शिक्षापत्री मूल

।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।


                   प्राप्ति



क्या आप सुख चाहते है ?

क्या आप शांति की खोज में हैं ?

क्या आप आदर्श जीवन जीना चाहते हैं ?

क्या आप सपरिवार सुख-संपन्न होना चाहते हैं ?

तो आइए

स्वयं भगवान श्री स्वामिनारायण

अभय वरदान सह विश्वास दिलाते हैं:



जो पुरुष व स्त्रियाँ इस शिक्षापत्री के अनुसार आचरण करेंगे (बर्तेंगे) वे निश्चय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि को प्राप्त अवश्य करेंगे।।२०६।।

शिक्षापत्री
वामे यस्य स्थिता राधा श्रीश्च यस्यास्ति वक्षसि ।

वृन्दावनविहारं तं श्रीकृष्णं हृदि चिन्तये ।।१।।

अपने सत्संगीजनों के प्रति शिक्षापत्री लिखते हुए भगवान श्री सहजानंद स्वामी, प्रथम अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण भगवान का ध्यान रुप मंगलाचरण करते हैं-

जिनके वामभाग में राधिकाजी विराजमान हैं और जिनके वक्ष: स्थल में लक्ष्मीजी विद्यमान हैं तथा जो वृन्दावन विहारी हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण का हम अपने हृदय में ध्यान करते हैं ।।१।।



लिखामि सहजानन्द स्वामी सर्वान्निजाश्रितान्‌ ।

नानादेशस्थितान्‌ शिक्षापत्रीं वृत्तालयस्थित: ।।२।।

वडताल गाँव में रहे हुए हम (सहजानन्द स्वामी) विभिन्न देशों में निवास करनेवाले हमारे आश्रित सभी सत्संगीजनों के प्रति शिक्षापत्री लिखते हैं ।।२।।



भ्रात्रो रामप्रतापेच्छारामयोर्धर्मजन्मनो: ।

यावयोध्याप्रसादाख्यरघुवीराभिधौ सुतौ ।।३।।

(हमारे पिता) श्री धर्मदेव से हैं जन्म जिनका, ऐसे जो हमारे भाई रामप्रतापजी तथा इच्छारामजी, उनके पुत्र अयोध्याप्रसादजी तथा रघुवीरजी (जिन्हें हमने अपने दत्तक पुत्र मानकर सभी सत्संगीजनों के आचार्य पद पर स्थापित किये हैं।) ।।३।।



मुकुन्दानन्दमुख्याश्च नैष्ठिका ब्रह्मचारिण: ।

गृहस्थाश्च मयारामभट्टाद्या ये मदाश्रया: ।।४।।

तथा हमारे आश्रित जो मुकुंदानन्दजी आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारी एवं हमारे आश्रित मयाराम भट्ट आदि जो गृहस्थ सत्संगी ।।४।।



सधवा विधवा योषा याश्च मच्छिष्यतां गता: ।

मुक्तानन्दादयो ये स्यु: साधवश्चाखिला अपि ।।५।।

तथा हमारे आश्रित जो सधवा तथा विधवा स्त्रियाँ तथा मुक्तानन्दजी आदि सर्व साधुजन ।।५।।



स्वधर्मरक्षिका मे तै: सर्वैर्वाच्या: सदाशिष: ।

श्रीमन्नारायणस्मृत्या सहिता: शास्त्रसम्मता: ।।६।।

वे सभी, अपने धर्म की रक्षा करनेवाले, शास्त्रसम्मत एवं श्रीमन्नारायणकी स्मृति सहित हमारे आशीर्वाद बाँचे ।।६।।



एकाग्रेणैव मनसा पत्रीलेख: सहेतुक: ।

अवधार्योऽयमखिलै: सर्वजीवहितावह: ।।७।।

और इस शिक्षापत्री लिखने का जो उद्देश्य है, उसको सर्व एकाग्र मन से धारण करें। यह शिक्षापत्री जो हमने लिखी है, वह सर्व जीवों का हित करनेवाली है ।।७।।



ये पालयन्ति मनुजा: सच्छास्त्रप्रतिपादितान्‌ ।

सदाचारान्‌ सदा तेऽत्र परत्र च महासुखा: ।।८।।

श्रीमद्‌ भागवत पुराण आदि सत्शास्त्रों द्वारा जीवों के कल्याण के लिए प्रतिपादित अहिंसा आदि सदाचारों का जो लोग पालन करते हैं, वे इस लोक में तथा परलोक में उत्तम सुख को प्राप्त करते हैं ।।८।।



तानुल्लङ्घयात्र वर्तन्ते ये तु स्वैरं कुबुद्धय: ।

त इहामुत्र च महल्लभन्ते कष्टमेव हि ।।९।।

और उन सदाचारों का उल्लंघन करके जो मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं, वे कुबुद्धिवाले हैं और इस लोक में तथा परलोक में निश्चय ही वडे कष्टको प्राप्त करते हैं ।।९।।



अतो भवद्‌भिर्मच्छिष्यै: सावधानतयाऽखिलै: ।

प्रीत्यैतामनुसृत्यैव वर्तितव्यं निरन्तरम्‌ ।।१०।।

इसलिए हमारे शिष्य, ऐसे आप लोग, प्रीतिपूर्वक इस शिक्षापत्री के अनुसार ही निरंतर सावधान होकर आचरण करें;परंतु इस शिक्षापत्री का उल्लंघन कदापि न करें ।।१०।।

कस्यापि प्राणिनो हिंसा नैव कार्याऽत्र मामकै: ।

सूक्ष्मयूकामत्कुणादेरपि बुद्धया कदाचन ।।११।।

अब हम उस आचरण की रीति बतलाते हैं कि जो हमारे सत्संगी हैं वे कदापि किसी भी जीव-प्राणिमात्र की हिंसा न करें और जान बूझकर जूँ, खटमल, चांचड आदि सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा कभी न करें ।।११।।



देवतापितृयागार्थमप्यजादेश्च हिंसनम्‌ ।

न कर्तव्यमहिंसैव धर्म: प्रोक्तोऽस्ति यन्महान्‌ ।।१२।।

और देवयाग तथा पितृयाग के लिए भी बकरे, हिरन, खरगोश, मछली आदि किसी भी जीव की हिंसा न करें, क्योंकि सभी शास्त्रों में अहिंसा को ही परम धर्म कहा गया है ।।१२।।



स्त्रिया धनस्य वा प्राप्त्यै साम्राज्यस्यापि वा क्वचित्‌ ।

मनुष्यस्य तु कस्यापि हिंसा कार्या न सर्वथा ।।१३।।

और स्त्री, धन तथा राज्यकी प्राप्ति के लिए भी किसी मनुष्य की हिंसा तो किसी भी प्रकार से कदापि न करें ।।१३।।



आत्मघातस्तु तीर्थेऽपि न कर्तव्यश्च न क्रुधा ।

अयोग्याचरणात्‌ क्वापि न विषोद्बन्धनादिना ।।१४।।

आत्महत्या तो तीर्थस्थान में भी न करें और क्रोधावेश में भी आत्महत्या न करें, यदि कोई अनुचित आचरण हो जाय तो उससे खिन्न होकर भी आत्मघात न करें तथा जहर खाकर, गले में फंदा डालकर, कुएँ में गिरकर या पर्वत पर से कूदकर, इत्यादि किसी भी प्रकार से आत्महत्या न करें ।।१४।।



न भक्ष्यं सर्वथा मांसं यज्ञशिष्टमपि क्वचित्‌ ।

न पेयं च सुरामद्यमपि देवनिवेदितम्‌ ।।१५।।

जो माँस है वह यज्ञ का शेष हो तो भी, आपत्काल में भी कभी न खायें और तीन प्रकार की शराब तथा ग्यारह प्रकार का मद्य देवता का नैवद्य होने पर भी न पीयें ।।१५।।



अकार्याचरणे क्वापि जाते स्वस्य परस्य वा ।

अङ्गच्छेदो न कर्तव्य: शस्त्राद्यैश्च क्रुधापि वा ।।१६।।

अपने से कुछ अनुचित आचरण हो जाने पर अथवा किसी अन्य से अनुचित आचरण हो जाने पर क्रोधावेश में शस्त्रादि से अपने अंग का तथा दूसरे के अंग का छेदन न करें ।।१६।।



स्तेनकर्म न कर्तव्यं धर्मार्थमपि केनचित्‌ ।

सस्वामिकाष्ठपुष्पादि न ग्राह्यं तदनाज्ञया ।।१७।।

हमारे सत्संगी धार्मिक कार्य के लिए भी कभी चोर का कर्म न करें, तथा दूसरों की मालिकी के काष्ठ पुष्प आदि चीजें भी उनकी (मालिक की) आज्ञा के बिना न लें ।।१७।।



व्यभिचारो न कर्तव्य: पुम्भि: स्त्रीभिश्च मां श्रितै: ।

द्यूतादिव्यसनं त्याज्यं नाद्यं भङ्गादिमादकम्‌ ।।१८।।

हमारे आश्रित पुरुष तथा स्त्रियाँ व्यभिचार न करें, जुआ आदि व्यसनों का त्याग करें, भँग, चरस तथा अफीम आदि नशीली चीजों का पान व भक्षण भी न करें ।।१८।।



अग्राह्यान्नेन पक्वं यदन्नं तदुदकं च न ।

जगन्नाथपुरोऽन्यत्र ग्राह्यं कृष्णप्रसाद्यपि ।।१९।।

और जिसके हाथ से पकाया गया अन्न तथा जिसके पात्र का जल अग्राह्य हो उसका पकाया हुआ अन्न तथा उसके पात्र का जल श्रीकृष्ण भगवान की प्रसादी या चरणामृत के माहात्म्य से भी जगन्नाथपुरी के अलावा अन्य स्थान पर ग्रहण न करें; जगन्नाथपुरी में जगन्नाथजी का प्रसाद लेने में कोई दोष नहीं है ।।१९।।



मिथ्यापवाद: कस्मिंश्चिदपि स्वार्थस्य सिद्धये ।

नारोप्यो नापशब्दाश्च भाषणीया: कदाचन ।।२०।।

अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए भी किसी के उपर मिथ्या अपवाद का आरोप न करें तथा किसी को गाली तो कभी न दें ।।२०।।



देवतातीर्थविप्राणां साध्वीनां च सतामपि ।

वेदानां च न कर्तव्या निन्दा श्रव्या न च क्वचित्‌ ।।२१।।

और देवता, तीर्थ, ब्राह्मण, पतिव्रता, साधु और वेद इनकी निंदा कदापि न करें तथा न सुनें ।।२१।।



देवतायै भवेद्यस्यै सुरामांसनिवेदनम्‌ ।

यत्पुरोऽजादिहिंसा च न भक्ष्यं तन्निवेदितम्‌ ।।२२।।

जिस देवता के आगे मदिरा तथा माँस का नैवेद्य होता हो तथा जिस देवता के आगे बकरे आदि जीवों की हिंसा होती हो, उस देवता का नैवेद्य न खायें ।।२२।।



द्दष्ट्‌वा शिवालयादीनि देवागाराणि वर्त्मनि ।

प्रणम्य तानि तद्देवदर्शनं कार्यमादरात् ‌।।२३।।

रास्ते में चलते समय शिवालयादि जो देवमंदिर आवें, उनको देखकर नमस्कार करें और आदरपूर्वक उन देवों का दर्शन करें ।।२३।।



स्ववर्णाश्रमधर्मो य: स हातव्यो न केनचित्‌ ।

परधर्मो न चाचर्यो न च पाषण्डकल्पित: ।।२४।।

अपने अपने वर्णाश्रम का जो धर्म, उसका कोई भी सत्संगी त्याग न करें और पर धर्म का आचरण न करें तथा पाखंड धर्मका आचरण न करें तथा कल्पित धर्मका आचरण न करें ।।२४।।



कृष्णभक्ते: स्वधर्माद्वा पतनं यस्य वाक्यत: ।

स्यात्तन्मुखान्न वै श्रव्या: कथावार्ताश्च वा प्रभो: ।।२५।।

जिसके वचन सुनने से श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति और अपना धर्म, इन दोनों में गिरावट होजाय, उसके मुख से भगवान की कथावार्ता न सुनें ।।२५।।



स्वपरद्रोहजननं सत्यं भाष्यं न कर्हिचित्‌ ।

कृतघ्नसङ्गस्त्यक्तव्यो लुञ्चा ग्राह्या न कस्यचित्‌ ।।२६।।

जिस सत्य वचन बोलने से अपना तथा अन्य का द्रोह हो; ऐसा सत्य वचन कदापि न बोलें और कृतघ्नीके संग का त्याग करें तथा व्यवहारकार्य में किसी से घूस-रिश्वत न लें ।।२६।।



चोरपापिव्यसनिनां सङ्ग: पाखण्डिनां तथा ।

कामिनां च न कर्तव्यो जनवञ्चनकर्मणाम्‌ ।।२७।।

चोर, पापी, व्यसनी, पाखंडी, कामी तथा कीमिया आदि क्रियाओं द्वारा लोगों को ठगनेवाले धूर्त, इन छ प्रकार के मनुष्यों का संग न करें ।।२७।।



भक्तिं वा ज्ञानमालम्ब्य स्त्रीद्रव्यरसलोलुभा: ।

पापे प्रवर्तमाना: स्यु: कार्यस्तेषां न सङ्गम: ।।२८।।

और जो मनुष्य भक्ति का अथवा ज्ञान का आलंबन लेकर स्त्री, द्रव्य तथा रसास्वाद में अत्यंत लोलुप होकर पाप कर्म में प्रवृत्त हों, ऐसे मनुष्यों का समागम न करें ।।२८।।



कृष्णकृष्णावताराणां खण्डनं यत्र युक्तिभि: ।

कृतं स्यात्तानि शास्त्राणि न मान्यानि कदाचन ।।२९।।

जिन शास्त्रों में श्रीकृष्ण भगवान तथा श्रीकृष्ण भगवान के वराहादिक अवतारों का युक्तियों द्वारा खण्डन किया गया हो, ऐसे शास्त्रों को कदापि न मानें और न सुनें ।।२९।।



अगालितं न पातव्यं पानीयं च पयस्तथा ।

स्नानादि नैव कर्तव्यं सूक्ष्मजन्तुमयाम्भसा ।।३०।।

बिना छना हुआ जल तथा दूध न पीयें, तथा जिस जल में अनेक सूक्ष्म जंतु हों, वैसे जल से स्नानादि क्रिया न करें ।।३०।।



यदौषधं च सुरया सम्पृक्तं पललेन वा ।

अज्ञातवृत्तवैद्येन दत्तं चाद्यं न तत्‌ क्वचित्‌ ।।३१।।

और जो औषध मदिरा या माँस से युक्त हों उसका सेवन कदापि न करें और जिस वैद्य के आचरण को न जानते हो उसका दिया हुआ औषध कभी भी न खायें ।।३१।।



स्थानेषु लोकशास्त्राभ्यां निषिद्धेषु कदाचन ।

मलमूत्रोत्सर्जनं च न कार्यं ष्ठीवनं तथा ।।३२।।

लोक तथा शास्त्रों के द्वारा मलमूत्र करने के लिए वर्जित ऐसे जो स्थान-जीर्ण देवालय, नदी-तालाब के घाट, मार्ग, बोया हुए खेत, वृक्ष की छाया, फूलवारी-बगीचे इत्यादि स्थानों में कदापि मलमूत्र न करें तथा थूके भी नहीं ।।३२।।



अद्वारेण न निर्गम्यं प्रवेष्टव्यं न तेन च ।

स्थाने सस्वामिके वास: कार्योऽपृष्ट्‌वा न तत्पतिम्‌ ।।३३।।

चोर मार्ग से प्रवेश न करें तथा बाहर भी न निकलें तथा मालिकी युक्त स्थान में उसके मालिक से पूछे बिना निवास न करें ।।३३।।



ज्ञानवार्ता श्रुतिर्नार्या मुखात्‌ कार्या न पुरुषै: ।

न विवाद: स्त्रिया कार्यो न राज्ञा न च तज्जनै: ।।३४।।

हमारे सत्संगी पुरुषमात्र, स्त्रियों के मुख से ज्ञानोपदेश न सुनें तथा स्त्रियों के साथ विवाद न करें तथा राजा के साथ एवं राजा के आदमी के साथ कभी विवाद न करें ।।३४।।



अपमानो न कर्तव्यो गुरू णां च वरीयसाम् ‌।

लोके प्रतिष्ठितानां च विदूषां शस्त्रधारिणाम्‌ ।।३५।।

और गुरु, अत्यंत श्रेष्ठ मनुष्य जो समाज में प्रतिष्ठित मनुष्य हो तथा विद्वान एवं शस्त्रधारी मनुष्य हो उनका अपमान न करें ।।३५।।



कार्यं न सहसा किञ्चित्कार्यो धर्मस्तु सत्वरम्‌ ।

पाठनीयाऽधीतविद्या कार्य: सङ्गोऽन्वहं सताम्‌ ।।३६।।

विचार किये बिना तत्काल कोई भी व्यावहारिक कार्य न करें और धर्म संबंधी जो कार्य हो उसे तो तत्काल करें तथा स्वयं जो विद्याभ्यास किया हो उसे दूसरों को पढावें तथा प्रतिदिन सन्त समागम करें ।।३६।।



गुरुदेवनृपेक्षार्थं न गम्यं रिक्तपाणिभि: ।

विश्वासघातो नो कार्य:स्वश्लाघा स्वमुखेन च ।।३७।।

गुरु, देव तथा राजा इन तीनों के दर्शनार्थ जाते समय खाली हाथ न जायें। किसी का विश्वासघात न करें और अपने मुख से अपनी प्रशंसा न करें ।।३७।।



यस्मिन्‌ परिहितेऽपि स्युर्द्दश्यान्यङ्गानि चात्मन: ।

तद्दूष्यं वसनं नैव परिधार्यं मदाश्रितै: ।।३८।।

जिस वस्त्रको पहनने पर भी अपने शरीर के अंग दिखाई दें ऐसा अभद्र वस्त्र हमारे सत्संगी कभी न पहनें ।।३८।।



धर्मेण रहिता कृष्णभक्ति: कार्या न सर्वथा ।

अज्ञनिन्दाभयान्नैव त्याज्यं श्रीकृष्णसेवनम्‌ ।।३९।।

श्रीकृष्ण भगवान की जो भक्ति वह धर्म से रहित कभी न करें और अज्ञानी ऐसे मनुष्यों की निन्दा के भय से श्रीकृष्ण भगवान की सेवा का त्याग न करें ।।३९।।



उत्सवाहेषु नित्यं च कृष्णमन्दिरमागतै: ।

पुम्भि: स्पृश्या न वनितास्तत्र ताभिश्च पूरुषा: ।।४०।।

उत्सव के दिन तथा प्रतिदिन श्रीकृष्ण भगवान के मंदिर में आये हुए सत्संगी पुरुष, मंदिर में स्त्रियों का स्पर्श न करें तथा स्त्रियाँ पुरुषों का स्पर्श न करें। मंदिर से बाहर निकलने के बाद अपनी अपनी रीति अनुसार बर्तें ।।४०।।



कृष्णदीक्षां गुरो: प्राप्तैस्तुलसीमालिके गले ।

धार्ये नित्यं चोर्ध्वपुण्ड्रं ललाटादौ द्विजातिभि: ।।४१।।

धर्मवंशी गुरु से श्रीकृष्ण की दीक्षा प्राप्त की है, ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के हमारे सत्संगी निरंतर गले में तुलसी की दोहरी माला धारण करें तथा ललाट, हृदय एवं दो हाथ-इन चारों स्थान पर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक करें ।।४१।।



तत्तु गोपीचन्दनेन चन्दनेनाथवा हरे: ।

कार्यं पूजावशिष्टेन केशरादियुतेन च ।।४२।।

और वह तिलक गोपीचन्दन से करें अथवा भगवानकी पूजा करते बाकी बचे केसर-कुंकुमादि से युक्त जो प्रसादी का चन्दन, उससे करें ।।४२।।



तन्मध्य एव कर्तव्य: पुण्ड्रद्रव्येण चन्द्रक: ।

कुङकुमेनाथवा वृत्तो राधालक्ष्मीप्रसादिना ।।४३।।

और उस तिलक के मध्यमें ही गोपीचन्दन से अथवा राधिकाजी एवं लक्ष्मीजी के प्रसादीभूत कुंकुम से गोल चन्द्रक करें ।।४३।।



सच्छूद्रा: कृष्णभक्ता ये तैस्तु मालोर्ध्वपुण्ड्रके ।

द्विजातिवद्धारणीये निजधर्मेषु संस्थितै: ।।४४।।

अपने धर्म में रहे हुए और श्रीकृष्ण भगवान के भक्त ऐसे जो सत्शूद्र, वे तो तुलसी की माला तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की तरह धारण करें ।।४४।।



भक्तैस्तदितरैर्माले चन्दनादीन्धनोद्‌भवे ।

धार्ये कण्ठे ललाटेऽथ कार्य: केवलचन्द्रक: ।।४५।।

और उन सत्शूद्रों से अतिरिक्त जाति से उतरते ऐसे जो भक्तजन हैं वे भगवान की प्रसादीभूत ऐसे चन्दनादिक काष्ठ की दोहरी माला कंठ में धारण करें तथा ललाट में सिर्फ गोल चन्द्रक करें, परन्तु तिलक न करें ।।४५।।



त्रिपुण्ड्ररुद्राक्षधृतिर्येषां स्यात्स्वकुलागता ।

तैस्तु विप्रादिभि: क्वापि न त्याज्या सा मदाश्रितै: ।।४६।

जिन ब्राह्मणादिकों को, त्रिपुंड्र करना तथा रुद्राक्ष की माला धारण करना-ये दो बातें अपनी कुल परंपरा से चली आती हों और वे ब्राह्मणादिक हमारे आश्रित बने हों तो भी वे त्रिपुंड्र तथा रुद्राक्ष का कदापि त्याग न करें ।।४६।।



ऐकात्म्यमेव विज्ञेयं नारायणमहेशयो: ।

उभयोर्ब्रह्मरू पेण वेदेषु प्रतिपादनात्‌ ।।४७।।

नारायण तथा शिवजी-उन दोनों में एकात्मता ही समझें क्योंकि वेदों में उन दोनों का ब्रह्मरुप से प्रतिपादन किया गया है ।।४७।।



शास्त्रोक्त आपद्वर्मो य: स त्वल्पापदि कर्हिचित्‌ ।

मदाश्रितैर्मुख्यतया ग्रहीतव्यो न मानवै: ।।४८।।

हमारे आश्रित जो मनुष्य, शास्त्र द्वारा प्रतिपादित आपद्‌धर्म को अल्प आपत्काल में प्रमुख रुप से कदापि ग्रहण न करें ।।४८।।



प्रत्यहं तु प्रबोद्धव्यं पूर्वमेवोदयाद्रवे: ।

विधाय कृष्णस्मरणं कार्य: शौचविधिस्तत: ।।४९।।

हमारे आश्रित सत्संगी, प्रतिदिन सूर्योदय के पूर्व ही निद्रा का त्याग करें तथा श्रीकृष्ण भगवान का स्मरण करके शौचविधि करने जायें ।।४९।।



उपविश्यैव चैकत्र कर्तव्यं दन्तधावनम् ‌।

स्नात्वा शुच्यम्बुना धौते परिधार्ये च वाससी ।।५०।।

तत्पश्चात्‌ एक स्थान में बैठकर दातुन करें। बाद में पवित्र जल से स्नान करके धोया हुआ एक वस्त्र (धोती) पहने तथा एक उत्तरीय धारण करें ।।५०।।



उपविश्य तत: शुद्ध आसने शुचिभूतले ।

असङ्कीर्ण उपस्पृश्यं प्राङमुखं वोत्तरामुखम्‌ ।।५१।।

और इसके बाद पवित्र पृथ्वी पर बिछाये हुए, शुद्ध, दूसरे अपवित्र आसन को छूआ न हो तथा जिस पर अच्छी तरह से बैठा जा सके, ऐसे आसन पर पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख बैठकर आचमन करें ।।५१।।

कर्तव्यमूर्ध्व पुण्ड्रं च पुम्भिरेव सचन्द्रकम्‌ ।

कार्य: सधवानारीभिर्भाले कुङकुमचन्द्रक: ।।५२।।

उसके बाद हमारे आश्रित सभी पुरुष, गोल चन्द्रक सहित ऊर्ध्वपुंड्र तिलक करें और जो सधवा हों वे अपने भाल पर कुंकुम का चन्द्रक करें ।।५२।।



पुण्ड्रं वा चन्द्रको भाले न कार्यो मृतनाथया ।

मनसा पूजनं कार्यं तत: कृष्णस्य चाखिलै: ।।५३।।

विधवा स्त्री मात्र अपने भाल में तिलक न करें तथा चन्द्रक भी न करें। उसके बाद हमारे सभी सत्संगी मन से कल्पित चंदन, पुष्पादि उपचारों द्वारा श्रीकृष्ण भगवान की मानसी पूजा करें ।।५३।।



प्रणम्य राधाकृष्णस्य लेख्यार्चां तत आदरात्‌ ।

शक्त्या जपित्वा तन्मन्त्रं कर्तव्यं व्यावहारिकम्‌ ।।५४।।

इसके बाद श्री राधाकृष्ण की चित्रप्रतिमा का आदरपूर्वक दर्शन करके, नमस्कार करनेके बाद में अपने सामर्थ्य अनुसार श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर मंत्र का जप करने के बाद अपना व्यवहारिक कार्य करें ।।५४।।



ये त्वम्बरीषवद्‌भक्ता: स्युरिहात्मनिवेदिन: ।

तैश्च मानसपूजान्तं कार्यमुक्त क्रमेण वै ।।५५।।

और हमारे सत्संगीजनों में अंबरीष राजा के समान जो आत्मनिवेदी उत्तम भक्त हों वे भी पूर्वोक्त क्रमानुसार मानसी पूजापर्यंत सभी क्रिया करें ।।५५।।



शैली वा धातुजा मूर्ति: शालग्रामोऽर्च्य एव तै: ।

द्रव्यैर्यथाप्तै: कृष्णस्य जप्योऽथाष्टाक्षरो मनु: ।।५६।।

वे आत्मनिवेदी भक्त पाषाण या धातु से निर्मित श्रीकृष्ण भगवान की प्रतिमा का अथवा शालिग्राम का पूजन, देशकालानुसार यथाशक्ति उपलब्ध चन्दन, पुष्प, फलादि उपहारों से करें और बाद में श्रीकृष्ण भगवान के अष्टाक्षर मंत्र का जप करें ।।५६।।



स्तोत्रादेरथ कृष्णस्य पाठ: कार्य: स्वशक्तित: ।

तथानधीतगीर्वाणै: कार्यं तन्नामकीर्तनम्‌ ।।५७।।

उसके बाद श्रीकृष्ण भगवान के स्तोत्र अथवा ग्रंथ का पाठ अपने सामर्थ्य के अनुसार करें और जो संस्कृत नहीं पढे हैं वे श्रीकृष्ण भगवान का नाम कीर्तन करें ।।५७।।



हरेर्विधाय नैवेद्यं भोज्यं प्रासादिकं तत: ।

कृष्णसेवापरै:प्रीत्या भवितव्यं च तै: सदा ।।५८।।

तदनन्तर श्रीकृष्ण भगवान को नैवेद्य अर्पण करके प्रसादीभूत अन्न का भोजन करें तथा वे आत्मनिवेदी वैष्णव निरंतर प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण भगवान की सेवा में तत्पर रहें ।।५८।।



प्रोक्तास्ते निर्गुणा भक्ता निर्गुणस्य हरेर्यत: ।

सम्बन्धात्तत्क्रिया: सर्वा भवन्त्येव हि निर्गुणा: ।।५९।।

निर्गुण अर्थात्‌ माया के सत्त्वादिक तीन गुणों से रहित ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान, उनके सम्बन्ध से आत्मनिवेदी भक्तों की सभी क्रियाएँ निर्गुण हो जाती हैं। उसी हेतु से आत्मनिवेदी भक्त निर्गुण कहे गये हैं ।।५९।।



भक्तैरेतैस्तु कृष्णायानर्पितं वार्यपि क्वचित्‌ ।

न पेयं नैव भक्ष्यं च पत्रकन्दफलाद्यपि ।।६०।।

ऐसे आत्मनिवेदी भक्त, श्रीकृष्ण भगवान को अर्पण किये बिना जल भी कदापि न पीयें और श्रीकृष्ण भगवान को अर्पण किये बिना पत्र, कंद, फलादि चीजों को कदापि न खायें ।।६०।।



सर्वैरशक्तौ वार्धक्याद्‌गरीयस्यापदाऽथवा ।

भक्ताय कृष्णमन्यस्मै दत्त्वा वृत्त्यं यथाबलम् ‌।।६१।।

हमारे आश्रित सभी सत्संगी, जब वृद्धावस्था से अथवा किसी भारी आपत्काल के कारण असमर्थ हो जायें तब स्वयं से सेव्यमान जो श्रीकृष्ण का स्वरुप है, उसे अन्य भक्त को सौंपकर स्वयं अपने सामर्थ्य के अनुसार आचरण बर्तें-करें ; ।।६१।।



आचार्येणैव दत्तं यद्यच्च तेन प्रतिष्ठितम्‌ ।

कृष्णस्वरुपं तत्सेव्यं वन्द्यमेवेतरत्तु यत्‌ ।।६२।।

धर्मवंश के आचार्य ने ही श्रीकृष्ण का जो स्वरुप सेवा के लिए दिया हो अथवा उस आचार्य ने जिस स्वरुप की प्रतिष्ठा की हो उसी स्वरुप की सेवा करें। इससे अतिरिक्त जो भी श्रीकृष्ण के स्वरुप हैं, वे केवल नमस्कार करने योग्य हैं; परंतु सेवा करने योग्य नहीं हैं ।।६२।।



भगवन्मन्दिरं सर्वै: सायं गन्तव्यमन्वहम्‌ ।

नामसंकीर्तनं कार्यं तत्रोच्चै राधिकापते: ।।६३।।

हमारे सभी सत्संगी, हमेशा सायंकाल भगवान के मंदिरमें जायें और वर्हां (मंदिर में) श्री राधिका के पति ऐसे भगवान श्रीकृष्ण के नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करें ।।६३।।



कार्यास्तस्य कथावार्ता: श्रव्याश्च परमादरात्‌ ।

वादित्रसहितं कार्यं कृष्णकीर्तनमुत्सवे ।।६४।।

और परम आदर से श्रीकृष्ण भगवान की कथा वार्ता करें तथा सुनें। उत्सव के दिन विविध वाद्यों के साथ श्री कृष्ण भगवान का कीर्तन करें ।।६४।।



प्रत्यहं कार्यमित्थं हि सर्वैरपि मदाश्रितै: ।

संस्कृतप्राकृतग्रन्थाभ्यासश्चापि यथामति ।।६५।।

हमारे आश्रित सभी सत्संगी, पूर्व कथनानुसार ही प्रतिदिन आचरण करें और अपनी बुद्धि के अनुसार संस्कृत एवं प्राकृत सद्‌ग्रन्थों का अध्ययन भी करें ।।६५।।



यादृशैर्यो गुणैर्युक्तस्तादृशे स तु कर्मणि ।

योजनीयो विचार्यैव नान्यथा तु कदाचन ।।६६।।

जो मनुष्य जिन गुणों से युक्त हों उस मनुष्य को विचार करके वैसे ही कार्य में प्रेरित करें; परन्तु जिस कार्य के लिए जो योग्य न हो उस कार्य के लिए उसे कदापि प्रेरित न करें ।।६६।।



अन्नवस्त्रादिभि: सर्वे स्वकीया: परिचारका: ।

सम्भावनीया: सततं यथायोग्यं यथाधनम्‌ ।।६७।।

जो अपने सेवक हों उन सभी की निरन्तर अपने सामर्थ्यानुसार अन्नवस्त्रादि द्वारा यथायोग्य संभावना करें ।।६७।।



याद्दग्गुणो य: पुरुषस्तादृशा वचनेन स: ।

देशकालानुसारेण भाषणीयो न चान्यथा ।।६८।।

जो पुरुष जिन गुणों से युक्त हों, उसे वैसे ही वचनों से देशकालानुसार यथायोग्य संबोधित करें परन्तु अन्य रुपसे संबोधित न करें ।।६८।।



गुरुभूपालवर्षिष्ठत्यागिविद्वत्तपस्विनाम्‌ ।

अभ्युत्थानादिना कार्य: सन्मानो विनयान्वितै: ।।६९।।

विनयवान हमारे आश्रित सत्संगी-जब गुरु, राजा, अतिवृद्ध, त्यागी, विद्वान तथा तपस्वी ये छ: व्यक्ति पधारें तब सन्मुख उठें तथा आसन अर्पण करें तथा मधुर वाणी से संबोधित करें इत्यादि सभी प्रकार से उनका सन्मान करें ।।६९।।



नोरौ कृत्वा पादमेकं गुरुदेवनृपान्तिके ।

उपवेश्यं सभायां च जानू बद्धवा न वाससा ।।७०।।

गुरु, देव तथा राजा के आगे तथा सभा में पैर पर पैर चढाकर न बैठें और वस्त्र द्वारा घूँटनों को बाँधकर भी न बैठें ।।७०।।



विवादो नैव कर्तव्य: स्वाचार्येण सह क्वचित्‌ ।

पूज्योऽन्नधनवस्त्राद्यैर्यथाशक्ति स चाखिलै: ।।७१।।

हमरे आश्रित सभी सत्संगी, अपने आचार्य के साथ कदापि विवाद न करें और अपनी शक्ति के अनुसार अन्न, धन, वस्त्रादि द्वारा उनकी पूजा करें ।।७१।।



तमायान्तं निशम्याशु प्रत्युद्‌गन्तव्यमादरात्‌ ।

तस्मिन्‌ यात्यनुगम्यं च ग्रामान्तावधि मच्छ्रितै: ।।७२।।

और हमारे आश्रित जो जन हैं वे अपने आचार्य का आगमन सुनकर आदर से उनके सन्मुख जायें और वे जब गाँव से वापस पधारें तब गाँव की सीमा तक विदाई देने जायें ।।७२।।



अपि भूरिफलं कर्म धर्मापेतं भवेद्यदि ।

आचर्यं तर्हि तन्नैव धर्म: सर्वार्थदोऽस्ति हि ।।७३।।

जो अधिक फलदायी हो ऐसा कर्म भी यदि धर्मरहित हो तो (उसका) आचरण न करें क्योंकि धर्म ही सभी पुरुषार्थो को देनेवाला है। अत: किसी फलप्राप्ति के लोभ से धर्म का त्याग न करें ।।७३।।



पूर्वैर्महद्भिरपि यदधर्माचरणं क्वचित्‌ ।

कृतं स्यात्तत्तु न ग्राह्यं ग्राह्यो धर्मस्तु तत्कृत: ।।७४।।

और पूर्वकालीन महापुरुषों ने भी यदि कभी अधर्म का आचरण किया हो तो उसको ग्रहण न करें; किन्तु उन्होंने जो धर्माचरण किया हो उसीको ग्रहण करें ।।७४।।



गुह्यवार्ता तु कस्यापि प्रकाश्या नैव कुत्रचित्‌ ।

समदृष्टया न कार्यश्च यथार्हार्चाव्यतिक्रम: ।।७५।।

किसीकी भी गोपनीय बात कहीं पर भी प्रकाशित न करें और जिसका जैसे सन्मान करना उचित हो उसका वैसे ही सन्मान करें; परन्तु समदृष्टि से इस मर्यादा का उल्लंघन न करें ।।७५।।



विशेषनियमो धार्यश्चातुर्मास्येऽखिलैरपि ।

एकस्मिन्‌ श्रावणे मासि स त्वशक्तैस्तु मानवै: ।।७६।।

हमारे सभी सत्संगी, चार्तुमास में विशेष नियम धारण करें और जो असमर्थ हों वे केवल श्रावण मास में ही विशेष नियम धारण करें ।।७६।।



विष्णो: कथाया: श्रवणं वाचनं गुणकीर्तनम्‌ ।

महापूजा मन्त्रजप: स्तोत्रपाठ: प्रदक्षिणा: ।।७७।।

वे विशेष नियम कौन से हैं, तो भगवान की कथा का श्रवण करना, कथा-वाचन, भगवान के गुणों का कीर्तन करना, पंचामृत स्नानादि द्वारा भगवान की महापूजा करना, भगवान के मंत्र का जप करना, स्तोत्रों का पाठ करना, भगवान की प्रदक्षिणा करना ।।७७।।



साष्टाङ्गप्रणतिश्चेति नियमा उत्तमा मता: ।

एतेष्वेकतमो भक्‌त्या धारणीयो विशेषत: ।।७८।।

तथा भगवान को साष्टांग नमस्कार करना । ये जो आठ प्रकार के नियमों को हमने उत्तम माने हैं, इनमें से किसी भी एक नियम को चातुर्मास में विशेष रुपसें भक्तिपूर्वक धारण करें ।।७८।।



एकादशीनां सर्वासां कर्तव्यं व्रतमादरात्‌ ।

कृष्णजन्मदिनानां च शिवरात्रेश्च सोत्सवम्‌ ।।७९।।

सभी एकादशियों का व्रत तथा श्रीकृष्ण भगवान के जन्माष्टमी आदि जन्मदिन का व्रत आदरपूर्वक करें तथा शिवरात्रि का व्रत आदरपूर्वक करें और उन व्रतों के दिन बडे उत्सव मनावें ।।७९।।



उपवासदिने त्याज्या दिवानिद्रा प्रयत्नत: ।

उपवासस्तया नश्येन्मैथुनेनेव यन्नृणाम्‌ ।।८०।।

जिस दिन व्रत के निमित्त उपवास किया हो उस दिन प्रयत्नपूर्वक दिवस की निद्रा का त्याग करें क्योंकि जैसे मैथुन द्वारा मनुष्य के उपवास का भंग होता है वैसे ही दिवस की निद्रा से मनुष्य के उपवास का नाश होता है ।।८०।।



सर्व वैष्णव राजश्रीवल्लभाचार्य नन्दन: ।

श्री विठ्ठलेश: कृतवान्‌ यं व्रतोत्सवनिर्णयम्‌ ।।८१।।

सर्व वैष्णवों के राजा ऐसे जो श्री वल्लभाचार्यजी, उनके पुत्र श्री विठ्ठलनाथजी ने जो व्रत एवं उत्सवों का निर्णय किया है ।।८१।।



कार्यास्तमनुसृत्यैव सर्व एव व्रतोत्सवा: ।

सेवारीतिश्च कृष्णस्य ग्राह्या तदुदितैव हि ।।८२।।

और उस विठ्ठलनाथजीने किया जो निर्णय उसीके अनुसार ही व्रत एवं उत्सव मनायें और उन्होंने श्रीकृष्ण की जो सेवारीति बताई हैं उसीको ही ग्रहण किया जाय ।।८२।।



कर्तव्या द्वारिकामुख्यतीर्थयात्रा यथाविधि ।

सर्वैरपि यथाशक्ति भाव्यं दीनेषु वत्सलै: ।।८३।।

हमारे सभी आश्रित, द्वारकिा आदि तीर्थों की यात्रा अपने सामर्थ्यानुसार यथाविधि करें तथा अपनी शक्ति के अनुसार दीन जनों के प्रति दयावान बनें ।।८३।।



विष्णु: शिवो गणपति: पार्वती च दिवाकर: ।

एता: पूज्यतया मान्या देवता: पञ्च मामकै: ।।८४।।

हमारे आश्रित, विष्णु, शिव, गणपति, पार्वती तथा सूर्य इन पाँचों देवों को पूज्यभाव से मानें ।।८४।।



भूताद्युपद्रवे क्वापि वर्म नारायणात्मकम्‌ ।

जप्यं च हनुमन्मन्त्रो जप्यो न क्षुद्रदैवत: ।।८५।।

और यदि कभी भूत प्रेतादि का उपद्रव हों तो नारायण कवच का जप करें अथवा हनुमानजी के मंत्र का जप करें; परन्तु इनके सिवा अन्य किसी भी क्षुद्र देवता के स्तोत्र या मंत्र का जप न करें ।।८५।।



रवेरिन्दोश्चोपरागे जायमानेऽपरा: क्रिया: ।

हित्वाशु शुचिभि: सर्वै: कार्य: कृष्णमनोर्जप :।।८६।

सूर्य एवं चन्द्रका ग्रहण लगने पर हमारे सभी सत्संगी अन्य सभी क्रियाओं को तत्काल छोडकर पवित्र होकर श्रीकृष्ण भगवान के मन्त्र का जप करें ।।८६।।



जातायामथ तन्मुक्तौ कृत्वा स्नानं सचेलकम्‌ ।

देयं दानं गृहिजनै: शक्त्याऽन्यैस्त्वर्च्य ईश्वर: ।।८७।।

और ग्रहण मोक्ष होने पर वस्त्र सहित स्नान करके जो हमारे गृहस्थ सत्संगी हों, वे अपने सामर्थ्यानुसार दान करें और जो त्यागी हों वे भगवान की पूजा करें ।।८७।।



जन्माशौचं मृताशौचं स्वसम्बन्धानुसारत: ।

पालनीयं यथाशास्त्रं चातुर्वर्ण्य जनैर्मम ।।८८।।

चारों वर्ण के हमारे सत्संगी, वे जन्म तथा मरण के सूतक का अपने अपने सम्बन्ध के अनुसार यथाशास्त्र पालन करें ।।८८।।



भाव्यं शमदमक्षान्तिसन्तोषादिगुणान्वितै: ।

ब्राह्मणै: शौर्यधैर्यादिगुणोपेतैश्च बाहुजै: ।।८९।।

जो ब्राह्मण वर्ण के हैं, वे शम, दम, क्षमा तथा संतोष आदि गुणों से युक्त हों तथा क्षत्रिय वर्ण के हों, वे शूरवीरता एवं धैर्य आदि गुणों से युक्त हों ।।८९।।



वैश्यैश्च कृषिवाणिज्यकुसीदमुखवृत्तिभि: ।

भवितव्यं तथा शूद्रैर्द्विजसेवादिवृत्तिभि: ।।९०।।

जो वैश्य वर्ण के हैं वे खेती, वाणिज्य-व्यापार तथा महाजनी आदि वृत्तियों से युक्त हों तथा शूद्र वर्ण के हों वे ब्राह्मणादि तीनों वर्णों की सेवा आदि जो वृत्तियों से बर्तें (अपना जीवन यापन करें) ।।९०।।



संस्काराश्चाह्निकं श्राद्धं यथाकालं यथाधनम्‌ ।

स्वस्वगृह्यानुसारेण कर्तव्यं च द्विजन्मभि: ।।९१।।

और जो द्विज हों, वे गर्भाधानादि संस्कार, आह्निक कर्म तथा श्राद्धकर्म, इन तीनोंको अपने-अपने गृह्यसूत्र के अनुसार जैसा जिसका अवसर एवं धनसंपति के अनुसार करें ।।९१।।



अज्ञानाज्ज्ञानतो वाऽपि गुरु वा लघु पातकम्‌ ।

क्वापि स्यात्तर्हि तत्प्रायश्चितं कार्यं स्वशक्तित: ।।९२।।

यदि कभी जाने अथवा अनजाने कोई छोटा या बडा पाप हो जाय तो अपनी शक्ति के अनुसार उसका प्रायश्चित करें ।।९२।।



वेदाश्च व्याससूत्राणि श्रीमद्‌भागवताभिधम्‌ ।

पुराणं भारते तु श्रीविष्णोर्नामसहस्रकम्‌ ।।९३।।

चार वेद, व्याससूत्र, श्रीमद्‌ भागवतपुराण, महाभारत में स्थित श्रीविष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्र ।।९३।।



तथा श्रीभगवद्‌गीता नीतिश्च विदुरोदिता ।

श्रीवासुदेवमाहात्म्यं स्कान्दवैष्णवखण्डगम्‌ ।।९४।।

भगवद्‌ गीता, विदुरनीति, स्कंदपुराण के विष्णुखंड में रहा हुआ श्रीवासुदेव माहात्म्य ।।९४।।



धर्मशास्त्रान्तर्गता च याज्ञवल्क्यऋषे: स्मृति: ।

एतान्यष्ट ममेष्टानि सच्छास्त्राणि भवन्ति हि ।।९५।।

और धर्मशास्त्रों के अन्तर्गत याज्ञवल्क्य ऋषि की स्मृति, ये आठ सच्छास्त्र हमें इष्ट हैं ।।९५।।



स्वहितेच्छुभिरेतानि मच्छिष्यै: सकलैरपि ।

श्रोतव्यान्यथ पाठ्‌यानि कथनीयानि च द्विजै: ।।९६।।

अपना हित चाहनेवाले हमारे सभी शिष्य, उन आठ सच्छास्त्रों को सुनें और हमारे आश्रित जो द्विज हैं, वे उन सच्छास्त्रों को पढें, पढावें और उनकी कथा करें ।।९६।।



तत्राचारव्यवहृतिनिष्कृतानां च निर्णये ।

ग्राह्या मिताक्षरोपेता याज्ञवल्क्यस्य तु स्मृति: ।।९७।।

उन आठ सच्छास्त्रों में से आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित इन तीनों के निर्णय के लिए मिताक्षर टीकायुक्त याज्ञवल्क्य ऋषि की स्मृति को ग्रहण करें ।।९७।।



श्रीमद्‌भागवतस्यैषु स्कन्धौ दशमपञ्चमौ ।

सर्वाधिकतया ज्ञेयौ कृष्णमाहात्म्यबुद्धये ।।९८।।

और उन आठ सच्छास्त्रों में जो श्रीमद्‌ भागवत पुराण है, उसके दशम तथा पंचम,इन दो स्कंधों को श्रीकृष्ण भगवान का माहात्म्य जानने के लिए सबसे अधिक रुप से जानें ।।९८।।



दशम: पञ्चम: स्कन्धो याज्ञवल्क्यस्य च स्मृति: ।

भक्तिशास्त्रं योगशास्त्रं धर्मशास्त्रं क्रमेण मे ।।९९।।

दशमस्कंध, पंचमस्कंध, तथा याज्ञवल्क्य ऋषिकी स्मृति, ये तीनों क्रमश: हमारे भक्तिशास्त्र, योगशास्त्र एवं धर्मशास्त्र हैं। अर्थात्‌ दशमस्कंध भक्तिशास्त्र है, पंचमस्कंध योगशास्त्र है तथा याज्ञवल्क्य ऋषिकी स्मृति धर्मशास्त्र है ऐसा जानें ।।९९।।



शारीरकाणां भगवद्‌गीतायाश्चावगम्यताम्‌ ।

रामानुजाचार्यकृतं भाष्यमाध्यात्मिकं मम ।।१००।।

और श्री रामानुजाचार्य द्वारा किया हुआ व्याससूत्र का श्रीभाष्य तथा श्रीभगवद्‌ गीता का भाष्य, ये दोनों हमारे अध्यात्मशास्त्र हैंऐसा जानें ।।१००।।

एतेषु यानि वाक्यानि श्रीकृष्णस्य वृषस्य च ।

अत्युत्कर्षपराणि स्युस्तथा भक्तिविरागयो: ।।१०१।।

और इन सभी सच्छास्त्रों में जो वचन श्रीकृष्ण भगवान का स्वरुप, धर्म, भक्ति तथा वैराग्य इन चारों के अत्यन्त उत्कर्ष भाव को बताते हों ।।१०१।।



मन्तव्यानि प्रधानानि तान्येवेतरवाक्यत: ।

धर्मेण सहिता कृष्णभक्ति: कार्येति तद्रह: ।।१०२।।

उन वचनों को अन्य वचनों की अपेक्षा विशेषरुप से मानेंऔर श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति धर्मपूर्वक ही करें ऐसा उन सभी सच्छास्त्रों का रहस्य है ।।१०२।।



धर्मो ज्ञेय: सदाचार: श्रुतिस्मृत्युपपादित: ।

माहात्म्यज्ञानयुग्भूरिस्नेहो भक्तिश्च माधवे ।।१०३।।

श्रुति एवं स्मृति द्वारा प्रतिपादित सदाचार को धर्म समझें तथा श्रीकृष्ण भगवान के प्रति माहात्म्य ज्ञान से युक्त अपार स्नेह को भक्ति समझें ।।१०३।।



वैराग्यं ज्ञेयमप्रीति: श्रीकृष्णेतरवस्तुषु ।

ज्ञानं च जीवमायेशरू पाणां सुष्ठु वेदनम्‌ ।।१०४।।

और श्रीकृष्ण भगवान के बिना अन्य पदार्थों में प्रीति न हो इसे वैराग्य समझें तथा जीव, माया और ईश्वर के स्वरुप को भलीभाँति जानना इसे ज्ञान समझें ।।१०४।।



हृत्स्थोऽणुसूक्ष्मश्चिद्रूपो ज्ञाता व्याप्याखिलां तनुम्‌ ।

ज्ञानशक्त्या स्थितो जीवोज्ञेयोऽच्छेद्यादिलक्षण: ।।१०५।।

अब जीवका लक्षण बताते हैं, जो जीव है, वह हृदय में रहा है, अणु समान अत्यन्त सूक्ष्म है, चैतन्यस्वरुप है, ज्ञाता है, अपनी ज्ञान शक्ति द्वारा नख से शिखापर्यन्त अपने समस्त शरीर में व्याप्त है तथा अछेद्य, अभेद्य, अजर, अमर इत्यादि लक्षणों से युक्त है, इस प्रकार जीव को समझें ।।१०५।।



त्रिगुणात्मा तम: कृष्णशक्तिर्देहतदीययो: ।

जीवस्य चाहं ममताहेतुर्मायावगम्यताम्‌ ।।१०६।।

और जो माया है, वह त्रिगुणात्मिका है, अन्धकार स्वरुप है, श्रीकृष्ण भगवान की शक्ति है तथा जीव को देह और देह के जो संबंधी में अहं ममत्व उत्पन्न करानेवाली है। इसप्रकार माया को समझें ।।१०६।।



हृदये जीववज्जीवे योऽन्तर्यामितया स्थित: ।

ज्ञेय: स्वतन्त्र ईशोऽसौ सर्वकर्मफलप्रद: ।।१०७।।

और जो ईश्वर हैं, वे जैसे जीव हृदय में रहा है, वैसे ही उस जीव में अन्तर्यामी रुप से रहै हैं और स्वतंत्र हैं तथा सर्व जीवों के कर्मफल प्रदाता हैं, इसप्रकार ईश्वरको समझें ।।१०७।।



स श्रीकृष्ण: परंब्रह्म भगवान्‌ पुरुषोत्तम: ।

उपास्य इष्टदेवो न: सर्वाविर्भावकारणम्‌ ।।१०८।।

और वे ईश्वर कौन ? तो परब्रह्म पुरुषोत्तम ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान हैं, वे ही ईश्वर हैं तथा वे श्रीकृष्ण हमारे इष्टदेव हैं और उपासना करने योग्य हैं और सर्व अवतारों के कारण हैं ।।१०८।।



स राधया युतो ज्ञेयो राधाकृष्ण इति प्रभु: ।

रुक्मिण्या रमयोपेतो लक्ष्मीनारायण: स हि ।।१०९।।

समर्थ ऐसे वे श्रीकृष्ण भगवान जब राधिकाजी के साथ हों तब ‘राधाकृष्ण’ कहलाते हैं तथा वे जब रुक्मिणी स्वरुप लक्ष्मीजी से युक्त हों तब ‘लक्ष्मीनारायण’ कहलाते हैं ।।१०९।।



ज्ञेयोऽर्जुनेन युक्तोऽसौ नरनारायणाभिध: ।

बलभद्रादियोगेन तत्तन्नामोच्यते स च ।।११०।।

और वे जो श्रीकृष्ण जब अर्जुन से युक्त हों तब उन्हें ‘नरनारायण’ नाम से जानना और वे जो श्रीकृष्ण जब बलभद्रादि के साथ हों तब उन उन नामों से कहे जाते हैं ऐसा जानना ।।११०।।



एते राधादयो भक्तास्तस्य स्यु: पार्श्वत: क्वचित्‌ ।

क्वचित्तदङ्गेऽतिस्नेहात्स तु ज्ञेयस्तदैकल: ।।१११।।

और वे राधादि भक्त कभी तो श्रीकृष्ण भगवान के पार्श्व में रहते हैं और कभी अत्यन्त स्नेह से श्रीकृष्ण भगवान के अंग में लीन रहते हैं तब तो श्रीकृष्ण भगवान को अकेले ही समझना ।।१११।।



अतश्चास्य स्वरुपेषु भेदो ज्ञेयो न सर्वथा ।

चतुरादिभुजत्वं तु द्विबाहोस्तस्य चैच्छिकम्‌ ।।११२।।

अतएव श्रीकृष्ण भगवान के स्वरुपों में किसी भी प्रकार का भेद न समझें और चतुर्भुज, अष्टभुज, सहस्रभुज इत्यादि जो भेद मालूम पडते हैं, वे तो द्विभुज ऐसे श्रीकृष्ण की इच्छा से ही हैं, ऐसा समझें ।।११२।।



तस्यैव सर्वथा भक्ति: कर्तव्या मनुजैर्भुवि ।

नि:श्रेयसकरं किञ्चित्ततोऽन्यन्नेति दृश्यताम्‌ ।।११३।।

ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान उनकी भक्ति, पृथ्वी पर के सभी मनुष्य करें और उस भक्ति से अधिक कल्याणकारी कोई अन्य साधन नहीं है ऐसा जानें ।।११३।।



गुणिनां गुणवत्ताया ज्ञेयं ह्येतत्‌ परं फलम्‌ ।

कृष्णे भक्तिश्च सत्सङ्गोऽन्यथा यान्ति विदोऽप्यध: ।।११४।।

और श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति तथा सत्संग करना यही विद्यादि गुणों से युक्त पुरुषों के गुणों का परम फल है, अन्यथा भक्ति तथा सत्संग इन दोनों के बिना तो विद्वान भी अधोगति को प्राप्त करता है ।।११४।।



कृष्णस्तदवताराश्च ध्येयास्तत्प्रतिमाऽपि च ।

न तु जीवा नृदेवाद्या भक्ता ब्रह्मविदोऽपि च ।।११५।।

श्रीकृष्ण भगवान तथा उनके अवतार ध्यान करने योग्य हैं तथा उनकी प्रतिमा भी ध्यान करने योग्य हैं अत: उनका ध्यान करें; परंतु मनुष्य तथा देवादि जो जीव वे तो श्रीकृष्ण भगवान के भक्त हों तथा ब्रह्मवेत्ता हों तो भी ध्यान करने योग्य नहीं है। अत: उनका ध्यान न करें ।।११५।।



निजात्मानं ब्रह्मरू पं देहत्रयविलक्षणम्‌ ।

विभाव्य तेन कर्तव्या भक्ति: कृष्णस्य सर्वदा ।।११६।।

स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन देहों से विलक्षण ऐसी जो अपनी जीवात्मा को ब्रह्मरुप की भावना कर ब्रह्मरुप से श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति निरन्तर करें ।।११६।।



श्रव्य: श्रीमद्‌भागवतदशमस्कन्ध आदरात्‌ ।

प्रत्यहं वा सकृद्वर्षे वर्षे वाच्योऽथ पण्डितै: ।।११७।।

और श्रीमद्‌ भागवत पुराण के दशमस्कंध को नित्य आदरपूर्वक सुनें अथवा प्रतिवर्ष एक बार सुनें और जो पंडित हों वे उसका प्रतिदिन पाठ करें अथवा प्रतिवर्ष एक बार पाठ करें ।।११७।।



कारणीया पुरश्चर्या पुण्यस्थानेऽस्य शक्तित: ।

विष्णुनामसहस्रादेश्चापि कार्येप्सितप्रदा ।।११८।।

और उस दशमस्कंध का पुरश्चरण अपनी शक्ति के अनुसार किसी पवित्र स्थान में करें, करावें तथा विष्णुसहस्र नाम आदि सच्छास्त्रों का पुरश्चरण भी अपनी शक्ति के अनुसार करें तथा करावें यह पुरश्चरण अपने मनोवांछित फलको देनेवाला है ।।११८।।



दैव्यामापदि कष्टायां मानुष्यां वा गदादिषु ।

यथा स्वपररक्षा स्यात्तथा वृत्त्यं न चान्यथा ।।११९।।

कष्टदायक ऐसी दैव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी तथा रोगादि सम्बन्धी कोई भी आपत्ति आ पडें, तो अपनी और अन्य की रक्षा हो वैसा आचरण करें, किन्तु अन्य रीति से आचरण न करें ।।११९।।



देशकालवयोवित्त जातिशक्त्यनुसारत: ।

आचारो व्यवहारश्च निष्कृतं चावधार्यताम्‌ ।।१२०।।

आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित इन तीनों बातों को देश, काल, अवस्था, द्रव्य, जाति और शक्ति के अनुसार जानें ।।१२०।।



मतं विशिष्टाद्वैतं मे गोलोको धाम चेप्सितम्‌ ।

तत्र ब्रह्मात्मना कृष्णसेवा मुक्तिश्च गम्यताम्‌ ।।१२१।।

हमारा मत विशिष्टाद्वैत है, हमारा प्रिय धाम गोलोक है और उस धाम में ब्रह्मरुप से श्रीकृष्ण भगवान की सेवा करना उसीको हमने मुक्ति मानी है, ऐसा जानें ।।१२१।।



एते साधारणा धर्मा: पुंसां स्त्रीणां च सर्वत: ।

मदाश्रितानां कथिता विशेषानथ कीर्तये ।।१२२।।

ये जो पूर्वोक्त सभी धर्म कहें-वे हमारे आश्रित, त्यागी तथा गृहस्थ स्त्री पुरुष सभी सत्संगीजनों के सामान्य धर्म हैं अर्थात्‌ सभी सत्संगीजनों द्वारा समानरुप से पालनीय हैं और अब इन सभीके विशेष धर्मों को पृथक पृथक रुप से कहते हैं ।।१२२।।



मज्ज्येष्ठावरजभ्रातृसुताभ्यां तु कदाचन ।

स्वासन्नसम्बन्धहीना नोपदेश्या हि योषित: ।।१२३।।

अब प्रथम धर्मवंशी आचार्य तथा उनकी पत्नियों के विशेष धर्म कहते हैं-हमारे बडे भाई तथा छोटे भाई के पुत्र (क्रमश:) जो अयोध्याप्रसादजी तथा रघुवीरजी हैं, वे अपने समीप सम्बन्ध रहित अन्य स्त्रियों को मंत्र उपदेश कदापि न करें ।।१२३।।



न स्प्रष्टव्याश्च ता: क्वापि भाषणीयाश्च ता न हि ।

क्रौर्यं कार्यं न कस्मिंश्चिन्न्यासो रक्ष्यो न कस्यचित्‌ ।।१२४।।

और कभी उन स्त्रियों का स्पर्श न करें तथा न उनके साथ बात करें तथा किसी जीव पर क्रूरता न करें और किसी की धरोहर (थाती) कदापि न रखें ।।१२४।।



प्रतिभूत्वं न कस्यापि कार्यं च व्यावहारिके ।

भिक्षयापदतिक्रम्या न तु कार्यमृणं क्वचित्‌ ।।१२५।।

व्यवहार कार्य में किसी की भी जामिनी न करें तथा कोई आपत्काल आ पडे तो भिक्षा माँगकर अपना जीवन निर्वाह करके आपत्काल पार करें; परन्तु किसी का कर्ज तो कदापि न करें ।।१२५।।



स्वशिष्यार्पितधान्यस्य कर्तव्यो विक्रयो न च ।

जीर्णं दत्त्वा नवीनं तु ग्राह्यं तन्नैष विक्रय: ।।१२६।।

अपने शिष्यों ने धर्म के निमित्त से जो अन्न दिया हो उसको बेचे नहीं। यदि वह अन्न पुराना हो जाय तो पुराना किसी को देकर नया लें। इसप्रकार पुराना किसी को देकर नया लेना यह विक्रय नहीं माना जाता ।।१२६।।



भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां च कार्यं विघ्नेशपूजनम्‌ ।

इषकृष्णचतुर्दश्यां कार्याऽर्चा च हनूमत: ।।१२७।।

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन गणपति की पूजा करें तथा आश्विन कृष्ण चतुर्दशी के दिन हनुमानजी की पूजा करें ।।१२७।।



मदाश्रितानां सर्वेषां धर्मरक्षणहेतवे ।

गुुरुत्वे स्थापिताभ्यां च ताभ्यां दीक्ष्या मुमुक्षव: ।।१२८।।

हमारे आश्रित सभी सत्संगीजनों के धर्म की रक्षा के लिए उन सभी के आचार्य पद पर हमारे द्वारा स्थापित जो दोनों आचार्य अयोध्याप्रसादजी तथा रघुवीरजी वे मुमुक्षुजनों को (भागवती) दीक्षा दें ।।१२८।।



यथाधिकारं संस्थाप्या: स्वे स्वे धर्मे निजाश्रिता: ।

मान्या: सन्तश्च कर्तव्य: सच्छाशास्त्राभ्यास आदरात्‌ ।।१२९।।

और अपने आश्रित सभी सत्संगीजनों को अधिकर अनुसार अपने अपने धर्म में रखें और साधुओं को आदरपूर्वक मानें तथा सच्छास्त्र का अध्ययन आदरपूर्वक करें ।।१२९।।



मया प्रतिष्ठापितानां मन्दिरेषु महत्सु च ।

लक्ष्मीनारायणादीनां सेवा कार्या यथाविधि ।।१३०।।

हमारे द्वारा बडे बडे मंदिरो में संस्थापित श्री लक्ष्मीनारायणादि श्रीकृष्ण के स्वरुपों की सेवा यथाविधि करें ।।१३०।।



भगवन्मन्दिरं प्राप्तो योऽन्नार्थी कोऽपि मानव: ।

आदरात्स तु सम्भाव्यो दानेनान्नस्य शक्तित: ।।१३१।।

और भगवान के मंदिर में आये हुए किसी भी अन्नार्थी ऐसे हरएक मनुष्य की अपनी शक्ति के अनुसार अन्नदान द्वारा आदरपूर्वक संभावना करें ।।१३१।।



संस्थाप्य विप्रं विद्वांसं पाठशालां विधाप्य च ।

प्रवर्तनीया सद्‌विद्या भुवि यत्सुकृतं महत्‌ ।।१३२।।

और विद्याध्ययन के लिए पाठशाला स्थापित करके उसमें विद्वान ब्राह्मण को रखकर पृथ्वी पर सद्‌विद्या का प्रवर्तन करावें क्योंकि विद्यादान से महान पुण्य होता है ।।१३२।।



अथैतयोस्तु भार्याभ्यामाज्ञया पत्युरात्मन: ।

कृष्णमन्त्रोपदेशश्च कर्तव्य: स्त्रीभ्य एव हि ।।१३३।।

अब अयोध्याप्रसादजी तथा रघुवीरजी, इन दोनों की जो पत्नियाँ हैं वे अपने पति की आज्ञा से स्त्रियों को ही श्रीकृष्ण के मंत्र का उपदेश करें; परन्तु पुरुष को मंत्र उपदेश न करें ।।१३३।।



स्वासन्नसम्बन्धहीना नरास्ताभ्यां तु कर्हिचित्‌ ।

नस्प्रष्टव्या न भाष्याश्च तेभ्यो दर्श्यं मुखं न च ।।१३४।।

उन दोनों की पत्नियाँ अपने समीप सम्बन्ध रहित पुरुषों का स्पर्श कदापि न करें और उसके साथ बात भी न करें तथा उन्हें अपना मुख भी न दिखायें (इस प्रकार धर्मवंशी आचार्य और उनकी पत्नियों के धर्म कहे गये) ।।१३४।।



गृहाख्याश्रमिणो ये स्यु: पुरुषा मदुपाश्रिता: ।

स्वासन्नसम्बन्धहीना न स्पृश्या विधवाश्च तै: ।।१३५।।

अब गृहस्थाश्रमियों के विशेष धर्म कहते हैं-हमारे आश्रित गृहस्थाश्रमी पुरुष अपने समीप सम्बन्ध रहित विधवा स्त्रियों का स्पर्श न करें ।।१३५।।



मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा विजने तु वय:स्थया ।

अनापदि न तै: स्थेयं कार्यं दानं न योषित: ।।१३६।।

और वे गृहस्थाश्रमी पुरुष, युवा अवस्थायुक्त अपनी माता, बहन एवं पुत्री के साथ भी बिना आपत्काल एकान्त स्थल में न रहें और अपनी स्त्री का दान किसी को न करें ।।१३६।।



प्रसङ्गो व्यवहारेण यस्या: केनापि भूपते: ।

भवेत्तस्या: स्त्रिया: कार्य: प्रसङ्गो नैव सर्वथा ।।१३७।।

और जिस स्त्री को किसी प्रकार के व्यवहार द्वारा राजा से सम्बन्ध हो, ऐसी स्त्री का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध न रखें ।।१३७।।



अन्नाद्यै: शक्तितोऽभ्यर्च्यो ह्यतिथिस्तैर्गृहागत: ।

दैवं पैत्र्यं यथाशक्ति कर्तव्यं च यथोचितम्‌ ।।१३८।।

वे गृहस्थाश्रमी अपने घर पर आये हुए अतिथि का अपनी शक्ति के अनुसार अन्नादि से सत्कार करें तथा होमादिक देवकर्म एवं श्राद्धादि जो पितृकर्म अपने सामर्थ्य के अनुसार यथाविधि-जैसे उचित हों वैसे करें ।।१३८।।



यावज्जीवं च शुश्रूषा कार्या मातु: पितुर्गुरो: ।

रोगार्तस्य मनुष्यस्य यथाशक्ति च मामकै: ।।१३९।।

हमारे आश्रित जो गृहस्थ हैं वे माता, पिता, गुरु तथा रोगातुर ऐसे कोई मनुष्य, उनकी सेवा जीवनपर्यन्त अपने सामर्थ्यानुसार करें ।।१३९।।



यथाशक्त्युद्यम: कार्यो निजवर्णाश्रमोचित: ।

मुष्कच्छेदो न कर्तव्यो वृषस्य कृषिवृत्तिभि: ।।१४०।।

अपने वर्णाश्रम के योग्य उद्यम अपने सामर्थ्यानुसार करें और कृषिवृत्तिवाले गृहस्थ सत्संगी बैल के वृषण का उच्छेद न करें ।।१४०।।



यथाशक्ति यथाकालं सङग्रहोऽन्नधनस्य तै: ।

यावद्‌व्ययं च कर्तव्य: पशुमद्‌भिस्तृणस्य च ।।१४१।।

वे गृहस्थ सत्संगी, अपने सामर्थ्य और समय के अनुसार अपने घर में जितना खर्च-व्यय होता हो उतने अन्न-द्रव्य का संग्रह करें और जिसके घर में पशु हों, वे गृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार घास-चारों का संग्रह करें ।।१४१।।



गवादीनां पशूनां च तृणतोयादिभिर्यदि ।

सम्भावनं भवेत्स्वेन रक्ष्यास्ते तर्हि नान्यथा ।।१४२।।

और गाय, बैल, भैंस, घोडे आदि जो पशु, उनकी यदि चारापानी से अपने द्वारा संभावना हो सकें तो उनको रखें, अगर देखभाल न हो सकें तो उन्हें न रखें ।।१४२।।



ससाक्ष्यमन्तरा लेखं पुत्रमित्रादिनाऽपि च ।

भूवित्तदानादानाभ्यां व्यवहार्यं न कर्हिचित्‌ ।।१४३।।

साक्षी सहित लेख किये बिना तो अपने पुत्र तथा मित्रादिक के साथ भी पृथ्वी और धन के लेनदेन का व्यवहार कदापि न करें ।।१४३।।



कार्ये वैवाहिके स्वस्यान्यस्य वार्प्यधनस्य तु ।

भाषाबन्धो न कर्तव्य: ससाक्ष्यं लेखमन्तरा ।।१४४।।

और अपने अथवा दूसरे के विवाह सम्बन्धी कार्य में देने योग्य जो धन, उसका साक्षी सहित लेख किये बिना केवल मौखिक वादा न करें ।।१४४।।



आयद्रव्यानुसारेण व्यय: कार्यो हि सर्वदा ।

अन्यथा तु महद्‌दु:खं भवेदित्यवधार्यताम्‌ ।।१४५।।

अपनी आय के अनुसार ही निरंतर व्यय करें; परंतु उससे अधिक व्यय न करें और जो आय से अधिक खर्च-व्यय करते हैं, वे बहुत दु:खी होते हैं, ऐसा सभी गृहस्थ मन में समझें ।।१४५।।



द्रव्यस्यायो भवेद्यावान्‌ व्ययो वा व्यावहारिके ।

तौ संस्मृत्य स्वयं लेख्यौ स्वक्षरै: प्रतिवासरम्‌ ।।१४६।।

और अपने व्यवहारकार्य में जितने धन की आमदनी हो तथा जितना व्यय हो; इन दोनों को याद करके प्रतिदिन सुन्दर अक्षरों से स्वयं उनका हिसाब लिखें ।।१४६।।



निजवृत्त्युद्यमप्राप्तधनधान्यादितश्च तै: ।

अर्प्योदशांश: कृष्णाय विंशोंऽशस्त्विह दुर्बलै: ।।१४७।।

और वे गृहस्थाश्रमी सत्संगी, अपनी वृत्ति एवं उद्यम से प्राप्त धन-धान्यादि में से दसर्वां हिस्सा निकालकर श्रीकृष्ण भगवान को अर्पण करें और जो व्यवहार में दुर्बल हों वे बीसवाँ हिस्सा अर्पण करें ।।१४७।।



एकादशीमुखानां च व्रतानां निजशक्तित: ।

उद्यापनं यथाशास्त्रं कर्तव्यंचिन्तितार्थदम्‌ ।।१४८।।

एकादशी आदि जो व्रत, उनका उद्यापन अपने सामर्थ्यानुसार यथाशास्त्र करें क्योंकि यह उद्यापन मनोवांछित फल को देनेवाला है ।।१४८।।



कर्तव्यं कारणीयं वा श्रावणे मासि सर्वथा ।

बिल्वपत्रादिभि: प्रीत्या श्रीमहादेवपूजनम्‌ ।।१४९।।

और श्रावण मास में श्री महादेवजी का पूजन बिल्वपत्रादि द्वारा प्रीतिपूर्वक सभी प्रकार से स्वयं करें अथवा अन्य से करावें ।।१४९।।



स्वाचार्यान्न ऋणं ग्राह्यं श्रीकृष्णस्य च मन्दिरात्‌ ।

ताभ्यां स्वव्यवहारार्थं पात्रभूषांशुकादि च ।।१५०।।

अपने आचार्य से तथा श्रीकृष्ण भगवान के मंदिर से कर्ज न लें और अपने आचार्य तथा श्रीकृष्ण के मंदिर से अपने व्यवहार के लिए पात्र, गहनें एवं वस्त्रादि चीजें माँग कर न लावें ।।१५०।।

श्रीकृष्णगुरुसाधूनां दर्शनार्थं गतौ पथि ।

तत्स्थानेषु च न ग्राह्यं परान्नं निजपुण्यहृत्‌ ।।१५१।।

श्रीकृष्ण भगवान, अपने गुरु तथा साधुओं के दर्शन के लिए जाते समय मार्ग में पराया अन्न न खाएँ तथा श्रीकृष्ण भगवान, अपने गुरु एवं साधुओं के स्थानों में भी पराया अन्न न खाएँ क्योंकि पराया अन्न तो अपने पुण्य को हरनेवाला है। अत: अपनी गाँठ का ही खर्च (खायें) करें ।।१५१।।



प्रतिज्ञातं धनं देयं यत्स्यात्तत्‌ कर्मकारिणे ।

न गोप्यमृणशुद्धयादि व्यवहार्यं न दुर्जनै: ।।१५२।।

अपने कामकाज के लिए बुलाये गये मजदूरों को जितना धन अथवा धान्य देनेका वादा किया गया हो उतना अवश्य दें; परंतु उससे कम न दें और अपने पास कोई कर्ज माँगता है और उस कर्जको यदि चुका दिया हो तो इस बात को गुप्त न रखें तथा अपना वंश एवं कन्यादान भी गुप्त न रखें और दुष्ट लोगों के साथ व्यवहार न करें ।।१५२।।



दुष्कालस्य रिपूणां वा नृपस्योपद्रवेण वा ।

लज्जाधनप्राणनाश: प्राप्त: स्याद्यत्र सर्वथा ।।१५३।।

जिस स्थान में हम रहते हैं; उस स्थान में यदि दुष्काल, शत्रु अथवा राजा के उपद्रव आदि से सर्वथा अपनी लाजमर्यादा का नाश होता हो या धन का नाश होता हो या अपने प्राण का नाश होता हो ।।१५३।।



मूलदेशोऽपि स स्वेषां सद्य एव विचक्षणै: ।

त्याज्यो मदाश्रितै: स्थेयं गत्वा देशान्तरं सुखम्‌ ।।१५४।।

और यदि वह अपनी मूल जागीर तथा वतन का गाँव हो तो भी विवेकवान हमारे सत्संगी गृहस्थ उसका त्याग करें और जहाँ उपद्रव न हों ऐसे अन्य देश-स्थान में जाकर सुखपूर्वक रहें ।।१५४।।



आढयैस्तु गृहिभि: कार्या अहिंसा वैष्णवा मखा: ।

तीर्थेषु पर्वसु तथा भोज्या विप्राश्च साधव: ।।१५५।।

धनवान ऐसे जो गृहस्थ सत्संगी हैं, वे हिंसारहित विष्णु सम्बन्धी यज्ञ करें तथा तीर्थ स्थान में एवं द्वादशी आदि पर्व के दिनों में ब्राह्मण तथा साधुओं को भोजन करावें ।।१५५।।



महोत्सवा भगवत: कर्तव्या मन्दिरेषु तै: ।

देयानि पात्रविप्रेभ्यो दानानि विविधानि च ।।१५६।।

और वे धनवान गृहस्थ सत्संगी, भगवान के मंदिरों में बडे बडे उत्सव करावें तथा सुपात्र ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान दें ।।१५६।।



मदाश्रितैर्नृपैर्धर्मशास्त्रमाश्रित्य चाखिला: ।

प्रजा: स्वा: पुत्रवत्पाल्या धर्म: स्थाप्यो धरातले ।।१५७।।

हमारे आश्रित ऐसे जो सत्संगी राजा, वे धर्मशास्त्र के अनुसार अपनी प्रजा का पुत्रवत्‌ पालन करें और पृथ्वी पर धर्म का स्थापन करें ।।१५७।।



राज्याङगोपायषड्‌वर्गा ज्ञेयास्तीर्थानि चाञ्जसा ।

व्यवहारविद: सभ्या दण्डयादण्डयाश्च लक्षणै: ।।१५८।।

और वे राजा राज्य के सात अंग, चार उपाय तथा छ: गुणों को लक्षणपूर्वक यथार्थ रुप से जानें तथा तीर्थ अर्थात्‌ गुप्तचर भेजने के स्थान, व्यवहार के ज्ञाता जो सभासद, दण्डनीय मनुष्य तथा अदण्डनीय मनुष्य, इन सभी को उनके लक्षणों द्वारा यथार्थरुप से जानें ।।१५८।।



सभर्तृकाभिर्नारीभि: सेव्य: स्वपतिरीशवत्‌ ।

अन्धो रोगी दरिद्रो वा षण्ढो वाच्यं न दुर्वच: ।।१५९।।

अब सधवा स्त्रियों के विशेष धर्म कहते हैं-हमारे आश्रित जो सधवा स्त्रियाँ, वे अपना पति अन्ध हो, रोगी हो, दरिद्र हो, नपुंसक हो, तो भी उसकी ईश्वर के समान ही सेवा करें और उसके प्रति कटुवचन न बोलें ।।१५९।।



रू पयौवनयुक्तस्य गुणिनोऽन्यनरस्य तु ।

प्रसङ्गो नैव कर्तव्यस्ताभि: साहजिकोऽपि च ।।१६०।।

और वे सधवा स्त्रियाँ रुप-यौवन से युक्त तथा गुणवान ऐसे परपुरुष का प्रसंग सहज स्वभाव से भी न करें ।।१६०।।



नरेक्ष्यनाभ्युरुकुचाऽनुत्तरीया च नो भवेत्‌ ।

साध्वी स्त्री न च भण्डेक्षा न निर्लज्जादिसङ्गिनी ।।१६१।।

और पतिव्रता ऐसी जो सधवा स्त्रियाँ वे अपनी नाभि, जांघ और वक्ष:स्थल अन्य पुरुष को दिखाई दें ऐसे ढंग से न रहें और बिना उत्तरीय वस्त्र, खुले शरीर में न रहें तथा भांडलीला आदि देखने न जायें और निर्लज्ज, स्वैरिणी, कामिनी, और पुंश्चला (कुलटा) आदि स्त्रियों का संग न करें ।।१६१।।



भूषासदंशुकधृति: परगेहोपवेशनम्‌ ।

त्याज्यं हास्यादि च स्त्रीभि: पत्यौ देशान्तरं गते ।।१६२।।

और वे सधवा स्त्रियाँ, जब अपना पति विदेश गया हो तब आभूषण धारण न करें तथा सुन्दर वस्त्र परिधान न करें और पराये घर बैठने न जायें तथा हास्य-विनोद आदिका त्याग करें ।।१६२।।



विधवाभिस्तु योषाभि: सेव्य: पतिधिया हरि: ।

आज्ञायां पितृपुत्रादेर्वृत्यं स्वातन्त्र्यतो न तु ।।१६३।।

अब विधवा स्त्रियों के विशेष धर्म कहते हैं-हमारे आश्रित जो विधवा स्त्रियाँ, वे पतिबुद्धि से श्रीकृष्ण भगवान की सेवा करें और अपने पिता-पुत्रादि सम्बन्धीजनों की आज्ञानुसार ही रहें; परन्तु स्वतन्त्रता से आचरण न करें(न बर्तें) ।।१६३।।



स्वासन्नसम्बन्धहीना नरा: स्पृश्या न कर्हिचित्‌ ।

तरुणैस्तैश्च तारुण्ये भाष्यं नावश्यकं विना ।।१६४।।

और वे विधवा स्त्रियाँ, अपने निकट सम्बन्ध रहित पुरुषों का स्पर्श कदापि न करें और अपनी युवावस्था में बिना आवश्यक कार्य, समीप सम्बन्ध रहित युवान पुरुषों के साथ कदापि बातचीत न करें ।।१६४।।



स्तनन्धयस्य नु: स्पर्शे न दोषोऽस्ति पशोरिव ।

आवश्यके च वृद्धस्य स्पर्शे तेन च भाषणे ।।१६५।।

और दूधमुँहे बच्चे को छूने में तो जैसे पशु को छूने में दोष नहीं है ठीक उसी प्रकार दोष नहीं है तथा किसी आवश्यक कार्य के लिए किसी वृद्ध पुरुष का स्पर्श हो जाए तथा उसके साथ बोला जाय तो उसमें दोष नहीं है ।।१६५।।



विद्याऽनासन्नसम्बन्धात्ताभि: पाठया न काऽपि नु: ।

व्रतोपवासै: कर्तव्यो मुहुर्देहदमस्तथा ।।१६६।।

और वे विधवा स्त्रियाँ, अपने समीप सम्बन्ध रहित पुरुष से कोई भी विद्या न सीखें और व्रत-उपवास आदि द्वारा बारबार; अपनी देह का दमन करें ।।१६६।।



धनं च धर्म कार्येऽपि स्वनिर्वाहोपयोगि यत्‌ ।

देयं ताभिर्न तत्‌ क्वापि देयं चेदधिकं तदा ।।१६७।।

और उन विधवा स्त्रियों के घर में यदि अपने जीवनपर्यन्त देह निर्वाह हो सके उतना ही धन हो तो वे उस धन का धर्म-कार्य के लिए भी दान न करें; अगर उससे अधिक हो तो दान करें ।।१६७।।



कार्यश्च सकृदाहारस्ताभि: स्वापस्तु भूतले ।

मैथुनासक्तयोर्वीक्षा क्वापि कार्या न देहिनो: ।।१६८।।

और विधवा स्त्रियाँ एक बार ही भोजन करें तथा पृथ्वी पर ही शयन करें तथा मैथुनासक्त पशु पक्षी आदि जीव प्राणिमात्र को कदापि न देखें ।।१६८।।



वेषो न धार्यस्ताभिश्च सुवासिन्या: स्त्रियास्तथा ।

न्यासिन्या वीतरागाया विकृतश्च न कर्हिचित्‌ ।।१६९।।

और वे विधवा स्त्रियाँ सुहागिनी स्त्री के समान वेष धारण न करें तथा सन्यासिनी एवं वैरागिनी जैसा वेष धारण न करें और अपने देश, कुल और आचार के विरुद्ध ऐसा जो वेष भी कदापि धारण न करें ।।१६९।।



सङ्गो न गर्भपातिन्या: स्पर्श: कार्यश्च योषित: ।

शृङ्गारवार्ता न नृणां कार्या: श्रव्या न वै क्वचित्‌ ।।१७०।।

और गर्भपातिनी स्त्री का संग न करें और उसका स्पर्श भी न करें तथा पुरुष के शृंगार सम्बन्धी वार्ता कदापि न करें एवं न सुनें ।।१७०।।



निजसम्बन्धिभिरपि तारुण्ये तरुणैर्नरै: ।

साकं रहसि न स्थेयं ताभिरापदमन्तरा ।।१७१।।

और युवावस्था में रही ऐसी जो विधवा स्त्रियाँ वे युवावस्थावाले जो अपने सम्बन्धी पुरुषों के साथ भी एकान्त में आपत्काल पडे बिना न रहें ।।१७१।।



न होलाखेलनं कार्यं न भूषादेश्च धारणम्‌ ।

न धातुसूत्रयुक्सूक्ष्मवस्त्रादेरपि कर्हिचित्‌ ।।१७२।।

और होली न खेलें, आभूषणादि को धारण न करें तथा सुवर्णादि धातु के तारों से युक्त वस्त्रों को भी कदापि धारण न करें ।।१७२।।



सधवा विधवाभिश्च न स्नातव्यं निरम्बरम्‌ ।

स्वरजोदर्शनं स्त्रीभिर्गोपनीयं न सर्वथा ।।१७३।।

सधवा तथा विधवा स्त्रियाँ, बिना वस्त्र, स्नान न करें और अपने रजस्वलापन को किसी भी प्रकार से गुप्त न रखें ।।१७३।।



मनुष्यं चांशुकादीनि नारी क्वापि रजस्वला ।

दिनत्रयं स्पृशेन्नैव स्नात्वा तुर्येऽह्वि सा स्पृशेत्‌ ।।१७४।।

और रजस्वला ऐसी सधवा तथा विधवा स्त्रियाँ, तीन दिन तक किसी मनुष्य का या वस्त्रादि का स्पर्श न करें। चौथे दिन स्नान करके ही स्पर्श करें। (इस प्रकार गृहस्थाश्रमी पुरुष तथा स्त्रियों के जो विशेष धर्म कहे गये, उनका सभी धर्मवंशी आचार्य तथा उनकी पत्नियाँ भी पालन करें क्योंकि वे भी गृहस्थ हैं) ।।१७४।।



नैष्ठिकव्रतवन्तो ये वर्णिनो मदुपाश्रया: ।

तै: स्पृश्या न स्त्रियो भाष्या न च वीक्ष्याश्च ता धिया ।।१७५।।

अब नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के विशेष धर्म कहते हैं-हमारे आश्रित नैष्ठिक ब्रह्मचारी स्त्रीमात्र का स्पर्श न करें और स्त्री के साथ बोले नहीं एवं जानबूझकर स्त्रीकी और देखें नहीं ।।१७५।।



तासां वार्ता न कर्तव्या न श्रव्याश्च कदाचन ।

तत्पादचारस्थानेषु न च स्नानादिका क्रिया: ।।१७६।।

और उन स्त्रियों के बारे में कदापि चर्चा न करें और न सुनें तथा जिस स्थान में स्त्रियों का पद-संचार हों उस स्थान में स्नानादि क्रिया करने के लिए भी न जायें ।।१७६।।



देवताप्रतिमां हित्वा लेख्या काष्ठादिजापि वा ।

न योषित्प्रतिमा स्पृश्या न वीक्ष्याबुद्धिपूर्वकम्‌ ।।१७७।।

देवता की प्रतिमा के बिना दूसरी स्त्री की प्रतिमा जो चित्रित या काष्ठादि से निर्मित हों तो भी उनका स्पर्श न करें और जान बूझकर उस प्रतिमा को देखें भी नहीं ।।१७७।।



न स्त्रीप्रतिकृति: कार्या न स्पृश्यं योषितोंऽशुकम्‌ ।

न वीक्ष्यं मैथुनपरं प्राणिमात्रं च तैर्धिया ।।१७८।।

और वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी, स्त्री की प्रतिमा की रचना कदापि न करें तथा स्त्री द्वारा अपने शरीर पर धारण किये गये वस्त्र का स्पर्श न करें और मैथुनासक्त पशुपक्षी आदि प्राणिमात्र को जान बूझकर न देखें ।।१७८।।



न स्पृश्यो नेक्षणीयश्च नारीवेषधर: पुमान् ‌।

न कार्यं स्त्री: समुद्दिश्य भगवद्‌गुणकीर्तनम्‌ ।।१७९।।

और स्त्री के वेश को धारण किये हुए पुरुष का स्पर्श न करें, उसकी ओर देखे भी नहीं । उसके साथ बोले भी नहीं और स्त्रियों को उद्देश (संबोधित) करके भगवान की कथा, वार्ता, कीर्तन आदि भी न करें ।।१७९।।



ब्रह्मचर्य व्रतत्यागपरं वाक्यं गुरोरपि ।

तैर्न मान्यं सदा स्थेयं धीरैस्तुष्टैरमानिभि :।।१८०।।

और वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी, जिससे नैष्ठिक व्रत का भंग होता हो, ऐसा वचन अपने गुरु का हो तो भी उसको न मानें और निरंतर धैर्यवान रहें तथा संतोषयुक्त रहें एवं मानरहित रहें ।।१८०।।



स्वातिनैकट्यमायान्ती प्रसभं वनिता तु या ।

निवारणीया सा भाष्य तिरस्कृत्यापि वा द्रुतम्‌। ।।१८१।।

बलात्‌ अपने अत्यंत समीप आनेवाली स्त्री को बोलकर अथवा उसका तिरस्कार करके भी उसे निवारें; परंतु समीप कदापि न आने दें ।।१८१।।



प्राणापद्युपपन्नायां स्त्रीणां स्वेषां च वा क्वचित्‌ ।

तदा स्पृष्ट्‌वापि तद्रक्षा कार्या सम्भाष्य ताश्च वा ।।१८२।।

और यदि कदाचित्‌ स्त्रियों के अथवा अपने प्राण का नाश हों ऐसे आपत्काल के समय पर तो स्त्रियों का स्पर्श करके अथवा उनके साथ बोलकर भी उन स्त्रियों की रक्षा करें तथा अपनी भी रक्षा करें ।।१८२।।



तैलाभ्यङ्गो न कर्तव्यो न धार्यं चायुधं तथा ।

वेषो न विकृतो धार्यो जेतव्या रसना च तै: ।।१८३।।

वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी, अपने शरीर पर तेल मर्दन न करें तथा आयुध धारण न करें और भयंकर वेश भी धारण न करें तथा रसना इन्द्रिय को वश में करें ।।१८३।।



परिवेषणकर्त्री स्याद्यत्र स्त्री विप्रवेश्मनि ।

न गम्यं तत्र भिक्षार्थं गन्तव्यमितरत्र तु ।।१८४।।

जिस ब्राह्मण के घर पर स्त्री परोसनेवाली हो उसके घर भिक्षा के लिए न जायें। जहाँ पुरुष परोसनेवाला हो वहाँ जायें ।।१८४।।



अभ्यासो वेदशास्त्राणां कार्यश्च गुरुसेवनम्‌ ।

वर्ज्य: स्त्रीणामिव स्रैणपुंसां सङ्गश्च तै: सदा ।।१८५।।

वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वेदशास्त्रों का अध्ययन करें तथा गुरु की सेवा करें और स्त्रियों के समान ही स्त्रैण पुरुषों के संग का भी सर्वदा त्याग करें ।।१८५।।



चर्मवारि न वै पेयं जात्या विप्रेण केनचित्‌ ।

पलाण्डुलशुनाद्यं च तेन भक्ष्यं न सर्वथा ।।१८६।।

जाति से जो ब्राह्मण हैं वे चमडे के पात्र से निकाला हुआ पानी कदापि न पीयें तथा प्याज और लहसुन आदि अभक्ष्य चीजों का भोजन किसी भी प्रकार से न करें ।।१८६।।



स्नानं सन्ध्यां च गायत्रीजपं श्रीविष्णुपूजनम्‌ ।

अकृत्वा वैश्वदेवं च कर्तव्यं नैव भोजनम्‌ ।।१८७।।

जो ब्राह्मण हों वे स्नान, संध्या, गायत्री का जप, श्रीविष्णु की पूजा तथा वैश्वदेव, इतना किये बिना भोजन कदापि न करें। (इस प्रकार नैष्ठिक ब्रह्मचारी के धर्म कहे गये) ।।१८७।।



साधवो येऽथ तै: सर्वै र्नैष्ठिकब्रह्मचारिवत्‌ ।

स्त्रीस्त्रैणसङगादि वर्ज्यं जेतव्याश्चान्तरारय: ।।१८८।।

अब साधु के विशेष धर्म कहते हैैं-हमारे आश्रित सभी साधु, नैष्ठिक ब्रह्मचारी की भाँति ही स्त्रियों के दर्शन भाषण आदि प्रसंग का त्याग करें तथा स्त्रैण पुरुष के प्रसंगादि का त्याग करें और काम, क्रोध, लोभ एवं मान इत्यादि अंत:शत्रुओं को जीतें ।।१८८।।



सर्वेन्द्रियाणि जेयानि रसना तु विशेषत: ।

न द्रव्यसङग्रह: कार्य: कारणीयो न केनचित्‌ ।।१८९।।

और वे सभी इन्द्रियों को वश में करें तथा और रसना इन्द्रिय को तो विशेषरुप से वश में करें। द्रव्य का संग्रह न तो स्वयं करें न अन्य के पास करावें ।।१८९।।



न्यासो रक्ष्यो न कस्यापि धैर्यं त्याज्यं न कर्हिचित्‌ ।

न प्रवेशयितव्या च स्वावासे स्त्री कदाचन ।।१९०।।

किसी की भी धरोहर (थाती) न रखें और कदापि धैर्य का त्याग न करें और अपने आवास-स्थान में स्त्री का प्रवेश कदापि न होने दें ।।१९०।।



न च सङधं विना रात्रौ चलितव्यमनापदि ।

एकाकिभिर्न गन्तव्यं तथा क्वापि विनापदम्‌ ।।१९१।।

वे साधु, आपत्काल के विना रात्रि के समय संग सौबत के बिना कदापि न चलें और आपत्काल के बिना कदापि अकेले न चलें ।।१९१।।



अनर्घ्यं चित्रितं वास: कुसुम्भाद्यैश्च रञ्जितम्‌ ।

न धार्यं च महावस्त्रं प्राप्तमन्येच्छयापि तत्‌ ।।१९२।।

जो वस्त्र बहुमूल्यवान हो, चित्र विचित्र भातवाला हो तथा कसुंबी आदि रंगों से रंगा हुआ हो तथा शाल दुशाला हो और अगर वह अन्य की इच्छा से अपने को प्राप्त हुआ हो तो भी उसको धारण न करें ।।१९२।।



भिक्षां सभां विना नैव गन्तव्यं गृहिणो गृहम्‌ ।

व्यर्थ: कालो न नेतव्यो भक्तिं भगवतो विना ।।१९३।।

भिक्षा तथा सभाप्रसंग, इन दो कार्यों के सिवा गृहस्थ के घर पर न जायें और भगवान की नव प्रकार की भक्ति के बिना व्यर्थ काल न बितावें; निरंतर भक्ति करके ही समय व्यतीत करें ।।१९३।।



पुमानेव भवेद्यत्र पक्वान्नपरिवेषण: ।

ईक्षणादि भवेन्नैव यत्र स्त्रीणां च सर्वथा ।।१९४।।

और जिस गृहस्थ के घर पर पकाये हुए अन्न का परोसनेवाला पुरुष ही हो तथा स्त्रियों के दर्शनादि का प्रसंग किसी भी प्रकार से न हो ।।१९४।।



तत्र गृहिगृहे भोक्तुं गन्तव्यं साधुभिर्मम ।

अन्यथामान्नमर्थित्वा पाक: कार्य: स्वयं च तै: ।।१९५।।

ऐसे गृहस्थ के घर पर हमारे साधु, भोजन के लिए जायें और उपर कहे अनुसार यदि न हो तो कच्चा अन्न माँगकर अपने हाथ से रसोई बनाकर भगवान को नैवेद्य अर्पण करके भोजन करें ।।१९५।।



आर्षभो भरत: पूर्वं जडविप्रो यथा भुवि ।

अवर्ततात्र परमहंसैर्वृत्यं तथैव तै: ।।१९६।।

पूर्वकाल में ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरतजी जिस प्रकार पृथ्वी पर जड बाह्मण के समान आचरण करते थे ठीक उसी प्रकार परमहंस ऐसे जो हमारे साधु वे आचरण करें ।।१९६।।



वर्णिभि: साधुभिश्चैतैर्वर्जनीयं प्रयत्नत: ।

ताम्बूलस्याहिफेनस्य तमालादेश्च भक्षणम्‌ ।।१९७।।

वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी एवं साधु-ताम्बुल, अफीम तथा तम्बाकू इत्यादि के भक्षण का प्रयत्नपूर्वक त्याग करें ।।१९७।।



संस्कारेषु न भोक्तव्यं गर्भाधानमुखेषु तै: ।

प्रेतश्राद्धेषु सर्वेषु श्राद्धे च द्वादशाहिके ।।१९८।।

और वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी एवं साधु, गर्भाधान आदि संस्कार प्रसंग पर भोजन न करें तथा एकादशाहपर्यन्त जो प्रेत श्राद्ध उसके प्रसंग पर तथा द्वादशाह श्राद्ध में भी भोजन न करें ।।१९८।।



दिवास्वापो न कर्तव्यो रोगाद्यापदमन्तरा ।

ग्राम्यवार्ता न कार्या च न श्रव्या बुद्धिपूर्वकम्‌ ।।१९९।।

रोगादि आपतत्काल के बिना दिन मेें निद्रा न करेें और ग्राम्यवार्ता न करेें और जान-बूझकर सुने भी नहीं ।।१९९।।



स्वप्यं न तैश्च खट्‌वायां विना रोगादिमापदम्‌ ।

निश्छद्म वर्तितव्यं च साधूनामग्रत: सदा ।।२००।।

और वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा साधु, रोगादि आपत्काल के बिना चारपाई पर कभी न सोयें और साधुओं के आगे निरंतर निष्कपट भाव से आचरण करें(बर्तें) ।।२००।।



गालिदानं ताडनं च कृतं कुमतिभिर्जनै: ।

क्षन्तव्यमेव सर्वेषां चिन्तनीयं हितं च तै: ।।२०१।।

उन साधु तथा ब्रह्मचारी को यदि कोई कुमतिवाले दुष्टजन गाली दें अथवा मारें तो भी उसे सहन ही करें; परन्तु उसके प्रतिकार में गाली न दें, मारे भी नहीं तथा जिसप्रकार उसका हित हो वैसा ही मन में चिंतन करें; परन्तु उसका बुरा हो ऐसा संकल्प भी न करें ।।२०१।।

दूतकर्म न कर्तव्यं पैशुनं चारकर्म च ।

देहेऽहन्ता च ममता न कार्या स्वजनादिषु ।।२०२।।

किसी का दूतकार्य न करें तथा चुगलखोरी भी न करें चारचक्षु न बनें (जासूसी न करें) तथा देह में अहंबुद्धि और स्वजन आदि में ममत्वबुद्धि न रखें (इसप्रकार साधु के विशेष धर्म कहे गये) ।।२०२।।



इति संक्षेपतो धर्मा:सर्वेषां लिखिता मया ।

साम्प्रदायिकग्रन्थेभ्यो ज्ञेय एषां तु विस्तर: ।।२०३।।

इसप्रकार हमने अपने आश्रित सत्संगी स्त्री पुरुष सभी के सामान्य धर्म तथा विशेष धर्म संक्षेप से लिखे हैं; इन धर्मों का विस्तार हमारे सम्प्रदाय के अन्य ग्रंथों द्वारा जानें ।।२०३।।



सच्छास्त्राणां समुद्धृत्य सर्वेषां सारमात्मना ।

पत्रीयं लिखिता नृणामभीष्टफलदायिनी ।।२०४।।

और हमने अपनी बुद्धि से सभी सच्छास्त्रों का सारांश निकाल कर यह शिक्षापत्री लिखी है, वह कैसी है तो मनुष्य मात्र को अभीष्ट मनोवांछित फल देनेवाली है ।।२०४।।



इमामेव ततो नित्यमनुसृत्य ममाश्रितै: ।

यतात्मभिर्वर्तितव्यं न तु स्वैरं कदाचन ।।२०५।।

इसलिए हमारे आश्रित, सभी सत्संगी सावधानी से निरंतर इस शिक्षापत्री के अनुसार ही आचरण करें(बर्ते); परन्तु अपनी इच्छानुसार कदापि आचरण न करें ।।२०५।।



वर्तिष्यन्ते य इत्थं हि पुरुषा योषितस्तथा ।

ते धर्मादि चतुर्वर्गसिद्धिं प्राप्स्यन्ति निश्चितम्‌ ।।२०६।।

और हमारे आश्रित, जो पुरुष व स्त्रियाँ इस शिक्षापत्री के अनुसार आचरण करेंगे (बर्तेंगे) वे निश्चय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि को प्राप्त करेंगे ।।२०६।।



नेत्थं य आचरिष्यन्ति ते त्वस्मत्सम्प्रदायत: ।

बहिर्भूता इति ज्ञेयं स्त्रीपुंसै: साम्प्रदायिकै: ।।२०७।।

और जो स्त्री पुरुष इस शिक्षापत्री के अनुसार आचरण नहीं करेंगे वे हमारे सम्प्रदाय से बाहर हैं, ऐसा हमारे सम्प्रदायवाले स्त्री-पुरुष समझें ।।२०७।।



शिक्षापत्र्या: प्रतिदिनं पाठोऽस्या मदुपाश्रितै: ।

कर्तव्योऽनक्षरज्ञैस्तु श्रवणं कार्यमादरात्‌ ।।२०८।।

हमारे आश्रित सत्संगी इस शिक्षापत्री का प्रतिदिन पाठ करें और जो अनपढ हैं वे आदरपूर्वक इस शिक्षापत्री का श्रवण करें ।।२०८।।



वक्त्रभावे तु पूजैव कार्याऽस्या: प्रतिवासरम्‌ ।

मद्रूपमिति मद्वाणी मान्येयं परमादरात्‌ ।।२०९।।

और इस शिक्षापत्री को पढकर सुनाये ऐसा कोई न हो तब प्रतिदिन इस शिक्षापत्री की पूजा करें और यह हमारी वाणी वह हमारा स्वरुप है, ऐसा समझकर इसे परम आदरपूर्वक मानें ।।२०९।।



युक्ताय सम्पदा दैव्या दातव्येयं तु पत्रिका ।

आसुर्या सम्पदाढ्‌याय पुंसे देया न कर्हिचित् ‌।।२१०।।

हमारी इस शिक्षापत्री को दैवी संपत्ति से युक्त मनुष्य को ही दें, किन्तु आसुरी संपत्ति से युक्त मनुष्य को कदापि न दें ।।२१०।।



विक्रमार्कशकस्याब्दे नेत्राष्टावसुभूमिते ।

वसन्ताद्यादिने शिक्षापत्रीयं लिखिता शुभा ।।२११।।

संवत्‌ १८८२ अठारह सौ बयासी के माघ शुक्ल पंचमी (वसन्त पंचमी) के दिन हमने यह शिक्षापत्री लिखी है, वह परम कल्याणकारी है ।।२११।।



निजाश्रितानां सकलार्तिहन्ता सधर्मभक्तेरवनं विधाता ।

दाता सुखानां मनसेप्सितानां तनोतु कृष्णोऽखिल मङ्गलं न: ।।२१२।।

अपने आश्रित भक्तजनों की समग्र पीडा को नाश करनेवाले, धर्म सहित भक्ति की रक्षा करनेवाले और अपने भक्तजनों को मनोवांछित सुख देनेवाले भगवान श्रीकृष्ण हमारे समग्र मंगल का विस्तार करें ।।२१२।।

इति श्री सहजानंद स्वामी के शिष्य नित्यानंद मुनि लिखित शिक्षापत्री की टीका हिन्दी अनुवाद सहित समाप्त ।

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