वैष्णव शैव
।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।
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वास्तव में त्रिमूर्ति क्या है?
वस्तुतः ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की एक साथ परिकल्पना ही त्रिमूर्ति है। जैसा कि हमें ज्ञात है कि हिन्दू धर्म में सबसे ज्यादा महत्व इन्हीं तीनों भगवानों का है तथा त्रिमूर्ति, सारे भगवान एक हैं अतः तीनों को साथ में देखने की परिकल्पना है। यह संप्रत्यय वर्षों पूर्व का है तथा इसको समझने और पेश करने की पद्धति में हल्का-फुल्का बदलाव ज़रूर आया है पर मूल प्रयोजन वही है।
त्रिमूर्ति की परिकल्पना का प्रारम्भ 2/14
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त्रिमूर्ति की परिकल्पना का प्रारम्भ
यह भारतीय इतिहास के सुनहरे युग यानि गुप्त साम्राज्य के काल के आसपास की बात है जब शैव और वैष्णव पंथों की लड़ाई अपने चरम पर थी। उसी समय इस तरह की परिकल्पना का आरम्भ हुई जो समय- समय पर निरंतर इसी भावना से प्रायोजित हुई। शैव और वैष्णव पंथों के आपसी द्वेष और हिंसा को खत्म करना ही त्रिमूर्ति का असली उद्देश्य था।
एकेश्वरवाद की ओर 3/14
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एकेश्वरवाद की ओर
जैसा कि हम जानते हैं ईश्वर एक है किंतु तत्कालीन समय में शैव व वैष्णव पंथों के वर्चस्व को लेकर हिंसात्मक अभिवृत्ति के कारण होने वाले भारी रक्तपात को रोकना अत्यंत ज़रूरी था। त्रिमूर्ति सिद्धांत मूलतः तभी उत्पन हुआ। यानि इस सिद्धांत की उत्पत्ति के पश्चात एकेश्वरवाद की तरफ रुझान आरंभ हुआ तथा बहुदेववाद का ह्रास होने लगा।
ब्रह्मा: सृष्टि के रचयिता 4/14
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ब्रह्मा: सृष्टि के रचयिता
आदिकाल में सृष्टि रचना के पूर्व संसार अंधकारमय था। सनातन परमब्रह्म्र परमात्मा ने सगुण रूप से सृष्टि की रचना की एवं समस्त ब्रम्हाण्ड का निर्माण हुआ। स्थूल सृष्टि की रचना पंच महाभूतों यथा आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी से हुई। विराट पुरुष नारायण भगवान के संकल्प से ब्रम्हा जी की उत्पत्ति हुई। पुराणों के अनुसार क्षीर सागर में भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रम्हा जी प्रकट हुए।
ब्रह्मा का महत्व 5/14
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ब्रह्मा का महत्व
ब्रह्मा को जीव जगत की रचना करने का आदेश हुआ । घोर तपस्या के पश्चात उन्होंने ब्रम्हाण्ड की रचना की । पुराणों के अनुसार ब्रम्हा के मानस पुत्रों में मन से मारीचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगीरस, कान से पुलत्स्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ट, अन्गुष्ट से दक्ष, छाया से कन्दर्भ, गोंद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार पंचवर्षीय बालक के रूप में( अभी तक ये पाँच वर्ष के ही हैं) शरीर से स्वयंभू मनु, ध्यान से चित्रगुप्त इत्यादि का जन्म हुआ था।
त्रिमूर्ति में विष्णु6/14
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त्रिमूर्ति में विष्णु
हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो भगवान शिव और ब्रह्मा को माना जाता है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन सांप के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
देवों के देव महादेव7/14
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देवों के देव महादेव
शिव को देवों के देव कहते हैं,। इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। शिव हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं । वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के स्रोत हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिकतर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है।
भोलेनाथ का महत्व 8/14
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भोलेनाथ का महत्व
शिव के जन्म का कोई बड़ा प्रमाण नही है, वह स्वयंभू हैं तथा सारे संसार के रचयिता हैं। उन्हें संहारकर्ता भी कहा जाता है। उनके सिर पर चंद्रमा तथा जटाओं में गंगा का वास है। विश्व की रक्षा के लिये उन्होंने विष पान किया था इसलिये उन्हें नीलकंठ कहा जाता है। गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है।
त्रिमूर्ति के आधार हैं शिव 9/14
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त्रिमूर्ति के आधार हैं शिव
भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्र रूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।
स्वर्णिम युग के समय धर्म तथा अंतर कलह10/14
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स्वर्णिम युग के समय धर्म तथा अंतर कलह
जैसा कि हमें ज्ञात है, गुप्त काल हमारे प्राचीन इतिहास का स्वर्णिम युग था। इसी वक़्त विविध पंथों में लड़ाई-झगड़े और अंतरद्वन्द की परिस्थिति से बचने के लिए मुख्यतः तीन अवधारणाएं विकसित हुईं जिसमें त्रिमूर्ति के अलावा हरिहर एवं अर्धनारीश्वर की परिकल्पनाएं प्रमुख हैं।
हरिहर संकल्पना 11/14
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हरिहर संकल्पना
उल्लेखनीय है कि 300 ईस्वी के आसपास शैव और वैष्णव पंथों में पंथ की श्रेष्ठता को लेकर आए दिन अंतर्कलह हुआ करते थे। धर्म का ऐसा विकृत रूप नागरिक समाज को बेहद हानि पहुंचा रहा था। इसीलिए शैव-वैष्णव अनुयायियों के मध्य शांति स्थापित करने के उद्देश्य से हरिहर की संकल्पना का उदय हुआ। हरि अर्थात विष्णु यानि पालनहार तथा हर अर्थाता शिव अथवा संहारक।
अर्धनारीश्वर की परिकल्पना 12/14
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अर्धनारीश्वर की परिकल्पना
उसी दौर में एक और मुख्य परिकल्पना उभर कर सामने आई थी – अर्धनारीश्वर। आज के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए तो पुरुष-- महिला के बीच संघर्ष आम बात है। उस दौर में भी ऐसा ही हुआ था जिसका प्रतिवाद करने हेतु पार्वती-शिव की एक साथ परिकल्पना अर्धनारीश्वर कहलाती है। अर्धनारीश्वर स्वरूप के द्वारा प्रकृति व पुरुष के ऐक्य की सृष्टि की गई। इस संकल्पना के बाद स्त्रियों की पतनशील सामाजिक स्थिति का अंशतः उत्थान संभव हुआ।
कालिदास की रचनाओं में दृष्टांत 13/14
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कालिदास की रचनाओं में दृष्टांत
गुप्त युग के मुख्य कवि कालिदास की कई रचनाओं में भी इन परिकल्पनाओं का स्वरूप देखने को मिलता है। यही वह दौर था जब मंदिर निर्माण का क्रम आरंभ हुआ। हरिहर, अर्धनारीश्वर तथा त्रिमूर्ति पर आधारित कई मूर्तियां बनीं तथा काव्यात्मक धार्मिक साहित्य की रचना आरंभ हुई।
प्रासंगिक हैं त्रिमूर्ति, अर्धनारीश्वर तथा हरिहर की संकल्पनाएं 14/14
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प्रासंगिक हैं त्रिमूर्ति, अर्धनारीश्वर तथा हरिहर की संकल्पनाएं
ब्रह्मा विष्णु महेश सब एक हैं तथा धर्म के नाम पर हिंसा सिर्फ गलत ही नहीं विवेकहीनता भी है। आपसी वैमनस्य हटा कर धार्मिक एकता स्थापित करना ही सभी पंथों की मूलभूत लक्ष्य रहा है। इसीलिए त्रिमूर्ति, अर्धनारीश्वर तथा हरिहर की संकल्पनाएं आज भी उतनी प्रासंगिक हैं जितनी अपने उद्भव काल में थीं।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई
अपरोक्षानुभूति 1.84
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति
साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई
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जब कुंभ में नागाओं ने 1,800 साधुओं को उतारा था मौत के घाट
कुंभ का इतिहास बहुत प्राचीन है। मानव सभ्यता के इतिहास में कुंभ से कई कहानियां जुड़ी हैं। ऐसी ही एक कहानी है नागाओं द्वारा साधुओं की हत्या की।
उज्जैन। सिंहस्थ से पेशवाई में जहां एक ओर भव्यता और आस्था उमड़ी। वहीं इसमें अखाड़ों का शक्ति प्रदर्शन भी देखने को मिला। अब सिंहस्थ में भी अखाड़ों के बीच शक्ति प्रदर्शन और रंगबाजी का नया अध्याय लिख रहा है। उज्जैन की जनता ने पेशवाई की भव्यता में अखाड़ों द्वारा एक दूसरे को चुनौती देते देख लिया है।
गौरतलब है कि अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष पद को लेकर शैव और वैष्णव अखाड़े आज भी सामने हैं। शैव अखाड़ों द्वारा महंत नरेंद्र गिरी को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद का अध्यक्ष माना जा रहा है वहीं दूसरी ओर वैष्णव अखाड़े स्थानीय महंत ज्ञानदास को अखाड़ा परिषद का अध्यक्ष मानते हैं।
- सदियों से कुंभ के शाही स्नान में वर्चस्व की खातिर भिड़ते रहे हैं अखाड़े -1954 में अखाड़ा परिषद का गठन होने के बाद सुधरे हालात
मल्ल युद्ध का मूल
संतों के खूनी संघर्ष की सबसे बड़ी घटना वर्ष 1760 में हरिद्वार कुंभ में संतों के बीच संघर्ष में नागा संन्यासियों ने 1800 वैष्णव संन्यासियों को मार दिया था। अखाड़ों के विवाद खत्म करने के लिए अखाड़ा परिषद् गठित हुआ, जिसकी व्यवस्थाओं को अब सभी अखाड़े मान्यता देते हैं। वृन्दावन धाम के स्वामी शिव राम दास कहते हैं कि निर्वाणी अखाड़े और शंभू दल की कभी नहीं बनी।
कथा रक्त संघर्ष की शाही स्नान में अखाड़ों के संघर्ष की आशंका बनी ही रहती है। हरिद्वार में वर्ष 1310 के कुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच खूनी संघर्ष हुआ था।
वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गईं। वर्ष 1760 में शैव संन्यासी व वैष्णव बैरागी, तो 1796 के कुंभ में शैव संयासी और निर्मल संप्रदाय भिड़े। 1998 में हर की पौड़ी में अखाड़ों का संघर्ष हुआ।
Source:-
https://m.patrika.com/astrology-and-spirituality/when-nagas-killed-1800-sadhus-in-kumbh-2233568/
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