नहीं सकते ।’ वह तो जैसे मच्छ मछलीको अपने जैसा जानता है, वैसे जो मनुष्य है, वह भी अपने जैसे जानते हैं किन्तु जैसे हैं वैसे नहीं जानते है ।’ ऐसा कहकर यह श्लोक बोले किः
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूत महेश्वरम् ।।’’
जो ऐसे मूर्ख और मूढ मति जीव है वह मनुष्य जैसा जानते हैं किन्तु अनन्त कोटि जीवों को ब्रह्मरुप करके अक्षरधाममें ले जाए ऐसे हैं, वैसा नहीं जानते, यह अज्ञान है । (२९)
और एक हरिभक्त संसार छोडकर आए । उसे बुलाकर स्वामीने बात कही कि ‘एक लकडहारा था । वह लकडी के गठ्ठरों को लाकर बेचता था । फिर एक दिन ‘हेम गोपाल की झाडी’ में से बावना चंदनका काष्ठ आ गया; उन्हे अनजान चूल्हेंमें जलाया और उसकी सुगंध किसी शाहूकार था उन्हे फिर उस शाहूकार ने पूछा कि ‘इस गाँव मेतोें बावना चंदन जलाए ऐसा धनाढय कौन है ?’ फिर सबने कहा कि ‘इस गाँव में लकडहारे रहते है ।’ फिर उस शाहूकारने वहाँ जाकर जलते बचा हुआ थोडासा (चंदन) लाकर भगवान विष्णु को चढाया; तो उसके बाद जब देह त्याग किया तब विष्णु के लोक में गया । यह तो दृष्टांत है; उसका सिद्धांत तो यह है कि हेम गोपाल के स्थान पर तो यह भरतखंड है और बावना चंदन के स्थान पर तो मनुष्य देह है; वह बिना खबर(ज्ञान) स्त्री, द्रव्य, बेटे-बेटियाँ, लोक, भोग और देह के लिए जला देते हैं । वैसे हमे जलाना नहीं; हमें तो अर्थम् साधयामि वा ‘देहं पातयामि’ ऐसा ही करना ऐसा कहकर बोले कि ‘कोटि जन्म तक रगड हमारी, वरुँ शंभु या रहूँ कुमारी ।।’ इतनी बात करके उठे । (३०)
एक हरिजनने प्रश्न पूछा कि ‘मच्छर से लेकर गरुड तक भेद कहे हैं सो वह मच्छर वह गरुड की गति कैसे करे ? ऐसा अविश्वास का अंग रहता है,’ तब स्वामी बोले कि ‘गरुड पृथ्वी पर आया हो और उसके पंख में मच्छर बैठ जाए तब उसे कितना प्रयास करना पडे ?’ तब कहाः ‘कुछ भी प्रयास न करना पडे ।’ तब स्वामी बोले कि ‘गोपालानंद स्वामी और मुक्तानंद स्वामी वे तो गरुड जैसे हैं । उनकी पंख में हम बैठ गए हैं इसलिए कोई चिन्ता नहीं रखनी चाहिए ।’ तब फिर पूछा; कि ‘पंख किसे समझना ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘आज्ञा और उपासना ये दोनों पंख हैं, उनको छोडना ही नहीं । तो सहजता से ही अक्षरधाम में जा पाएँगे उसमें कोई संशय नहीं ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘तीन प्रकार के पक्षी हैं; उसमें कई पक्षी तो वृत्ति द्वारा अंडा को सेेवन करे, एैसे हैं, कई पक्षी तो दृष्टि द्वारा अंडा सेेवन करे ऐसे हैं और कई पक्षी तो पंख में रखकर सेवन करे ऐसे हैं । उसमें वृत्ति द्वारा जो अंडा सेवन होता हो वह अंडा दृष्टि में आए तो क्या गंदा रहेगा ?’ तब कहा कि ‘नहीं रहेगा,’ तब स्वामी बोले कि ‘यह अंडा फिर पंख में आकर पडे तो क्या गंदा रहेगा ? ना हीं रहे ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘यह तो दृष्टांत है । उसका सिद्धांत यह हैं कि वृत्ति द्वारा सेवन करे ऐसे तो गोपालानंद स्वामी और कृपानंद स्वामी जैसे हैं । उनकी पंख में हम पडे हैं; इसलिए कोई कसूर रहेगी नहीं ऐसा जानना ।’ (३१)
स्वामीने बात कही कि भजन करते करते क्रिया करे तो अंतर में शीतलता रहे और अंतर की वह शीतलता देखकर बडे संत प्रसन्न होते हैं और जिसके ऊपर बडे साधु प्रसन्न हो वह जीव सुखी हो जाय और जिसके अंतर में दुर्गंध उठती हो उसे देखकर कैसे प्रसन्न होंगे ?’ तब पूछाः कि ‘भगवान और साधु तो बहुत प्रसन्न हुए ।’ तब स्वामी बोलेः जो ‘यदि महाराज राजी नहीं होते तो ऐसा योग कहाँ से मिलता । स्वयं महाराजने कहा है कि ‘मेरी प्रसन्नता हो तो मैं उसको बुद्धियोग देता हूँ । या तो अच्छे संत का संग देता हूँ ।’ वह बुद्धियोग माने क्या ? तो बुद्धि के बारे मे ऐसा ज्ञान जो भगवान राजी हो जाय’ तब पूछा कि ‘भगवान निरंतर प्रसन्न कैसे रहे ?’ फिर स्वामी बोले ‘भगवान को निरंतर प्रसन्न रखना हो तो भगवान की आज्ञा तोडना नहीं और हमको भगवान का स्वरुप मिला है उसके बिना अन्यत्र सुख की ईच्छा नहीं रखना और सच्चे भगवान के साधु हो उसका संग रखना तो उसके ऊपर भगवान और बडे साधु निरंतर प्रसन्न रहते हैं उसमें कोई संशय नहीं है ।’ (३२)
स्वामीने ऐसीबात कही कि, ‘सत्संग में ऐसी बाते हो रही है जिससे जीव ब्रह्मरुप हो जाय;’ तब पूछा कि ‘सत्संग में बात तो होती है तो भी जीव ब्रह्मरुप क्यों नहीं होता है ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘स्नेह से सत्पुरुष में जीव जोडा नहीं है और यदि सत्पुरुष में जीव जोडा हो तो भी उनका विश्वास आता नहीं हैं ।’ तब फिर पूछा ‘स्नेह से जिसके साथ जीव जोडा हो उनका विश्वास क्यों नहीं आता ?’ तब स्वामी बोलेः कि ‘ये जलाभक्त ने मेरे साथ जीव बहुत जोडा है किन्तु मेरा विश्वास नहीं आए;’ ऐसा कहकर फिर बोलेः कि ‘विश्वास तो हो फिर भी निष्कपट रुप से वर्तन नहीं रखते और निष्टकपटता रखे तो जीव ब्रह्मरुप हुए बिना रहता नहीं; यह सिद्धांत बात हैं ।’ एक दिन स्वामी छोटे छोटे साधु, पार्षद और ब्रह्मचारी के सामने देखकर बोले किः
देश देशान्तर बहुत फिरा, मनुष्य का बहुत सुकाल;
जाकुं देखे छाती ठरे, वांका पडया दुकाल ।’
ऐसा कहकर बोले कि ‘जैसे महाराज को देखकर समाधि हो जाय और जीव सुखी हो जाता हैं; वैसे निरंजनानंद स्वामी के दर्शन करके भी समाधि जैसा सुख रहता है; ऐसे का दुष्काल है ।’ तब पूछा कि ‘जिसके दर्शन करके हृदय शीतल हो ऐसा उसमें क्या गुण है जो उसे देखकर शीतलता मिलती है?’ तब स्वामी बोले कि ‘जिसके सामने देखते ही वृत्ति पीछे मुड आए तब हृदय शीतल होता है और जिसके सामने देखने से वृत्ति चलायमान हो जाय तो उसे देखकर हृदय शीतल नहीं होता ।’ तब पूछा कि ‘जिसे देखकर हृदय शीतल हो ऐसेे गुण आने का क्या (कारण) साधन है ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘वैसे गुण तो नहीं आते, चाहे तो साथ में रहे या तो सेवा करे और चाहे तो कहे ऐसे करे तो भी बडों के गुण आते नही । तब हाथ जोडकर पूछा कि ‘हे महाराज ! क्या उपाय करे तो ऐसे गुण आये ? वचनामृत में तो बहुत जगह कहा है कि सत्पुरुष के गुण तो मुमुक्षु में आते हैं ।’ तब स्वामी बोले कि ‘सत्पुरुष के गुण तो आऐ; जब उनको निर्दोष समझे और सर्वज्ञ जानें और ऐसे हैं उनका साथ किसी प्रकारका अन्तराय न रखे, तब सत्पुरुष के गुण मुमुक्षु में आते हैं । किन्तु उसके बिना तो आते ही नहीं ।’ (३४)
हमको महाराज ऐसा कहते थे कि ‘दूसरे तो दुर्भागी हैं किन्तु यादव (श्रीकृष्ण भगवान के पुत्र) तो निरंतर दुर्भागी’ ऐसा कहकर बोले किः ‘जैसे महाराज हैं और जैसे ये साधु हैं उनको जैसे हैं वैसे न जानें तो वह निरंतर दुर्भागी; क्योंकि छिहत्तरे (७६)
का मेघ(बारिस) हुआ तो बारिस होते हुए भी अकाल पडा और ‘गंगामें नहाया और सिर नहीं भीगोया’ इस तरह जाने बिना सत्संग में रहते हैं, वे तो बच्चे और बछडे जैसे रहे हैं; किन्तु वे जैसे हैं वैसे जान नहीं सकते नहीं और सत्संग की महिमा तो बहुत बडी है सो महाराज कहते थे कि यह सत्संग तो ब्रह्मरुप एवं महाविष्णुरुप है’ ऐसा कहकर बोले कि
धन्य धन्य सो जन्म, शोधी सत्संगति आयो;
तीरथ व्रत जप जोग, सबन को फल सो पायो ।
कियो वचन में वास, भयो तेहि बेहद वासा;
हरि हरिजन रस रुप, रहत तहाँ प्रगट प्रकाशा ।
जेही मन वचन पर वेद, कहे तेहि सुख में सतत रहे;
जन मुकुंद सो सत्संग को, महिमां को मुख सें कहें ?
ऐसी सत्संग की महिमा बताई गई है । (३५)
एक दिन स्वामी सोये थे सो उठकर प्रश्न पूछा कि ‘अच्छे से अच्छा वह क्या है ? और बुरे से बुरा वह तो क्या है ?’ तब कोई बोले नहीं । तब स्वामी बोले कि ‘श्रेष्ठ से श्रेष्ठ तो वह भगवान और यह साधु का संबंध हुआ है; उससे कुछ श्रेष्ठ नहीं है और उससे कुछ श्रेष्ठ समझना भी नहीं है और बुरे से बुरा क्या है ? तो यह भगवान और साधु में मनुष्यभाव आता है, उससे दूसरा कुछ बुरा नहीं है । वह मनुष्यभाव क्यों आता है ? तो लोक, भोग, देह और चौथा पक्षपात उनके द्वारा मनुष्यभाव आता है । उनमें पक्षपात से जीवका जैसा बुरा होता हैं वैसा तो पंच विषय से भी नहीं होता । वह पक्ष के कारण तो गोपाळानंद स्वामी उपर पत्थर फेंके थे और झोली में अंगारे डालें थे । उस अंगारे निकालनेवाले (हम) यहाँ बैठे हैं ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘ऐसा संस्कार तो हमें भी बहुत हुआ है । वह जीव से तो सहन नहीं होता और अैसा उलटा पक्ष लेकर बडे संत का अवगुण लिया हैं; उससे तो भूत की योनि को पाये हैं और फिर कोई अवगुण लेगा वह भी पायेगा औेर उस पाप से तो ‘खाने में विष्टा और पीने में मूत्र...’ ऐसे दुःख भोग रहे हैं किन्तु सुख तो कहीं भी नहीं होता ।’ (३६)
एक दिन स्वामी ने ऐसी बात कही कि ‘कई ऐसा मानते हैं कि स्वामी हमारी ओर हैं; और दूसरे कई ऐसा मानते हैं कि स्वामी हमारी ओर हैं । इस तरह वे सब अपने अपने मतानुसार हमारा अभिप्राय जानते हैं किन्तु हमारा अभिप्राय तो बडे बडे सदगुरु भी नही जान सके तो आज आप क्या जानेंगे’? तब पूछा कि ‘बहुत बडे हो उनका अभिप्राय छोटा हो वह भी जान सकता है या नहीं ?’ तब स्वामी बोले कि ‘क्या धूल जाने ! क्या पतंग सूर्य का अभिप्राय जानता हैं ? नहीं जानता , वैसे बडों का अभिप्राय तो जानना दुर्लभ हैं । यह सिद्धांत बात है ।’ (३७)
बादमें फिर स्वामीने बात कही कि ‘पहले तो अनेक प्रकार से महाराज की प्रसन्नता होती थी और वह प्रथमके प्रकरण में ध्यान करना, त्याग रखना, सत्संग करना, मंदिर बनाना और पढाना इत्यादिक अनेक प्रकार से प्रसन्नता थी और इस वर्तमान काल में भगवान की प्रसन्नता किसमें हैं ? तो नट की माया के वचनामृत (पंचाळा के सातवें) में भगवान का स्वरुप निर्दोष कहा है, उस प्रकार भगवान का स्वरुप समझना और उसी प्रकार ही यह संत का स्वरुप भी समझना और भगवान की आज्ञा को पालन और सच्चे साधु का संग भी रखना उस पर महाराज प्रसन्न, प्रसन्न और प्रसन्न ही हैं ।’ ऐसा कहकर मस्तक पर कलाई रखकर तकिए पर झुक गए और फिर बोले कि ‘दूसरा कुछ अधिक समझना नहीं है; उतना ही समझना है कि “महाराज को पुरुषोत्तम जानना और ये संत सब अक्षर हैं और वह मूल अक्षर हैं । वे भी यहाँ देह धारण करके आए हैं ये दो बातें प्रथम के वचनामृत में कही हैं और जो उन दो बातों को नहीं समझा वो उस बिना तो-
पिंगल पुराण सीख्यो, गातां वातां सीख्यो सीख्यो सर्वे सूरमें;
एक राम नाम बोलना ना सीख्यो, तो सीख्यो सर्वे गयो धूरमें ।।
यह बात अमदावाद के साधु के आगे कहकर गद्दी पर हाथ डाला । (३८)
स्वामी ने ऐसी बात कही कि
आग लगी चहुँ ओर अविद्या की अति भारी;
अधो ऊर्ध्व अरु मध्य दिशो दिश भुजा पसारी;
विषय भोग विलास कर्मी को कर्म दृढायो,
कवि गुनी पंडित जान ताहि ले तहाँ डुबायो;
तेही वाक जाल डारी निकट नरनारी आवृत्त किए;
जन मुकुंद मद मच्छर लग्यो यूँ माया वश कर लिए ।। - २६
तब रुपशंकरने कहा कि ‘पहले तो मैं एैसा जानता था कि अविद्या अन्य जगह पर है और अब तो ऐसा दिखाई देता हैं कि अविद्या यहाँ ही रही है ।’ तब स्वामी बोले कि ‘अविद्या का ससुराल ही यहाँ है ।’ सो चाहे वहाँ जाकर अविद्या को अपना असली खुला करना है, और हमेंतो भगवान का और हमारा खुला करना है और दूसरे के मन में तो ऐसा है कि जूनागढ मंदिर का तो स्वामी नहीं होंगे तब सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा किन्तु महाराज और बडे साधु की दृष्टि है । तो सर्वोपरी बनाना है और बिजली की चमका देखकर खर लात मारने लगी । उससे बिजली बंद होने वाली नहीं हैं और लात मारमार कर पैर तो टूट जाएगा; इसी तरह अविद्या को लेकर अपने ही जिवन का बुरा करेगा और महाराज और बडे संत का कार्य, मिथ्या नहीं होगा । (३९)
और आज तो सत्संग में भगवान प्रकट विराजते हैं । अन्यथा बीस-बीस साल के (युवा) संसार छोडकर कैसे चले आए ? और काम क्रोधादिक तो ऐसे बलवान हैं, कि शिव ब्रह्मादिक की भी इज्जत लूंट ली हैं और यह कामादिक जिसमें आते हैं उनको निगल जाते हैं । सो आज तो महाराज और बडे साधु ने उसे रोक रखे है । जैसे ब्रह्मांड से परे महाजल है उसमें बडे-बडे मच्छ हैं । वे ब्रह्मांड के समीप आएँ तो पूरे ब्रह्मांड को भी निगल जाएँ उतने बडे हैं पंरतु प्रद्युम्न को चौकीदारी में रक्खा है । अतः वह जो ब्रह्मांड को निगलने हेतु नजदिक आए तो सिर पर गदा मारे जिससे करोडाें योजन दूर चले जाय । उसी तरह काम क्रोधादिक को महाराजने और बडे साधु ने रोक रक्खे है अन्यथा इस सत्संग में रहा नहीं जाता ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘यह गिरनार है उसे उडा देने का मनसूबा होता है ?’ तब कहा कि ‘नहीं महाराज !’ फिर स्वामी बोलेः कि ‘मन में निश्चित किया नहीं है; नहीं तो उडा देते क्योंकि पृथ्वी के सब मनुष्य इकठ्ठे हों और लुहार मात्र उपकरण बनाने लगें और हम सब सुरंग देकर उडाने लगें; तो चार-पाँच वर्ष में चूर-चूर करके उडा दें उसी तरह काम क्रोधादिक चाहे कितने ही मजबूत हों किन्तु मन में यदि निश्चय करेंगे तो उडा डाले, उसमें कोई संशय नहीं है ।’ (४०)
स्वामीने अेसी बात कही कि ‘आज तो पुरुषोत्तम अक्षरधाम एवं मुक्तों को सहित पधारे हैं । इस वास्ते अनंत धाम के भगवान अपने मुक्तों के साथ यहाँ पधारे हैं । वह किसलिये ? तो अपनी-अपनी त्रुटियाँ दूर करने तथा पुरुषोत्तम का स्वरुप समझने हेतु यहाँ आए हैं । अन्यथा ऐसी कसनी कैसे सही जाती ? श्रीजी महाराजने कहा है कि उन आगे के अवतारों में तीन-तीन भक्त योग में आए थे । (रामावतार में लक्ष्मण, सीताजी एवं हनुमानजी, कृष्णावतार में उद्धव, अर्जुन और रुक्मणिजी) और आज तो सबको योग में लेना है ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘अन्य का जन्म हे वे तो अपनी-अपनी त्रुटि छोडने हेतु और पुरुषोत्तम का स्वरुप समझने हेतु हैं और एकान्तिक का जन्म हे वो तो अनंत जीवों को ब्रह्मरुप करने हेतु और पुरुषोत्तम का स्वरुप समझाने हेतु हैं और येबातें तो गोपालानंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी और स्वरुपानंद स्वामी के अंग की है वे इस साधारण जीवों में डाल दिया है। अतः सुपाच्य नहीं होती हैं और वमन हो जाता हैं । जैसे सौ जन्म के शुद्ध ब्राह्मण हे उसके पेट में सोमवल्ली औषधि रहती है, और ऐसा न हो तो उसके पेट में नहीं रह सकती; वैसे अक्षरधाम का मुक्त हो उसको ही यह बात सुपाच्य होती है और दूसरे को तो वमन हो जाती है किन्तु पाच्य नहीं होती ।’ (४१)
स्वामी ने बात कही कि ‘भगवान से जुडना या तो साधु से जुडना ।’ तब पूछा कि ‘भगवान से जुडा वह कैसे पता चले ? और साधु से जुडा हो वह कैसे पता चले ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘भगवान से जुडा हो उसको तो भगवान के चिह्न; चरित्र एवं स्वाभाविक चेष्टा पर दिनरात किये-सूने बिना रहा नहीं जाता और साधु से जुडा हो उसको तो दर्शन, सेवा एवं बातें अहोरात किये-सूने बिना रहा नहीं जाता तब समझना कि साधु से जुडा है और फिर बात कही कि ‘जितना साधु से जीव लगा हो उतना सत्संग है, और जितना जीव नहीं लगता है उतना कुसंग है ।’ तब पूछा कि ‘इस तरह साधु से जीव लगा हो तो भी वह सत्संग से क्यों बाहर निकल जाता है ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘उस तरह साधुमें जीव जुडा नहीं हैं अन्यथा बाहर नहीं निकलता । जैसे यह नींब (पैड) है वह जिस दिन हम मंदिर बना रहे थे उस दिन दो बेंत का था और एक ही आदमी उखाड फेंक दे उतना ही उसमें दम था । किन्तु आज तो पूरे गाँव के लोग मिले तो भी नहीं निकाल सकते । इस प्रकार कई दिन रहकर जिन्होंने सत्संग में जीव जोड रखा हो वह पंच विषय या तो कामादिक दोष द्वारा गिराने से सत्संग से नहीं गिरता ।’ ऐसा कहकर बोले कि
प्रसंगमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।
स एवं साधुषु कृतो, मोक्ष द्वारमपावृतम् ।।
वैसे जो रह सकते हैं उसके लिये मोक्ष का द्वार खुला है और वैसे नहीं रह सकते तो उसे, “मोक्ष मारगे दीधा कमाड, कडी जडी बारणे” (मोक्षमार्ग के द्वार बंद कर ताला मारा जैसी बात है) (४२)
फिर स्वामी ने बात कही कि गोपालानंद स्वामी ने सब साधुओं को कहा कि ‘ध्यान-मानसीपूजा किस प्रकार करते हो ?’ तब सब ने कहा कि ‘जहाँ महाराज बैठते थे वही स्थान पर ध्यान करते हैं और जहाँ बैठके भोजन करते थे वही स्थान पर मानसी पूजा में भोजन कराते हैं ।’ तब स्वामी ने कहा ‘कोई ऐसा ध्यान सीखे हैं कि जो तीन देह को जीत कर ध्यान करना ?’ तब सबने कहा कि ‘तीन देह किस तरह जीतना ?’ यह प्रश्न का उत्तर किया कि ‘ध्यान करने हेतु बैठे तब जीव-जंतु काटे तो भी शरीर को हिलने नहीं देना यानि स्थूल देह जीता गया समझना और गाढ संकल्प बंद करके ध्यान करना यानि सूक्ष्म देह जीता गया और निद्रा, आलस्य आदि आने न दें इसका कारण देह भी जीता गया । इस प्रकार तीन देह को जीत कर ध्यान करना ।’ तब सिद्धानंद स्वामी ने कहा कि ‘कारण शरीर तो काले पर्वत जैसा कठिन है । वह तो बहुत प्रयत्न करने पर जीता जाता है । वह जैसे कुएँ से काले पत्थर को काटना हो तो कील-हथौडे लेकर खोदे तब शाम तक एक टोकरा जितना पत्थर निकले उतना कठिन है ।’ तब स्वामी बोले कि ‘हम तो सुरंग दाग कर उडा देते हैं जिससे दो सौ गाडी पत्थर निकलता है । वह कैसे ? तो बातें रुपी मशीन से सुरंग करते हैं । भगवत् निश्चय रुपी बारुद भरते हैं । भगवान और भगवान के साधु की महिमा रुप अग्नि दागते हैं जिससे कारण शरीररुप जो अज्ञान स्वरुप काले पर्वत उसे तोडकर ब्रह्मरुप करके अक्षरधाम में भगवान की सेवा में रखते हैं, वह कुछ कठिन नहीं है ।’ (४३)
स्वामीने बात कही कि ‘सतयुग में मनुष्य को लाख वर्ष की आयु, और हजार साल की बीमारी और सौ साल तक हिचकियाँ खाय थे तब जीव जाता और आज तो इस ज्ञान के प्रभाव से तीसरी हिचकी में अक्षरधाम में चले जायघ ऐसा सुगम कर दिया है किन्तु जब तक अज्ञान है तब तक स्त्री, द्रव्य, बेेटे-बेटी, मकान-हवेली, राज्य समृद्धि और राज्य लक्ष्मी का माल माना है और सुख माना है । जैसे बच्चे मिट्टिके खिलौने बनाते हैं और ठीकरे की गाय बनाते हैं और दूर्वा के घोडे बनाते हैं, इस प्रकार सुख मानते वैसे यह भी सुख मानते हैं; किन्तु जब ज्ञान जोता है, तब सब मिथ्या हो जाय । जैसे भालप्रदेश (गुजरात का सूखा प्रदेश) में ब्राह्मण चला जा रहा था, उसे सामने अहीर मिला । उसने पूछा कि ‘महाराज खुश क्यों हुए हैं ?’ तब वह ब्राह्मण बोला कि ‘खुश न होउ ? दस कोस से चला आ रहा हूँ और जल नजदीक आया है, नहाएँगे, धोएँगे एवं कलेवा करेंगे ।’ तब वह अहीर बोला कि ‘फूलकर कुप्पा मत हो, जूता पहनकर ही चला आ रहा हूँ । वह पानी नहीं है, मृग मरिचिका हैं ।’ तब उस ब्रह्माण के सब मनोरथ झूठे हो गए । इस तरह जब ज्ञान होता है तब सब झूठा हो जाता है और जो मृग जैसे जीव विषय को सच्चे मानकर उनके पीछे दौडते रहते हैं । जैसे मृग मरीचिका जल को देखकर दौडते हैं जो मनुष्य हैं वह देखते हैं किन्तु उसको झूठा जानते हैं और सूर्य के रथ पर बैठनेवाले की दृष्टि में मरीचिका जल नहीं है । उसी तरह ज्ञानी है उनकी दृष्टि में तो प्रकृति का कोई कार्य आता ही नहीं है ।’ (४४)
स्वामी ने बात कही कि ‘सत्संग कब होता है ? तो जब बदरिकाश्रम एवं श्वेतद्वीप जैसा स्थान हो और मुक्तानंद स्वामी, गोपाळानंद स्वामी, स्वरुपानंद स्वामी और कृपानंद स्वामी जैसे बडे-बडे संतों का निरंतर संग हो और ब्रह्मा के कल्प पर्यन्त आयु हो, तब तक ज्ञान गोष्ठी करे तब सत्संग होता है किन्तु उसके बिना सही सत्संग नहीं होता ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि ‘गुरु कहाँ किए हैं ? और गुरु किये हो तो उनके गुण आना चाहिए न !
सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थोवत्सः सुधिर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
ऐसा किसी ने किया हैं ? जैसे भगवान ने गीता की गाय करके अर्जुन को बछडा बनाकर दूध पिलाया इस तरह किसी का दूध पिया हैं ? और जिस बछडे को उनकी माँ के दो आँचल दूध पिलाया हो तो वह (कैसे भी चढान में) फसक नहीं जाता वैसे लोभ, काम, रसास्वाद, स्नेह और मान उसमें जो फसक जाता हैं उसने गुरु ही नहीं किये हैं और गुरु किये होते तो फसकता नहीं । (४५)
स्वामी ने बात कही कि वरताल में चार पाटीदारने श्रीजी महाराज के सामने देखकर कहा कि ‘हे महाराज ! आपके चरणार्विंद की ओर देखते हैं तो आप पुरुषोत्तम दिखाई देते हैं और आपके शरीर की ओर देखते हैं तो आप मनुष्य जैसे दिखाई देते हैं ।’ तब श्रीजी महाराज ने कहा कि ‘वैराट ब्रह्मा है उन्होने उनके पचास वर्ष एवं डेढ पहर दिन चढने तक ये चरणारविन्द की स्तुति की; तब ये दोनों चरणार्विंद पृथ्वी पर आए हैं फिर आप तो चाहे वैसा समझें ।’ उन्होंने फिर पूछा कि ‘कई जगह सभा देखी है किन्तु इस प्रकार सब एकाग्र होकर आपको देख रहे हैं उसेें कैसे समझना ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘मैं सदगुरु रुपी सूर्य प्रकट हुआ हूँ और यह सब कमल खिले हैं वे मेरी ओर देख रहे हैं ।’ फिर वे पाटीदार सत्संग करके अपने घर गए । अैसे मुमुक्षुओं के लक्षण हैं । (४६)
और वरताल में एक साधु-बावा ने आकर कहा कि ‘हे महाराज ! आपने तो बहुत बुरा किया ।’ तब श्रीजी महाराज ने कहा कि ‘क्या बुरा किया ?’ तब वह बोला कि ‘स्त्री-पुरुष की सभा किसी ने अलग नहीं की थी, वह आपने की; यह बहुत बुरा किया;’ तब महाराज बोले कि ‘मैं अनिर्देश से आया हूँ अर्थात् अक्षरधाम से पुरुषोत्तम आया हूँ और घिनौना हूँ । सो मुझे सूग चढ गई है अन्यथा कोई अलग रहे ऐसे हैं नहीं ।’ अतः महाराज की सूग है तब तक भिन्न रहा जाता हैं नहीं तो मिल जाएँगे और फिर किसी ने पूछा कि ‘पुरुष का मन कहाँ रहता होगा ?’ फिर महाराज बोले कि ‘आज ही हमने विचार किया हैं, कि पुरुष का मन स्त्री के गुप्तांग में रहता है और स्त्री का मन पुरुष के गुप्तांग में रहता है ।’ इस प्रकार सब के अंतर खोल दिए । (४७)
स्वामी ने बात कही कि लाख मन लोहे का तवा धधक रहा हो उस पर पानी के एक-दो घडेडालें तो उससे वह ठंडा नहीं होगा और उसे ठंडा करना हो तो गंगाजी के अथाह जलमें ले जाकर रखें तो दस पंद्रह दिन तक हवेली जैसी बडी लहरें उठें, तब ठंडा होता है इस प्रकार पंच विषय द्वारा जीव धधक जाता है उस एक दो दिन सत्संग में रहकर मानते हैं कि मैं उसे ठंडा कर लूँ किन्तु वैसे ठंडा नहीं होता । उसे ठंडा करने के लिए दस पंद्रह दिन तो चढे हुए फेर उतारने में लग जाते हैं । फिर थोडी बहुत बात समझ में आती है फिर ठंडा होता हैं ‘और साधु के पास कौन आते हैं ?’ जो साधु के पास आते हैं उनको कोई कसर रहती नहीं है ऐसा कहकर बोले किः-
तीन ताप की जाल झर्यो, प्रानी कोई आवे ।
ताकुं शीतल करत तुरंत, दिल दाह मिटावे ।।
कही-कही सुन्दर बैन रैन, अज्ञान निकासे ।
प्रकट होत पहिचान, ज्ञान उर भानु प्रकासे ।।
वैराग्य, त्याग राजत विमल, भव दुख काटत जंतको ।
कह ब्रह्ममुनि यह जगत में, संग अनुपम संतको ।।
ऐसा सत्संग मिला है किन्तु बिना समागम किसीको समझ आती नहीं है और जब तक सत्पुरुष का संग हुआ नहीं है तब तक कुछ हुआ नहीं है । उस पर ब्रह्मानंद स्वामी का सवैया छंद बोले किः-
राज भयो कहा काज सर्यो, महाराज भयो कहा लाज बढाई ।
साह भयो कहा बात बढी, पतहास भयो कहा आन फिराई ।।
देव भए तोउ काह भयो, अहमेव बढ्यो तृष्णा अधिकाई ।
ब्रह्ममुनि सत्संग बिना सब, और भयो तो कहा भयोभाई ।।
इस प्रकार सत्पुरुष का संग नहीं किया हैं तब तक कुछ भी नहीं किया । (४८)
स्वामी ने सब धामों के मुक्तों के साथ प्रश्नोत्तर किया वे मुक्त जीत नहीं पाए; वह बात खुदने कही कि प्रथम तो जाने मैं बदरिकाश्रम में गया; तो बदरिकाश्रम के मुक्त प्रश्नोत्तर में मुझे जीत नहीं पाए । फिर मैं जाने श्वेतद्वीप गया तब वे श्वेतद्वीप के मुक्त भी जीत नहीं पाए । फिर मैं जाने वैकुंठ में गया तो वे वैकुंठ के मुक्त भी जीत नहीं पाए । फिर जाने आगे मैं गोलोक में गया तो वहाँ के मुक्त भी जीत नहीं सके । फिर मैं अक्षरधाम में गया तब वहाँ के मुक्तों के साथ प्रश्नोत्तर में मुझे बराबर ताल मेल हुआ । फिर गोपाळानंद स्वामी बोले कि ‘महाराज ने ऐसा बताया, कि अन्य धामों के मुक्तों का ज्ञान ऐसा है । इसलिए भगवान के स्वरुप संबंधी ज्ञान तो अक्षरधाम के मुक्तों के पास या तो यहाँ एकांतिक साधु के पास हैं, किन्तु अन्यत्र नहीं हैं, अन्यत्र तो दूसरा ज्ञान हैं ।’ (४९)
स्वामी ने बात कही कि जीव कहीं अटकता नहीं हैं किन्तु महाराज को पुरुषोत्तम समझने में रुकता है । जैसे गुजरात के घोडे है वह लंबे और ऊँचे बहुत किन्तु नाली देखकर रुक जाते है, सो उसे काट डाले तो भी कदम आगे नहीं उठाते एवं जूता सामने उठाए तो कहीं के कहीं भाग जाय ! और अलैया खाचर के घोडे को चढाई पे ले जाना हो और सामने दो सौ लडके घिरकर खडे हों उसके बीचों-बीच डाले तो भी कहीं रुकता नहीं । जैसे सामत पतंग (अलैया खाचर के पिता) पाँच सौ बख्तरबंद सैनिक खडे थे फिर भी उसमें से मुखिया के बेटे को मारकर चले आए । इसी तरह जो हो वे कहीं पर नहीं रुकते । उस पर छंद बोले किः-
तुरी वेगवंता जरी सा जठाणं, दियंता उडान जेहि मृगडाणं ।
सचे वागरागं नटा ज्युं नचेरी, दिनं एक होसे सबे खाक ढेरी ।।
इसी तरह जो हो वे कहीं भी रुकते नहीं । (५०)
स्वामी ने बात कही कि कैसा भी तरैया हो उसको भी भँवर डूबो देता है उससे निकल नहीं पाता और फिर दूसरा दृष्टांत हैं कि तीर से लंवग बींध डाले ऐसा निशानेबाज हो उनके तीर को भी वायु निशान चुका देता है । ठीक उसी प्रकार कैसा भी सांख्यवान या योगवान हो उसको भी स्त्री रुप पानी का भंवर वहतो डूबो देता है । उससे निकल नहीं पाते वैसे ही कैसा भी अंतर्दृष्टिवान हो उसकी भी वृत्ति को भी देशकालादिक आठ हैं वे डिगा देते हैं किन्तु अंतर्दृष्टि होने नहीं देते । उस पर श्लोक बोले कि :- संगं न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदंति या निरयद्वारमस्य ।।
ऐसे-ऐसे कई श्लोक बोलकर कहा कि ‘किसकी बुद्धि (देशकालादिक से) भ्रमित नहीं होती’ तो वहाँ कहता हूँ कि जोः-
कामादिभिविहीना ये सात्वताः क्षीणवासनाः ।
तेषां तु बुद्धिभेदाय क्वापि कालो न शक्नुते ।।
यह श्लोक बोलकर कहा कि ‘जिसने सात्त्विक (पुरुषों) का सेवन (समागम) किया हो और कामादिक दोष रहित हुआ हो और वासना कुंठित हो गई हो उसकी बुद्धि भ्रमित नहीं होती और दूसरे की तो भ्रमित हो जाती हैं, उसमें संशय नहीं ।’ (५१)
और विषय तो बंधन करे ऐसे हैं परंतु जब तक मोह है तब तक पता नहीं चलता क्योंकि, कैसे वैराग्यवान थे उसे भी बाँध लिये उनके नाम गोविन्द स्वामी तथा परमहंसानंद स्वामी तथा महाप्रभु नामक साधु इन आदि बहुतों को बांध लिये । उसका विवरण कि गोविन्द स्वामी को कैसा वैराग्य ? वे संसार का त्याग करके चले और रास्ते में एक राजा की दासी दस हजार रुपए का सोना लेकर बैठी थी । वह गोविन्द स्वामी का रुप देखकर बोली कि ‘यह सोना और मैं आपकी हूं ।’ तब स्वामी को विचार हुआ कि ‘प्रभु भजन करने निकलता है उसको सिद्धियाँ बाधा डालने आती है सो मुझे सिद्धि आई हैं ।’ फिर तो अपना एक कपडा उसके पास छोडकर कहा कि ‘बैठ... मैं बहिर्भूमि जाकर आता हूँ ।’ ऐसा कहकर चले गए एैसे वैराग्यवान । वे भी गंगामाँ के दाल, चावल व रोटी में बंध गए । उसको महाराज ने तीन रात और तीन दिन तक गाँव ही आने नहीं दिया । उतना चलाए तब हाथ जोडकर कहा कि ‘हे महाराज ! क्या करना हैं ?’ तब महाराज बोले कि ‘बैंगन और गाजर की माला गले में डालकर जेतलपुर जाकर भिक्षा माँगो । फिर कोई कहेंगे कि ‘गोविन्द स्वामी कुछ चाहिए ?’ तब कहना ‘हाऊ !’, ‘अरे गोविन्द स्वामी पागल हो गए ?’ तब कहना ‘हाऊ !’ ऐसा कराके स्वाभाव छुडवाए और परमहंसानंद स्वामी ने तो दो साल तक गौशाला में आसन किया । फिर वह आसन हुआ नहीं और तीन वृत्ति तो खुद सारस्वत पढे थे और खोजा के गुरु कहलाते थे । उसको भी ऐसा हुआ और एक साधु महाप्रभु नामक था वह भिक्षा की झोली में बंध गया उसको महाराज ने कहा कि ‘अब नरनारायण की झोलीरहने दो और लक्ष्मीनारायण की झोली से भिक्षा माँगो ।’ फिर वह वरताल आकर दो तीन दिन रहकर चला गया । इस तरह जीव बंध जाता है । (५२)
स्वामी ने बात कही कि अभी मुमुक्षुओं ने देह धारण किये हैं, सो महाराज को आना पडे इसलिए बिना आयु महाराजने मुझे (जीवित) रखा है । अतः हमें भी मुमुक्षुओं को महाराज का सुख देना पडता है और आयु तो अट्ठावन वर्ष से अधिक नहीं है, ऐसा जन्मकुंडली में लिखा था और उसके बिना शरीर टिका है; वह तो ये सोरठ प्रदेश के हरिभक्तों पर महाराज को अधिक स्नेह होने से उसे अपना सुख देने के लिए महाराजने मुझे रखा हैं । वह किसलिए ? तो अपना सुख दिया नहि गया, उसे अपना सुख देने हेतु अपना सर्वस्व था वह साधु एवं सत्संगी को कृष्णार्पण कर रखा है । वह मुक्तानंद स्वामी के कीर्तन में कहा है कि
ऐसे मेरे जन एकांतिक, तेहि सम और न कोई ।
मुक्तानंद कहत यूँ मोहन, मेरो सर्वस्व सोई ।।”
ऐसे साधु मिले हैं तब कमी रही है ? उस विषयक छंद बोले किः-
साचे संत मिले कमी का हू रही, साची सिखवे राम की रीतकुँ जी ।
परापर सोई परिब्रह्म है, तामें ठेरावे जीव के चित्तकुँ जी
दृढ आसन साध के ध्यान धरे, करे ग्यान हरिगुन गीतक ुँ जी ।
ब्रह्मानंद कहें दाता राम हू के, प्रभु साथ बढावत प्रीतकुँ जी ।।”
भगवान ऐसे साधु में रहकर अपना दर्शन देते हैं, बातें करते हैं, मिलते हैं और स्थिर दृष्टि से देखते हैं । इस तरह अनेक प्रकार से सुख देते हैं । इस तरह अनेक बातें करके सबको सुखी कर दिए । (५३)
स्वामी ने बात कही कि देखो न एक पुरुष (सूर्य) उदय हुआ तो पचास कोटि योजन में अंधेरा न रहा । अतः जैसे सूर्य की किरण से रात्रि का नाश होता हैं, वैसे सत्पुरुष की दृष्टि द्वारा तो किसी देशमें अज्ञान रहता ही नहीं और सत्पुरुष बिना तो जैसेः
सोलह कला शशि उग रही, तारागण समुदाय ।
सब गिरि दाह लगाइए, रवि बिन रात न जाय ।।”
ठीक उसी तरह अैसे साधु बिना अज्ञान नहीं जाता और अज्ञान गए बिना सुख नहीं होता, अरे ! हमें तो ज्यादा ज्ञान देकर ब्रह्मरुप करना है, किन्तु क्या करें ? जीव को गरज नहीं और फिर कारखाने (निर्माण कार्यों) को गले पकडे है । सो ज्ञान कहने हेतु फुरसद नहीं है, क्योंकि जैसे जैसे बडे जमींदार ने बैर को अगले समय तक टाल दिया । सो फुरसद मिलती नहीं और बैर लेने जाते नहीं । ठीक उसी तरह हमारे ज्ञान का भी हुआ, किन्तु अब तो साधु और सत्संगियों को मेरे पास रखकर बातें ही करनी है; जिससे ब्रह्मरुप हो जाय ऐसा कहकर बोले कि ‘(अभी) बातें सुन लेना; फिर ऐसा योग मिलना बहुत दुर्लभ है ; इसलिए समागम कर लेना ।’ ऐसा कहते हुए कहा किः ‘चेतन वाले चेतना, कहत हूँ हाथ बजाय ।’ हम तो ताली बजाकर कहते हैं, फिर कहेंगे कि कहा नहीं । (५४)
एक हरिभक्त ने पूछा कि ‘अन्य अवतारों ने वर्तमान धर्म का पालन कराया नहीं और कल्याण तो किया हैं और आज वर्तमान धर्म पालन करवाकर कल्याण करते हैं उसका क्या कारण है ?’ फिर स्वामी बोले कि ‘दूसरों ने कल्याण तो किया है किन्तु कारण शरीर के भावों को मिटाकर कल्याण नहीं किया और यदि कारण शरीर के भावों को मिटाकर कल्याण किया हो तो गोलोक और वैकुंठलोक में कलह किसलिए होता ? गोलोक में राधिकाजीने श्रीदामा के साथ झगडाकरते वैकुंठलोक में जय-विजय, सनकादिक के साथ कलह किया हैं वह ऐसा समझना कि वहाँ कारण शरीर मिटा नहीं होगा और महाराज तो कारण शरीर मिटाने के लिए साधु एवं नियमों को तो अक्षरधाम से लेकर यहाँ पधारे हैं । इसलिए साधु भगवान की उपासना करवाते हैं और नियमों द्वारा भगवान की आज्ञा पलवाते हैं; जिससे कारण शरीर का नाश हो जाता हैं ।’ उस पर कारियाणि का १२वाँ वचनामृत पढवाकर बोले कि ‘इस वचनामृत में महाराजने सिद्धांत कहे हैं, ईस वास्ते वर्तमान धर्म पालन करवा के कल्याण करते हैं; यही हेतु हैं ।’ फिर स्वामी ने बात कही कि एक दिन महाराज ने मुझे कहा कि ‘मंडल बनाओ !’ तब मैं कुछ नहीं बोला । फिर मेरे सामने देखकर कहा कि ‘पाँच साधु तो रखना, जिससे जीवों का कल्याण हो ।’ ऐसा कहकर कहने लगे कि ‘साधु तो दस रखें, बीस रखें, पचास रखें, सौ रखें और साधु तो दो सौ भी रखें ।’ फिर भी मैं कुछ नहीं बोला किन्तु अंत में ऐसा ही किया; उस बात का पता तो दूर दृष्टिवाले को चले, हम तो कुछ जाने नहि ? अरे ! एक दिन महाराजने जब मैं पूर्वाश्रममें था, तब वहाँ आकर कहा कि ‘क्या कर रहे हो ? और क्या करने हेतु आए हैं ! ब्रह्म तेज सूख गया है ।’ ऐसा कहकर अदृश्य हो गये, उस दिन से आज तक जीवों का कल्याण हो, ऐसा ही करते हैं और एक दिन महाराज को चार प्रश्न पूछे उसमें ‘एक तो ध्यान करना, दूसरा आत्मभाव से रहना, तीसरा रोगी की सेवा करना और चौथा भगवानकी बातें करना, इन चारों में से श्रेष्ठ कौन है वह बताइए ?’ फिर महाराज ने कहा कि ‘बातें ही श्रेष्ठ है ।’ उस दिन से मैं कथा-वार्ता रुपी बातें करने में लग पडा हूँ । सो रात-दिन अंत ही नहीं आने देता । जिससे जीव ब्रह्मरुप हो जाता हैं । (५५-५६)
स्वामी ने बात कही कि, कृपानंद स्वामी का ऐसा मत कि ‘गले में धधकती सब्बल डाले उतनी पीडा हो तो भी भगवान की आज्ञा भंग न करना एवं कृपानंद स्वामी ऐसा कहते कि स्वप्न में तो उपवास पडता ही नहीं और यदि पडे तो देह भी पड जाय । ऐसा खुद का निश्चय और विषय का डर तो कैसा रहे ? तो जैसे अल्पवचन में फर्क पडे तो महतवचन में फर्क पडने जैसा डर लगता । वह तो मैंने एक दिन अपनी ही आँखो से देखा । ऐसे कृपानंद स्वामी वह तो गंगाजी के जल जैसे हैं । वह जैसे गंगा का प्रवाह चार मील में बहता हो किसीसे हटाया पीछे नहि हटता ; उस तरह उनकी वृत्ति किसी से भी भगवान के स्वरुप से हटाई नहीं जाती । अतः एक दिन कृपानंद स्वामी की समाधि देखकर सच्चिदानंद स्वामीने कहा कि ‘हमें तो कृपानंद स्वामी जैसा हेत नहीं’ और वैसे हेतवाले तो गंगाजी जैसे और गोपालानंद स्वामी तो समुद्र जैसे । वे तो अनंत जीवों को सुखी कर दें, वैसे थे । ऐसा कहकर बोले कि ‘रघुवीरजी महाराज और गोपालानंद स्वामी जैसे थे, वैसे तो पहचान ही नहीं सके और आज जो साधु होगे उसे भी जानते नहि, उसे बहुत नुकसान होगा । क्योंकि अैसे बडे बिना महाराज का सिद्धांत कौन कहेंगे ? दूसरे तो अपनी समझ के अनुसार समझाएँगे, किन्तु (उसे) जैसा है वैसा समझाना नहीं आयेगा; यह सिद्धांत बात है । (५७)
फिर स्वामी ने बात कही कि ‘अधर्म सर्ग जब करत प्रवेशा । सुरनर मुनिमही नहि सुख लेशा ।’ ऐसा कहकर बोले कि ऐसे अधर्मसर्ग का प्रवेश किस बात से होता हैं ? तो जब एक दूसरे के मन अलग होतेे हैं, तब प्रवेश होता हैं और एक दूसरे में एकता हो तो अधर्म सर्ग प्रवेश करने नहीं आता । उस पर महाराज की बताई बात कही कि ‘एक राजा ने तीर का तरकश मँगाया और कहा कि ‘जो सबसे बलवान हो वह इस तीर के तरकश को (हाथ से) तोड डालो, तब जो सबसे बलवान था उससे भी तीर का तरकश टूटा नहीं । फिर तरकश में से एक तीर निकाल कर एक कमजोर से कमजोर था उससे कहा कि ‘इसे तोड डाल; तब उसने तुरंत तोड डाला । फिर उस राजा ने अपने बडे-बडे उमराव लोग को कहा कि यदि आप इस तीर के तरकश की तरह एकता रखोगे, तो कैसा भी बलवान शत्रु होगा तो भी आपका पराजय नहीं कर पाएगा और राज्य आबाद रहेगा ।’ यह दृष्टांंत देकर बोले कि ‘ये आप सब साधु, पार्षद, ब्रह्मचारी सब ऐसी ही एकता रखेंगें तो चाहे कैसा भी अंतःशत्रु का उपद्रव होगा, तो भी आपका पराजय नहीं कर पाएगा और ऐसे नहीं रहोगे तो अल्प दोष होगा तो भी सत्संग मे से बाहर निकाल देगा ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘देखो कइयों को तो जोड ही नहीं और कई तो पके हुए फोडे जैसे होते हैं, उसे तो कुछ कहा नहीं जाता । अतः इन दस मंडलो में जैसा जहाँ जिसको मिलता जुलता हो वैसे-वैसे सबको रहना ।’ इतनी बात कही फिर । ‘वासुदेव हरे’ हुआ तो भोजन करने पधारे । (५८)
स्वामी ने एक दिन बबूल पेड के सामने देखकर कहाः कि ‘जैसे रेत के कारण यह बबूल छिल गया है परन्तु वह लाख योजन समुद्र भरा है उनके जल से भी हरा भरा नहीं होता; क्योंकि रेत को लेकर छिल गया है ठीक उसी तरह विषयों से जीव छिल जाता है, परन्तु मीठे जल के महासमुद्र जैसा यह सत्संग है उसमें रहकर भी बिना ज्ञान नव पल्लवित ऌनहीं होता तथा लोक, भोग और ये देह इन तीनों से जीव ठ्ँठ गये हैं । ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा वैसे ही अच्छे गुण भी तीन प्रकार के कुसंग से नष्ट हो जाते है किन्तु जीव घोंसला छोडता नहीं हैं तब तक सुखी भी नहीं होता’ ऐसा कहकर बोले कि ‘यह जीव तो निरंकुश हो गया है किन्तु भगवान और बडे साधु की गर्ज तो रखता नहीं और अपने जीव की तो कुछ खबर ही नहीं हैं और जैसे पठान चढा बैल पर, हाथ में ली लकडी फिर कहता हैं कि ‘कई को मार गिराये और कई को नहिं ।’ ऐसा बकता है ! किन्तु अपनी औकात देखता नहीं हैं कि मारुँगा किसको । ऐसा कहकर बोले किः-
मोटा थावानुं मनमां रे दिल मां धणो डोड,
तेवा गुण नथी तनमां रे कां करे तुं कोड ?”
इस तरह जीव अपेक्षा तो बहुत रखता है किन्तु महीने तक अतिसार हो गया हो तो पता चले किन्तु आज तो गर्ज करवाते हैं ।’ इस प्रकार बहुत बात कही । (५९)
स्वामी ने बात कही कि जीव के सामने देखते तो मानते ही नहि ! क्योंकि मुमुक्षु हो उसे तो भगवान या भगवान के साधु बिना सुख या शांति होती ही नहीं । जैसे समुद्र में सीप रहता है परन्तु उसको समुद्र का पानी खपता नहीं है । वह तो जब स्वाति के बूँद गिरते हैं, तब उसको उछलकर ग्र्रहण करते हैं, वह मोती लाख रुपए का होता है, और यदि मंद श्रद्धा से ग्रहण करते है तो वह आधे लाख का होता है और जो नीचे पडा पडा ग्रहण करे तो वह जल्द ही फूट जाय ऐसा होता है ठीक वैसे ही मुमुक्षु हो वह श्रद्धा के साथ ये सत्पुरुष का मन, कर्म, वचन से समागम करे तो वह ब्रह्मरुप होता है ऐसा कहकर बोले कि : -
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ।।”-४०
और जिसको ऐसी श्रद्धा न हो उन्हें तोः-
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धिकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।।”
ऐसा भी क हा हैं । अतः सत्पुरुष का संग तो मन, कर्म, वचन, से ही करना । तब पूछा कि ‘मन, कर्म, वचन से संग कैसे करना?’ तब स्वामी बोले कि ‘कर्म माने देह से जैसे सत्पुरुष कहे वैसा करना और वचन से माने सत्पुरुष में अनंत गुण रहे हैं वह कहना । मन से माने तो बडे साधु के प्रति नास्तिक भाव नहीं आने देना तत्व र्एसा ही समझना कि बडे साधु का संग मन, कर्म, वचन से किया है ।’ इतनी ही बात करके बोले किः
संत समागम कीजे हो निशदिन संत समागम कीजे ।’
यह पद बोले तब आरती हुई और दर्शन के लिए पधारे । (६०)
स्वामी ने बात कही कि ज्यों-ज्यों ज्ञान होता जाय, त्यों-त्यों भगवान की महिमा समझ में आती जाय । उस पर दृष्टांत दिया कि एक ग्वाला जा रहा था वहाँ रास्ते में उसको एक हीरा मिला । उसे लेकर भैंस के गले में बाँधा । दूसरे किसीने उस भैंस को खरीदकर उस हीरे को दो सौ रुपए में बेच दिया । उस दो सौ वाले ने हजार में बेचा और जिसने हजार में लिया था उसने दस हजार में बेचा । वैसे ही वैसे चढते मूल्य पर लाख रुपए में बेचा गया फिर जिसने लाख रुपएमें लिया था उसने कोइ साहूकार था उसके पास जाकर कहा कि ‘यह हीरा आपको लेना है ?’ तब वह साहूकार हीरा देखकर बोला कि ‘सौ मजदूर सुबह से शाम तक जितना द्रव्य ले जाय उतना तुम्हारा ।’ तब सारे गाँव में हाहाकार मच गया ! कि ‘साहूकार ने खजाना लुटा दिया ।’ फिर उस साहूकार के बापने आकर पूछा कौनसी चीज ली ?’ तब उसने कहा कि ‘यह हीरा खरीदा हैं ।’ तब उसे देखकर कहा कि ‘वह तो तुमने मुफ्त में ले लिया ! एक दिन की भी कमाई नहीं दी,’ तब उस हीरे का ज्ञान उस साहूकार को अधिक हैं ऐसा कहना चाहिए (वह चंद्रकांतमणि था) । इस तरह भगवान के ज्ञान के विषय में भी समझना । ज्यों-ज्यों भगवान की महिमा का ज्ञान होता जाय, त्यों-त्यों महिमा अधिक से अधिक समझ में आती जाती हैं । उस पर सारंगपुर का सत्रहवाँ वचनामृत पढवाया । वहाँ ‘वासुदेव हरे..’ हुआ सो भोजन करने पधारे । (६१)
स्वामी ने बात कही कि पहले तो मुमुक्षु भगवान को ढूंढते थे और आज तो भगवान है वे मुमुक्षुओं को ढूंढते हैं । जैसे धातु ढूंढनेवाला धूल में से धातु ढूंढता है उसी प्रकार पामर और विषयी जीवों में से मुमुक्षुओं को ढूंढते हैं और जो मुमुक्षु हों उनको तो निरंतर ऐसा लगता है किः-
करुं उपाय हवे एहनो डोळी देश विदेशजी
कोई उगारे मुने काळ्थी सोंपु तेने आ शीशजी’
निरंतर ऐसी मनः स्थिति बनी रहे । फिर स्वामी ने बात कही कि धरमपुर वाले कुशळकुँवरबाई ने महाराज से प्रश्न पूछा कि ‘हे महाराज ! आपने पत्र में लिखा है कि ‘‘अनिर्देश से लिखाविंत स्वामी श्री सात सहजानंदजी महाराज;’’ वह अनिर्देश माने क्या ?’ तब श्रीजी महाराज बोले कि ‘यह आपका दरबार है, वह निर्देश है और यह आपका शहर है वह अनिर्देश है । पृथ्वी निर्देश है, वायु अनिर्देश है; जल निर्देश और तेज अनिर्देश एवं तेज निर्देश है, वायु अनिर्देश है; वायु निर्देश और आकाश अनिर्देश है । आकाश निर्देश और अहंकार अनिर्देश है; अहंकार निर्देश और महत्तत्व अनिर्देश है, महत्तत्व निर्देश और प्रधान पुरुष अनिर्देश है; प्रधान पुरुष निर्देश और प्रकृति-पुरुष अनिर्देश है, प्रकृति-पुरुष निर्देश एवं यह प्रकृति पुरुष से परे अक्षरधाम वह हमारा अनिर्देश है; वहाँ रहकर हम पत्र लिखवाते हैं ।’ इतनी बात कही तब तक (कुशळकुंवरबाई) मूर्ति के सामने देख रहे और वृत्ति पलटकर हृदय में उतारते गए, वह बात महाराज ने कही थी । स्वामी ने बात कही कि रघुवीरजी महाराज पृथ्वी पर रहे तब तक देश कालादिक का सुख बहुत रहा; क्योंकि महाराज उनके वश थे, सो जो चाहे वह करते और अब तो रघुवीरजी महाराज ने देह त्याग किया हैं उस दिन से दुःख बढता आ रहा है । क्यों ? तो जैसे बडी नदी की बाढ बढती जाती है उस तरह दुःख बढता आ रहा है । सो देखिए न, राजाओं का कैसा दुःख है, वह भेसजाल गाँववाले और जाइवा गाँववाले क्षत्रियों का न्याय अब तक किया ही नहीं तथा अखोदडवाले भगवदीय ब्राह्मण को मार डाला, उसका भी अन्याय किया, ऐसे दुःख हैं । इसलिए तो हमने महाराज से अरज रखी कि ‘रघुवीरजी महाराज जैसे दो आचार्य और गय राजा जैसा एक राजा करिए तो दो कोटि मनुष्य भगवान भजते हैं वे दस कोटि मनुष्य प्रभु भजे, ऐसा संकल्प किया हैं, तब सभी हरिभक्त बोले किः ‘हे महाराज ! आपने चाहा है तो अच्छा ही होगा ।’ (६२-६३)
फिर स्वामी ने बात कही कि हमारी समझ तो किसी का कह सकते नहीं, किन्तु आज थोडी बताएँगे ऐसा कहकर बोलेः कि, ‘बिना बताए तो ज्ञान होता ही नही है और ज्ञान हुए बिना मोह मिटता नहीं और जिसको बडों का ज्ञान आया हो उसको तो महाराज की मूर्ति बिना एवं अक्षरधाम बिना यहाँ से लेकर प्रकृति-पुरुष तक लघुशंका का व्यवहार दिखाई देता हो; उसमें मोह किसका हो ? सो ऐसा तो सर्वनिवासानंद स्वामी को हो गया, कि प्रकृति-पुरुष के कार्य में वृत्ति ही नहीं रही । उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि ‘महाराज की पूजा किन सामग्री से करुँ ?’ तब मैंने कहा कि ‘मूर्ति के सामने देखते रहो ।’ तब सर्वनिवासानंद स्वामी ने कहा किः ‘ऐसा ही कर रहा हूँ, किन्तु यदि ऐसी बात किसीको कहे तो हमारी खटिया उठाकर बरांदे में डाल दें ऐसा कठिन होता; परंतु बिना महाराज की मूर्ति बिना तो खाने की विष्ठा और पीने की लघुशंका ऐसा है किन्तु जब तक मोह है तब तक यह बात समझ में नहीं आती ।’ ऐसी बडों की समझदारी हैं । (६४)
स्वामी ने एक हरिभक्त को बुलाकर कहा कि ‘दर्शन कर लो और यह देह तो तुम्हारे लिए रखी है; क्योंकि काल तो चक्कर काट रहा है ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘ऐसे साधु से अलग हो जाय तब नरक में पडे ऐसा दुःख होना चाहिए वैसा दुख नहीं होता तब तक सत्पुरुष में जीव कहाँ लगा है ? और जब तक सत्पुरुष में जीव लगा नहीं तब तक लोक, भोग और देह उस रुप हो जाते हैं ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘हमे तो हजारों क्रिया करवानी पडती है; किन्तु आँख बंद करके खोले तब तक भी यदि भगवान की विस्मृति हो तो सिर फट जाय,’ तब पूछा कि ‘हजारों क्रियाएँ करवाने पर भी तेल धारावत् भगवान को अखंड वृति कैसे रख सकते हैं ?’ तब स्वामी बोले कि, ‘आपको आपके देह की विस्मृति होती हैं ?’ तब कहा कि ‘नहीं, महाराज !’ फिर स्वामी बोले कि ‘यदि आप अपने देह को भूल जाय तो मैं महाराज की मूर्ति भूल सकता हूँ । क्योंकि जैसे मछली है वह पानी में रहकर हलन-चलन आदि क्रीडा करती है, वैसे हम भी बोलते चलते और क्रियाएँ करते रहे किन्तु भगवान को छोडकर तो कोई क्रियाएँ करते ही नहीं हैं और जिसको यह बात समझ में न आए वह तो बडों में भी दोष देखता हैं; वह खुद भी हैरान होता है और दूसरों को भी हैरान करता है । ऐसी दोष दृष्टि वाला तो कोटि कल्प तक निवृत नहीं होता यह सिद्धांत बात है ।’
स्वामी ने बात कहीः कि इस जीव को मक्खी में से सूर्य बनाना है वह तो प्रयत्न बिना होगा ही नहीं । तब पूछा किः ‘मक्खी में से सूर्य कैसे हो ?’ फिर स्वामी बोले किः ‘यह सूर्य किसी समय मक्खी से ही हुआ है । वह तो पुरुषोत्तम की उपासना के बल से हुआ है और वह पुरुषोत्तम की उपासना से तो ईश्वर कोटि में पुरुषकोटि एवं ब्रह्मकोटि में सम्मिलित होता हैं । और वह उपासना और महिमा द्वारा तो अपने आप में परिपूर्णता एवं कृतार्थता मानी जाती है और उसके बिना तो अपने आप में अपूर्णता एवं कल्पना ये दो रह जाती है ।’ उस पर गंगाजलिया कुएँ का वचनामृत (ग.म.६८) पढवाकर बोले किः ‘श्रीजी महाराज को जैसे जाने वैसा स्वयं होता है तब उसको अपूर्णता एवं कल्पना कैसे रहेगी ? नहीं रहेगी और ऐसा जो भगवानके स्वरुप संबधी ज्ञान है वह तो किसी दिन नष्ट हो ऐसा नहीं है । वह तो जठराग्निसे, बिजजलीके अग्निसे या वडवानल रुपी अग्नि से या प्रलयकाल रुपी अग्नि से या महातेजरुपी अगिन से भी यह ज्ञान नष्ठो वैसा नही; वह ज्ञान तो अखंड एवं अविनाशी है । जैसे पुरुषोत्तम, अक्षरधाम एवं उनके मुक्त सनातन है; वैसे पुरुषोत्तम का ज्ञान भी सनातन है’ इतनी बात कही तब वासुदेव हरे हुआ, सो भोजन करने पधारे । (६५-६६)
स्वामी ने कारियाणी का आठवाँ वचनामृत पढवाकर बात कही किः ‘भगवान के स्वरुप का निरुपण करना किसी को आता नहीं; क्योंकि यह तो अतर्क्य बातें हैं; वह किसीके तर्क में आ आऐ है और नहीं हैं । और पहले जो आचार्य हो गए हैं उन्होंने भगवान के स्वरुप का निरुपण तो किया है किन्तु जैसे महाराज को निरुपण करना आता है, वैसे किसी को आता ही नहीं ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘फिर पढिए ।’ तब फिर पढा गया, तत्पश्चात् स्वामी बोले कि ‘सगुण-निर्गुण भाव तो महाराज ने इस मूर्ति का ऐश्वर्य कहा है और उन दोनों स्वरुप को धारण करनेवाला मूल स्वरुप तो यह प्रत्यक्ष जो बोलते हैं, वही है,’ ऐसा कहकर बोले कि ‘दस शास्त्री बडौदा के, दस शास्त्री सूरत के, दस शास्त्री अहमदाबाद के और दस शास्त्री काशी के ऐसे हजारों शास्त्री इकट्ठे हों, तब इस बात का प्रसंग निकलता या नहीं ?’ तब रुपशंकर ने कहा कि ‘नहीं महाराज ! ऐसा प्रसंग शास्त्रियों से नहीं निकलता ।’ तब स्वामी बोले कि ‘बात तो वही है, किन्तु लोक में शास्त्रियों का प्रमाण बहुत कहा जाय परंतु भगवान के स्वरुप का निरुपण करने का तो महाराज को आता है, या तो गोपालानंद स्वामी जैसे संत को आता है लेकिन अन्य किसी को आता नहीं है और यह बात तो कोटि ध्यान से भी अधिक हैं । क्योंकि शुकदेवजी ध्यान मे से निकलकर भगवान के स्वरुप का निरुपण करते थे ।’ इतनी बात कही तब आरती का घंट बजा वह दर्शन के लिए पधारे । (६७)
स्वामी ने बात कही कि हजार वर्ष का शमी पेड होता हैं, उसको संगरिया फलती हैं और पाँच साल का आम का पेड हो उसे आम आते हैं । वह तो दृष्टांत है उसका सिद्धांत यहः है कि चाहे कैसा शास्त्री हो या कैसा पुराणी हो किन्तु यदि प्रत्यक्ष भगवान और प्रत्यक्ष संत की पहचान न हो तो वह शमी के पेड जैसा है । उसके संग से शांति व सुख होता ही नहीं एवं जो विद्या भी बहुत न पढा हो और अवस्था भी थोडी हो, कुल भी ऊँचा न हो परंतु यदि यह प्रत्यक्ष भगवान में निष्ठा हुए ऐसे साधु कि पहचान हो जाए तो वह आम के पेड जैसा है और उनके संग से सुख होकर शांति हो जाती है । अतः जो शमी जैसा हो उसका संग नहीं करना एवं आम के पेड जैसा हो उसका संग करना ।’ उस पर श्लोक बुलवाकर कहा कि ‘बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण हो किन्तु यदि प्रत्यक्ष भगवान के साथ पहचान न हो, तो उसकी बजाय भगवान का श्वपच भक्त श्रेष्ठ हो, ऐसा कहा है । इसलिए भगवान के भक्त को पहचान के उसका संग करना, जिससे अंतिम जन्म हो जाय और ऐसे न मिले तो अनंत जन्म पैदा (संसृति) करे ऐसा कुसंग हैं ।’
स्वामी ने बात कही कि ‘गरीब को दुभाएगा वह भगवान सह नहीं सकेंगे, क्योंकि भगवान गर्वगंजन हैं वे किसी भी माध्यम से प्रकट होकर गर्व मिटा देंगे ।’ यह बात विस्तारपूर्वक करके बोले कि ‘हमें तो प्रभु भज लेना, कोई चिन्ता रखनी नहीं और जो धैर्यवान पुरुष है उनको तो ‘दुर्जनः किं करिष्यति?’ ऐसा कहकर बोले कि, ‘किसि दिन लंबकर्ण(गधे) की विजय हुई ही नहीं और होगी भी नहीं; क्योंकि काम, क्रोधादिक ने मार डाले है ईसलिये
जेनुं कामे कापी लीधुं नाक, लोभे लई लाज लीधी रे ;
जेने जीभे रोळ्ी कर्यो रांक, माने तो फजेती कीधी रे ।”
दूसरे तो जैसे मोर पंख फैलायेँ और पूँठ(गुदा) खुली होती हैं अैसा हैं और अैसे का संग तो जैसे आम से उठकर बबूल पर बैठने जैसी बात हैं ।
काउ कण खूटे बंदर बीड खाओ’ वैसे लोग होते हैं अतः;
देखी उपर नो आटा टोप, रखे मने मोटा मानो रे;
ए तो फोगट फूल्यो छे फोक, समजो ए संत शानो रे ?”
ऐसा कहकर बोले कि, आज हमको दुर्लभ लाभ मिला है अैसा जानना अतः मरने के बाद जिसे पाना था वे तो जीते जी ही मिल गए हैं किन्तु मरकर पाना है, ऐसा नहीं है । सो श्रीजी महाराज ने कहा कि, (म.प.४८) (६८)
देह धारण करने का कोई निमित्त तो नहीं है किन्तु कुछ भी कारण खडा करके ये संत के मध्य में जन्म धारण करुं ऐसी ही इच्छा करते हैं । यह तो हमें सिखाया है, किन्तु वैसी देह तो हमने ही धारण की हैं । अतः संत समागम कर लेना । (६९)
स्वामी ने वणथली गाँव की ओर जाते हुए बात कही कि ‘अब तो सब कार्य हो चुके हैं क्योंकि सुखपाल में बैठकर प्रभु भजन कर ले ऐसा कर रखा है और अब तो खुजलाकर दुःख खडा करे तो दुःख है । जैसे एक बंदर का घाव देखकर दूसरा बंदर उसको खुजलाकर पीडा देता है, उसी तरह आप भी खुजलाकर पीडा खडी करें तो होती है ।’ ऐसा कहकर कहा कि ‘देखो तो सही सर्वोपरी यह स्थान उसमें भी दुःख रहेंगे तब कौन सी जगह दुःख मिटेंगे; नहीं ही मिटेंगे । अतः जिसको सुखी होना है, उसको इसके समान कोई (स्थान) नहीं है ।’
ऐसा कहकर बोले कि ‘जब जब इस रास्ते पर चलते हैं तब तब भगवान की याद आती है क्योंकि बडे बडे साधु और महाराज बहुत बार इस रास्ते पर चले हैं ।’ तब काशीराम ने पूछा कि ‘जिसको महाराज का दर्शन हुआ हो उनको तो याद आती हैं, किन्तु जिसको दर्शन न हुआ हो तो उनको कैसे याद आएँ ?’ तब स्वामी बोले कि ‘हमें परोक्ष कहाँ हैं ? हमें तो मूर्ति और संत द्वारा प्रत्यक्ष हैं, वे दर्शन दे रहे हैं, बातें कर रहे हैं । इस प्रकार बहुत सुख देते हैं परंतु जब तक अज्ञान है, तब तक समझ में नहीं आता । यह सिद्धांत बात है ।’ (७०)
स्वामी ने बात कही कि मत पंथवालों ने लक्ष-लक्ष योजन के कुएँ खोद रखे हैं । सो उनमें से निकल ही न पाए । वह क्या ? तो देखिए न ! कूडा पंथ वालों ने जातिभ्रष्टता और व्यभिचार से ही मोक्ष माना है । क्या वह शास्त्र का मत है ? और वेदांतियों ने तो भगवान के आकार का खंडन करके विधि-निषेध को मिथ्या कर दिया । वह भी शास्त्र का मत नहीं है और शक्ति पंथवालों ने तो मांस और मदिरा से ही मुक्ति मानी है । वह क्या तो
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, पीत्वा पतति भूतले ।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ।।’
यह श्लोक बोलकर कहा कि ‘यह शास्त्र का सनातन मत नहीं है और नास्तिक मतवालों के अनुसार तो भगवान नहीं है और कर्म से ही मोक्ष माना है किन्तु भगवान द्वारा मोक्ष नहीं माना । वह तो जैसे बच्चे का नाल काटने के बजाय गला काट दिया, वैसा हुआ । उसे तो जैसे बिना अंक के शून्य और बिना पुत्र का पलना और बिना आत्मा का शरीर और एक मन में आठ पंचसेर की भूल, ऐसा है और इस जगत में बडे-बडे गुरु कहलाते हैं किन्तु उनके पाप तो मुख से कहे नहीं जाते । भक्ति का तो ऊपर से आडंबर और पाप का तो डर ही नहीं । वह क्या, तो माँ-बहन और बेटी-बहू की तो समझ ही नहीं, ऐसे पशु का धर्म रखते हैं ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘ये पंथ मात्र हाल ही में बिगडे हैं, ऐसा नहीं हैं, वे तो मूल से ही बिगडे हुए हैं ।’ ऐसा कहकर कहा कि ‘यह मलद्वार है वह छोटा था, तब कहीं शुद्ध था क्या ?’ तब रुपशंकर ने कहा कि ‘नहीं महाराज ! वह तो पहले से ही बिगडा हुआ है ।’ तब स्वामी बोले कि ‘बातें तो निरंतर करते हैं, लेकिन आज तो टीका-टिप्पणी की है ।’ तब सब ने कहा कि ‘ऐसा तो समझ में ही नहीं आया था ।’ (७१)
फिर स्वामी ने कल्याण भाई से बात कही कि ‘आज सत्संग की महिमा तो मुख से कही न जाय और यदि कहे तो मानी न जाय (ऐसी हैं)।’ तब कल्याण भाई ने कहा कि ‘सत्संग की महिमा तो बहुत है ।’ तब स्वामी बोले कि ‘पूर्व में बडे-बडे अवतार हुए हैं, उनसे तो यह सत्संग के समाधिनिष्ठ लडके के सामने देखते हैं तब तो उसमें महाराज के प्रताप से करोड-करोड गुना अधिक दैवत दिखाई देता है । तो फिर बडे-बडे हरिभक्त और बडे-बडे साधु और महाराज की महिमा कहें ही कैसे ? सो महाराज ने वचनामृत में कहा कि मैं, अपनी महिमा का पार पाता नहीं हूँ तो दूसरे कैसे पाएँगे ।’ ऐसा कहकर बोले कि
मद्भयात् वाति वातोऽयम् सूर्यस्तपति मद्भयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ।।(४६)
यह श्लोक बोलकर कहा कि ‘इसमें जोर तो बहुत बताया किन्तु मोक्ष तो एक माता का ही किया हैं । यूँ जानने से यह श्लोक किसी और के बल का दिखाई देता है, अपने बल का नहीं ।’ ऐसा कहकर बोले कि ‘आज तो सत्संग में स्त्रीयाँ होगी वह भी हजारों जीवों का कल्याण करेगी, तो दूसरे की तो बात ही क्या कहना ?’ इस प्रकार कई बातें करके स्नान करने के लिए चले । (७२)
स्वामी ने एक भक्त की ओर देखकर बात कही किः ‘भगवान और बडे संत जब उदास हो, तब ऐसा समझना कि अब मुमुक्षु के कर्म फूटे !’ ऐसा कहकर बोले किः ‘हम सब तो बहुत साथ रहें और बहुत समागम किया और अब तो देशकाल की बजह से साथ में रहा जाय या न रहा जाय, किन्तु अब तो अक्षरधाम में रहा जाय ऐसा स्वभाव करना सीखेंगे तो एक क्षण मात्र भी अलग नहीं ऐसा समझना ।’ ऐसा कहकर फिर बोले कि, ‘अक्षरधाम का मुक्त हो और स्वाधीन होकर यहाँ आया हो और स्वतंत्र होकर जा सके ऐसा हो, किन्तु उन्हे सत्पुरुष का संग न हो और कुसंग करता हो तो जडसंज्ञा को पा जाता हैं और यदि उन्हें सत्पुरुष का संग हो तो पूर्व का ज्ञान है वह प्रकट हो जाता है, अन्यथा तो जैसे इस देश के बनिये परदेश जाते हैं, वहाँ की काफिरियोँ से शादी करके रह जाते हैं; उसी तरह अक्षरधाम के मुक्त हो, वे भी इस लोक में बंध जाते हैं । विज्ञानदासजी को अक्षरधाम की समाधि होती थी और तीनों अवस्था में निरंतर महाराज को देखते थे, तो भी तीन घर बसाए, किन्तु अपने आप उस बंधन से निकल नहीं पाए लेकिन जब गोपालानंद स्वामी ने छुडाए तब छूटे; ऐसा यह लोक है । इसलिए तो महाराज तो अक्षरधाम एवं मुक्तों के साथ ही यहाँ पधारे हैं अतः समागम कर लेना; जिससे महाराज की सेवा में रह सके । अन्यथा तो घर-घर काफिरियाँ हैं । उनकी सेवा में रहा जाएगा ।’ ऐसा कहकर बोले किः-
कठण वचन कहुँ छुं रे, कडवां कांकचरुप,
दरदीने गोळी दउं छुं रे, सुख थावा अनुप ।
खरे मने जे जन खावशे रे, आवुं जे औषध,
जीरण रोग तेनो जावशे रे, सुखी थाशे सद्य ।”
इतनी बात कहके धर्मशाला में आसन (निवास) पे पधारे । (७३)
स्वामी ने बात कही किः ‘एक दिन महाराज ने मुझसे कहा कि, “आप कहें तो दुष्काल करें और आप कहें तो प्लेग लाएँ ।” तब मैंने कहा कि ‘दुष्काल मत करें, प्लेग लाइए ।’ तब रघुवीरजी महाराज ने कहा कि, ‘दोनों की ‘ना’ कहना नही चाहिए ! तब मैं ने कहा कि, ‘महाराज की मर्जी के अनुसार ही कहना चाहिए, किन्तु बिना मर्जी तो नहीं कह सकते !’ फिर बोले कि एक दिन मैंने महाराज से कहा कि ‘आप के घर में अँधेरा क्यों है ? कि किसान कमा-कमाकर मर जाता है उसे खाना मिलता नहीं है; और व्यापारी को पसीना आता नहीं हैं तो भी खाना मिलता है और किसान भूखे मरते हैं !’ उस दिन से महाराज की दृष्टि हुई है कि, किसान के घर में हो तब तक महँगा और व्यापारी के घर में जाय तब सस्ता हो जाता है और उस दिन से खाना मिल रहा है । सो देखाना रुई के गठर ले जाते हैं और दो कोटि सोने की मुहरें साबरमती के किनारे पर डाल देते हैं, ऐसा (सुख) कर दिया है किन्तु प्रभु भजन करने के लिए अवकाश नहीं है अरे । पहले हमारे (भाग्यमें) ऐसा कहाँ था ? और अब तो रात्रि प्रलय तक ऐसा ही होगा । परंतु रघुवीरजी महाराज ने चार महीने तक साधुओं को रखकर कथा करवाई उसमें (सत्संगकी) बातें ही करवाईं ऐसा कोई करेंगे भी नहीं, करवाएँगे भी नहीं । ऐसा माया का मोह हैं ।’ ऐसा कहकर फिर बोले किः ‘हमने साधुओं को रखकर दो महीने तक बातें और प्रश्न-उत्तर करवाए किन्तु कइयों को तो पता ही नहीं कि स्वामी क्या कहते हैं और क्या होना है ? और हमने तो अवकाश ही नहीं छोडा है ।’ ऐसा कहकर बोले किः-
कियां बालपणानी रमत, कियां पामवो सिद्धुनो मत’
इस बात का तो पता ही नहीं है कि क्या करने आए हैं और क्या हो रहा है ?’ इतनी बात करके बायीं ओर करवट ली और सब कीर्तन गाने लगे । (७४)
इति श्री सहजानंद स्वामी के शिष्य गुणातीतानंद स्वामी उपदेशित बातों में भगवान का सर्वोपरी निश्चय एवं माहात्म्य का प्राधान्य कहा यह, विषयक द्वितीय प्रकरण समाप्त ।
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।।श्रीराधाकृष्ण विजयतेतराम।।