उपदेशामृत प्रकरण १

।। श्रीराधाकृष्ण चरणकमलेभ्यो नम: ।।

उपदेशामृत मूल 

प्रकरण प्रथम

श्री भगवान एवं संत महिमा की प्रधानता

प्रथम तो सर्व संकल्पों को छोडकर एकाग्रचित्त होकर पुरुषोत्तम ऐसे श्रीजी महाराज का स्मरण कर के ऐसी धारणा करना कि स्वामी बातें कर रहे है और हम सुन रहे हैं । इस तरह सुनकर अपने अंतःकरणमें निरीक्षण करते जाना और जो कहा है, उस प्रकार समझकर आचरण में लाना ।

महाध्यानाभ्यासं विदधतमजस्त्रं भगवतः

पवित्रे संप्राप्तं स्थितिमतिवरैकांतिकवृषे

सदानंदं सारं परम हरिवार्ता व्यसनिनं

गुणातीतानंदं मुनिवरमहं नौमि सततम्‌-१अर्थः निरंतर भगवानके ध्यानका अत्यंत अभ्यास करनेवाले, अत्यंत श्रेष्ठ एकांतिक धर्मकी स्थिति प्राप्त करनेवाले, भगवानकी बातें करनेके व्यसनवाले और सत्‌ चित्‌ आनंदमय जिसका स्वरुप है ऐसे गुणातीतानंद नामके महामुनिको मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ ।भगवान और साधुके महिमा की बातें निरंतर करना और सुनना । श्रीजी महाराज तो अपना अक्षरधाम, पार्षद और अपने समग्र ऐश्वर्य लेकर यहाँ पधारे हैं, वे वैसे के वैसे ही हैं । और देह त्याग करके जिसको पाना है वे आज देह होते हुए ही मिले हैं, कुछ बाक़ी नहीं है । ऐसा नहीं समझने से जीव में दुबलाई रहती हैं यदि ऐसा समझमें आ जाये तो कभी भी जीव में दुबलाई प्रतीत ही नहीं होती, और जीव अलग प्रकार का हो जाय और महिमा समझने जैसा दूसरा कोई भी बडा साधन नहीं है, और महिमा समझे बिना कितने भी साधन करे तो भी जीवमें बल नहीं आता और ऐसी महिमा समझने का कारण तो ऐसे भगवदीय का प्रसंग है; किन्तु उसके बिना ऐसी महिमा समझमें नहीं आती । (१)

सांख्य विचार करते सीखना और बिना सांख्य लोभ, काम, स्वाद, स्नेह और मान ये पाचँ दोष एवं अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव ये तीन ताप इन सभी का दुःख मिटता नहीं और सांख्य बिना सत्संग आधा कहलाता है। अतः सुखी रहने के लिए सांख्य विचार करना। (२)

प्रह्‌लादजीने नारायण के साथ कई दिन तक युद्ध किया; किन्तु भगवान को जीत नहीं पाये; फिर भगवान ने प्रह्‌लाद से कहा कि “इस युद्ध से मैं जीता जा सकूँ ऐसा नहीं हूँ । मुझे जीतने का उपाय ये है कि जीभ से मेरा भजन करना, मन में मेरा चिंतन करना और नेत्रमें मेरी मूर्ति रखना; इस प्रकार निरंतर मेरी स्मृति रखना ।” फिर उसी रीतसे प्रह्‌लादने अभ्यास किया तब भगवान छह मास में वश हो गए । इसलिये भगवान को प्रसन्न करनेके लिये यह उपाय सर्वोपरी है, उसे सीखना । (३)

भगवान का बड़प्पन जिसके अंतःकरणमें समझ में आया हो उसे देशकाल चाहे ऐसे विपरीत हो जाए अथवा देह में चाहे ऐसा रोग हो जाए, इत्यादिक में भी ऐसा समझे कि ‘भगवान के किये बिना किसी से हिलाया पत्ता भी नहीं हिलता ।’ ऐसा समझकर सुखी रहे और जो ऐसा न समझे उसे कोई प्रतिकूल देशकाल आए तब उसका सत्संग विचलित हो जाता है । (४)

यह जीव साधन तो क्या करेगा ? वह तो जैसे कोश जोडकर खेती-बाडी करना उसमें महेनत बहुत है क्योंकि उसको पशु खाएँ, पक्षी खाएँ, इसी तरह साधन द्वारा कल्याण होना वह ऐसा है और भगवान की प्राप्ति तो कैसी है ? तो इस पृथ्वी में बारिस बरसे और फसल पकती है, फिर उसे पशु खाएँ, पक्षी खाएँ और चोर ले जाए तो भी न खूटे । कुएँ, तालाब और नदियाँ घटे किन्तु समुद्र न घटे वैसे भगवान से कल्याण होना ऐसा है । और यह तो बहोत दुर्लभ है, किन्तु महिमा समझ में नहीं आती । (५)

बडों का सेवन किया हो और उसके गुण आएँ हो तो उसें देशकाल नहीं लगते । किस तरह ? तो जैसे अंधेरा इकट्ठा होकर सूर्य के पास जाय किन्तु वहाँ रह नहीं सकता । (६)

भगवान में जुडे हुए हों, भगवान की इच्छाको भी जानते हों और भगवान की आज्ञा में रहते हों ऐसे साधु से अपने जीव को जोडना। उससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और महिमा सहित उपासना आदि सभी गुण प्राप्त कर सकते हैं । उसके बिना कैसे प्राप्त होगा ? और जैसे साधु का सेवन करे वैसे गुण आते है; जिससे मुमुक्षु हो वह भी घट जाए और पामर हो वह भी बढ जाए । अतः सर्व का कारण संग है । (७)

इन्द्रियाराम हो उसे दबाया जा सकता है किन्तु आत्माराम हो उसे नहि दबाया जा सकता, क्योंकि इन्द्रियाराम को तो सेवा करके या तो पदार्थ देकर भी दबा दें किन्तु आत्माराम हो वह किस लिए दबे ? क्योंकि उसको तो कुछ ही नहीं चाहिए; और वह तो अनंत को दबा दे किन्तु खुद नहीं दबाता । (८)

संसार छोडकर त्यागी हो जाए वह दुःख मात्र को मिटाकर सुखी हो जाता है; परंतु त्यागी होने के पश्चात्‌ भी वासना का दुःख रहता है । वह वासना लोभ की, काम की, स्वाद की, स्नेह की और मान की है । वह वासना टलती जाती है वैसे सुखी होता जाता है । (९)

इन्द्रियाँ, अंतःकरण आदि सर्व कुसंगी हैं । अतः जिस जिस विषय का योग हो जाय उस उस रुप हो जाय ऐसा ही इस जीव का स्वाभाव है । ऐसे जीव को भगवान के साधु धर्म, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, महिमा, उपासना आदि सर्व गुण
देते हैं । (१०)

रुपवान स्त्री, अधिक द्रव्य और अच्छी हवेली मिली वो सत्संगी को भी माया का बंधन हुआ (समझना) क्योंकि उस (बंधन)में से जीव निकलता नहीं, अतः वह तो ऐसा तैसा साधारण मिले यही अच्छा है । (११)

दोष रहते हैं और टलते नहीं है, वह केवल दोष ही है कि उसमें कुछ गुण भी है ? यह प्रश्न है । उसका उत्तर कि दोष पीडा दें उससे सत्संग में दीन आधीन रहा जाय और सत्संग की ग़रज रहती है और भगवान की स्तुति होती है; और दोष का कलह होने से ज्ञान होता जाता है, बिना उसके ऐसी गरज नहीं रहती; अतः वह गुण है । (१२)

देह से क्रिया करता हो और अपने स्वरुप को भिन्न समझकर भजन करता हो तो बहोत समादेश होता रहता है; किन्तु क्रियारुप होकर उसमें एकरुप हो जाय तो वह ठीक नहीं । (१३)

करोड काम बिगाडकर भी मोक्ष सुधारना और यदि करोड काम सुधारे और एक मोक्ष बिगाडा तो क्या किया ? (१४)

नवधा भक्ति आदि साधनों से जीव शुद्ध होता है किन्तु बातें (कथा-वार्ता) से जैसा शुद्ध होता है, वैसा नहीं होता । इसलिये शब्द जैसा कोई बलवान नहीं है । (१५)

शिवजी मोहिनी स्वरुप में मोह पाकर व्याकुल हो गए, फिर अंतर में देखा तब पता चला कि “मेरे स्वामी की माया में मैं मोहित हो जाउँ उसमें क्या ?” ऐसा विचार किया तब अंतर में शांति हो गई; अतः देशकाल तो लगते हैं किन्तु ज्ञान द्वारा उसका दुःख मिटता है । (१६)

भगवानने तो कहा है कि “जैसा मैं सत्संग से वश हो जाता हूँ, वैसा तप, यज्ञ, योग, व्रत, दान आदिक साधनों से भी वश नहीं होता ।” वो सत्संग क्या ? तो जो बडे एकान्तिक को हाथ जोडना और वह जैसा कहें वैसा करना वही (सत्संग) है । (१७)

जीव तो बहुत बलवान है, वह शेर के शरीर में आए तब कैसी ताकात होती है ? और वही जीव बकरे के शरीर में आए तब दीन हो जाता है । (१८)

करोडों रुपए खर्च करने पर भी ऐसे साधु नहीं मिलते और करोडों रुपए देने पर भी ऐसी बातें (कथा-वार्ता) नहीं मिलती और करोडों रुपए देने से भी मनुष्य देह नहीं मिलती, और हमने भी करोडों जन्म लिये हैं किन्तु कभी भी ऐसा योग प्राप्त नहीं हुआ अन्यथा देह क्यों धारण करना पडे ? (१९)

मोक्ष के दाता तो भगवान और साधु ये दो ही हैं । वैराग्य तो विषय के साथ वैर कराए किन्तु भगवान का काम नहीं करता और आत्मनिष्ठा है वह सभी से प्रीति तुडाए किन्तु भगवान का काम नहीं करती और धर्म है उसके द्वारा सुखी रहे किन्तु भगवान का काम नहीं करता । इसलिए मोक्ष के दाता तो भगवान और साधु ये दो ही हैं, अतः उनका अवगुण न लें । (२०)

ये तो भगवान ने सबका सामर्थ्य छुपा रखा है नहीं तो शाप देकर जला दे; अन्यथा पागल होकर कहीं के कहीं चले जाय; अन्यथा अपने आप देह छोडकर चल पडे किन्तु यह तो किसी का चलने नहीं देते हैं । भगवान तो अपने भक्त की रक्षा में ही बैठे हैं, किस तरह ? तो जैसे बरौनी आँख की रक्षा करती है और हाथ गर्दन की रक्षा करते हैं, माँ-बाप बच्चों की रक्षा करते हैंं और राजा प्रजा की रक्षा में हैं, उसी प्रकार भगवान हमारी रक्षा में है । (२१-२२)

भगवान किसीको समृद्धि देते हैं और किसीको नहीं देते, उसका कया समझना ? यह प्रश्न है । उसका उत्तर कि ज्यादा धन मिले तो अधिक फैल करें, अतः थोडा मिले वही ठीक है । (२३)

कोई पाँच दस बाार स्वामिनारायण स्वामिनारायण नाम जाने अनजाने में लेंगे उसका भी हमें कल्याण करना पडेगा; और समग्र ब्रह्मांड को सत्संग करवाना है । (२४)

जितना भी मायामय सुख हैं वह बिना दुःख का नहीं होता; यह भी एक बात जान लेनी चाहिए । (२५)

विषय का जो सुख है उसकी अपेक्षा आत्मा का सुख अत्यधिक हैं; और उससें भी भगवान का सुख तो चिंतामणि है । (२६)

एक व्यक्ति ने लाख रुपए की बुद्धि ली; उसी तरह मोक्ष की बुद्धि भी बडों से अनेक प्रकार से सीखी जाती है । (२७)

हीरा कैसे भी फूटता नहीं है किन्तु वह खटमल के खून से फूटता है; उसी तरह वासना किसी भी साधन से मिटती नहीं किन्तु बडें सत्पुरुष कहे ऐसा करे, उसका गुण आए और उसकी क्रिया जँचे तो उससे मिटे अन्यथा साधन तो सौभरी आदिक के कैसे ! तो भी वासना मिटी नहीं । (२८)

सत्संग हो जाय किन्तु संग बिना सत्संग का सुख नहीं आता । किस तरह ? तो जैसे भोजन मिले किन्तु बिना खाए सुख नहीं होता, जैसे कपडे गहनें मिले तो भी पहने बिना उसका सुख नहीं आता; उसी तरह संग बिना सत्संग का सुख नहीं आता । (२९)

और ऐसे साधु को मन में याद करें तो मन के पाप जल जाते हैं और बातें सुने तो कान के पाप जल जाते हैं और दर्शन करें तो आँख के पाप जल जाते है, ऐसे महिमा समझना । (३०)

इससे करोड गुना सत्संग होगा और इससे करोड गुने मंदिर होंगे किन्तु यें बातें और कथा नहीं मिलेगी और व्यवहार प्रधान हो जाएगा; इसलिए सहजता से करना और ये कारखाना (निर्माण कार्य) तो ब्रह्मांड रहेगा तब तक चलेगा अतः कथा वार्ता करने सुनने का अभ्यास रखना । और हमें तो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति ये चार चीजें रखना । किन्तु एक को ही प्रधान नहीं करना । (३१)

त्याग, वैराग्य, नियम और धर्म की कई बातें करके बोले कि त्याग वैराग्य को क्या करें ? कैसा भी जीव होगा किन्तु भगवान के भक्त में आत्मबुद्धि हो वही सत्संगी है बिना उसके कितनी भी भक्ति करें तो भी क्या ? और कृपा से मूर्ति अखंड दिखाई दे तो भी क्या ? अतः भगवान के भक्त में आत्मबुद्धि ही सत्संग है और सत्संग तो रात्रि प्रलय तक करेंगे तब होगा फिर उसको देशकाल नहीं लगेगा, ऐसा सत्संग करना है । (३२)

इन बातों से ब्रह्मरुप हो सकेंगे और बाल, युवा एवं वृद्ध ये तीन प्रकार की स्त्रियाँ तथा कचरा और कंचन ये सब समान हो जाएगा और कुछ देखने पर भी अच्छा नहीं लगेगा, ऐसी स्थिती हो जाएगी । तब कहोगे कि बातें तो सुनते हैं फिर भी क्यों नहीं होता हैं ? वह तो आज आम का पेड बोएँ और कल आम कैसे लगेंगे ? किन्तु वही आम का पेड दस साल का हो तब उसमेें आम होते हैं । ऐसा होनेवाला है । (३३)

और हमें जाँँच करना कि हजार रुपए मिले तो उसका क्या फल है ? और लाख रुपए मिले तो उसका क्या फल है ? और करोड रुपए मिले तो उसका क्या फल है ? क्योंकि रोटी से तो अधिक खाया नहीं जाता । अतः उसकी जाँच करके अंतःवृत्ति करते सीखना । (३४)

आलोड्‌य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ।।इस श्लोक में व्यासजी ने सर्वशास्त्र का सिद्धांत कहा है कि ‘भगवान का आसरा करना ।’ वैसे ही मैंनेे निरीक्षण किया कि सर्व का सिद्धांत साधु संग ही है । (३५)

सब से लक्ष्मीजी की समझ अधिक बताई गई हैं, क्योंकि उनको भगवान में निर्दोष बुद्धि है तो भी उनमें स्त्री का भाव तो है । अतः उद्धवजी की समझ उनसे भी अधिक हैं क्योंकि उद्धवजी ज्ञानी है और उनको भगवान में निर्दोष भाव है । किन्तु उनको भी घर छोडना मुश्किल पडा । अतः उनसे भी जडभरत और शुकजी की समझ अधिक है क्योंकि उनको स्त्री-पुरुष ऐसा भाव ही नहीं था । (३६)

पूरे कल्प तक भगवान के सामने देखते बैठे रहें तो भी बिना निषेध किए विषय नहीं टलते और साधु मिले तो वे टालें । निर्विकल्प समाधि हो तो भी विषय नहीं मिटते और ज्ञानकी समाधि हो तो मिटते हैं । (३७)

अंतःकरणरुप माया का कलह बहुत भारी है क्योंकि भरतजी को कैसा वैराग्य ? और कितना (बडा़) राज्य छोडा ? तो भी विघ्न हुआ । सौभरी और पाराशर आदिक कैसे थे ? उनको भी धक्के लगे । इसलिए साधु ज्ञान देकर नया जन्म दें और निषेध करें तब वह कलह मिटता है, किन्तु उसके बिना नहीं मिटता । पूरी उम्र भगवान के साथ रहें तो भी बिना ज्ञान कसर मिटती नहीं है । (३८)

वचनामृत पढाकर उसकी बात कही कि यदि भगवान की मूर्ति में जुड जाय तो भी कुछ बातें स्पष्ट समझ में कैसे आएगी ? अतः समझ सब से अधिक है । फिर नाडियाँ आकर्षित हो या न हो और सांख्य एवं योग से भी भगवान की सर्वोपरीता समझना वह श्रेष्ठ है । (३९)

श्रीजी महाराज ने कहा था कि “हमने एक बार अलिया गाँव में दृष्टि से अनंत जीवों को ब्रह्ममहोल में रख दिये किन्तु वहाँ कोई नहीं रहे ।” अतः ज्ञान देकर जैसा (काम) होता है वैसा दृष्टि से नहीं होता । (४०)

प्रेमी का हेत तो टंकी के पानी जैसा होता है और ज्ञानी का हेत पाताल के पानी जैसा होता है । प्रेमी को तो भगवान और साधु को संभालना पडता है किन्तु ज्ञानी को संभालना नहीं पडता । (४१)

कोई लोभ छोडे, स्वाद छोडे, स्नेह छोडे और मान छोड दे किन्तु स्त्री तो हृदय से निकले ही नहीं और रुप जैसा तो कोई बलवान नहीं है और वह विषय तो जीव मात्र में रहा है । वह तो बडे(सत्पुरुष) अनुग्रह करें तब मिटे, किन्तु उसके बिना नहीं मिटता । (४२)

निरीक्षण करके देखा तो यह जीव कभी भी भगवान के मार्ग पर चला नहीं हैं, बिल्कुल नया ही प्रयत्न है । जीव मात्र को भोजन, स्त्री और धन ये तीन का ही चिंंतन है और उसका मनन, उसकी ही कथा, उसका ही कीर्तन, उसकी ही बातें और उसका ही ध्यान है । उसमें भी द्रव्य का तो एक मनुष्य जाति में ही है बाकी भोजन और स्त्री इन दोनों का जीव प्राणीमात्र को चिंतन है क्योंकि भगवान ने माया का चक्कर चढा दिया है । उसका चिंतन न हो वह तो देवाधिदेव है, किन्तु वह मनुष्य नहीं है । भोजन, स्त्री और निद्रा इन तीन बातों में गुरु नहीं करना पडता । जैसे नदियों का प्रवाह समुद्र सन्मुख चलता हैं वैसे जीव को विषय सन्मुख चलने का अभ्यास है और उससें पीछे मुड़ना वह तो साधुका (काम) है । (४३)

इस देह में और इस लोक में चिपकेंगे तो भी भगवान चिपकने नहीं देंगे । जैसे रवजी बढई को स्त्रीसे विवाह करवाकर (भी) संसार का सुख लेने नहीं दिया और फिर संसार में से छुडवाकर अंत में साधु बनाया । इस तरह भगवान बंधाने नहीं देंगे । (४४)

देह में रोगादिक दुःख आ जाये तो उसको भेजनेवाले मिटावे तब मिटे; किन्तु दूसरे से नहीं मिटते । जैसे राजाका भेजा हुआ अधिकारी राजा की चिट्‌ठी से ही वापस जाता है, किन्तु गाँव के लोगँ से नहीं जाता । ऐसा समझना । (४५)

विषय का तिरस्कार तो अक्षरधाम में है और श्वेतद्वीप में है और बदरिकाश्रम में और इस लोक में बडे एकांतिक के पास है । ये चार जगह के सिवा सब जगह विषय का आदर है । (४६)

भगवान का धाम गुणातीत है और जीव को गुणातीत बनाना है और हमने यह ज्ञान सुना है वह अन्यत्र नहीं मिलेगा । हमें अन्यत्र नहीं रहना है । और ये जो मिले हैं वे भी छोड दें ऐसे नहीं है, वैसा उनको आता है । और आजका ज्ञान सुनकर जाता है उसको श्वेतद्वीप और उनसे इस ओर के कोई जीतते नहीं हैं । यह ज्ञान तो फिरंगी की तोप जैसा है । इसके आगे दूसरे का ज्ञान तो पटा जैसा है । अतः कहा है कि - ‘जन के अवगुण नाथ गिनते नहीं । शरण आए के श्याम सुजान ।।’ ऐसे है । इस प्रकार बहुत महिमा कही । (४७)

बदरिकाश्रम एवं श्वेतद्वीप के मुक्तों को त्याग, वैराग्य का बल है और गोलोक एवं वैकुंठ के मुक्तों को प्रेम मुख्य हैं और अक्षरधाम के मुक्त ब्रह्मरुप हैं (४८)

भगवान के भक्त को विषय सुख मिले वही नरक है । अतः भक्त का लक्षण कहा है कि ‘कुंताजी दुःख मांग के लीनो एहि भक्त की रीति वेविषय आनंद न लहे स्वप्न में जाहि प्रभु पद प्रीति वे - ४’यह भक्त का लक्षण है । (४९)

ये सब काम छोड-छोड कर यहाँ आकर निठल्ले बैठकर बातें सुन रहें हैं, वह ऐसा समझना कि करोड काम कर रहे हैं । वह क्या ? तो यमपुरी, लखचौरासी, गर्भवास इन सब के ऊपर लकीरें खींच रहे हैं किन्तु खाली बैठे हैं, ऐसा मत समझना । (५०)

ये तो बलवान हैँ, वे तो चाहे कैसी भी वासना होगी तो भी अंतकालमें हीरजी की तरह नश्तर मारकर देह की सुध रहने नहीं देंगेः और वासना टाल दें ऐसे हैं । (५१)

बडे शहर का सेवन, अधिकार एवं धन का प्रसंग आदि जीव को बिगाडने के हेतु हैं । अतः उसे समझ रखना ।(५२)

निरंतर मंदिर का काम किया करे तो भी ज्ञान वृद्धि नहीं पाएगा और ज्ञान तो साधु समागम से ही होता है । (५३

शास्त्र में कठिन-कठिन प्रायश्चित कहे हैं, वे सब ऐसे साधु के समागम और दर्शन से निवृत्त हो जाते हैं । ऐसा यह दर्शन है । (५४)

बछडे को दूध का स्वाद है और किलनी को लहू का स्वाद है । इस तरह खाने पीने का सुख और मान-सम्मान का सुख तो लहू जैसा है और निजात्मानं ब्रह्मरुपं देहत्रय विलक्षणम्‌ ।विभाव्य तेन कर्तव्या भक्तिः कृष्णस्य सर्वदा ।।-५ ।। यह सुख दूध जैसा है । (५५)

भगवान की उपासना का बल हो उसे महाप्रलय जैसा दुःख आए तो भी ऐसा समझना चाहिए कि “देह तो नाश हो जाएगा और हम भगवान के धाम में जाएँगे ।” ऐसा समझकर सुखी रहना । (५६)

ऐसे साधु जूते मारे तो भी अक्षरधाम में ले जाएँ और दूसरे मशरुम के गद्‌दे पर सुलाएँ तो भी नरक में डालें ऐसा समझना । (५७)

हमारे दोष तो महाराज ने मिटा दिए हैं और उन दोषों का दर्शन होता हैं, वे तो हमारी भलाई के लिए हैं । अन्यथा जीव तो उन्मत्त हो जाए ऐसा है और अब तो हमें भगवान को वश करना है । और उस भगवान जैसा सामर्थ्य पाना है । इसलिए लगे रहे हैं । (५८)

ब्रह्मरुप मानकर भक्ति करना’ यही सिद्धांत है । जैसे सब लोग भ्रष्ट हो जाएँ और एक बचे तो उसे ऐसा समझना कि ‘मैं भ्र्रष्ट नहीं हुआ हूँ ।’ इस तरह ब्रह्मरुप मानने की समझ है । (५९)

यह कर्मक्षेत्र है अतः यहाँ एक उपवास करें और बद्रिकाश्रम में सौ उपवास करें और श्वेतद्वीप में हजार उपवास करे वह बराबर होते हैं । (६०)

यह घडी, यह पल और ऐसे साधु कोटि कल्प में भी मिलने दुर्लभ है किन्तु महिमा समझ में आती नहीं है क्योंकि मनुष्याकृति है । (६१)

तमोगुणी को मान अधिक होता है, रजोगुणी को काम अधिक होता है और सत्त्वगुणी को ज्ञान अधिक होता है । (६२)

जब दुर्योधन और पांडवों का कलह होना प्रारंभ हुआ तब दुर्योधन के पास दैत्यों ने आकर कहा कि ‘हम कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह आदिक में प्रवेश करेंगे । अतः युद्ध कर ।’ ऐसा कहा उसमें कहने का क्या है ? कि हमारे में काम क्रोधादिक दोष आकर प्रवेश करें तब बडों का अवगुण आता है और न करने योग्य (कर्म) भी हो जाता है, तब समझना कि ‘मुझ में दैत्य ने प्रवेश किया है किन्तु मैं ऐसा नहीं हूँ ।’ ऐसा समझना । (६३)

कई कसर त्याग और वैराग्य से दूर होगी, कई कसर ज्ञान से दूर होगी और कई कसर भक्ति करा के दूर करेंगे । बाकी अंत में रोग प्रेरित करके भी शुद्ध करना है, किन्तु कसर नहीं रहने देनी है । (६४)

धर्मशाला निर्माण का काम करवाते हैं उसमें कहते हैं कि आज्ञा से तो अनंत धर्मशाला बनाएँ किन्तु उसमें बँधाना नहीं । बंधाना तो भगवान और साधु दो में ही बँधाना । (६५)

शास्त्रमें अमुक वचन तो सिद्धांतरुप में होते हैं और अमुक वचन तो किसी निमित्त के लिए होते हैं । यह समझ रखना चाहिए । (६६)

शरदऋतु में आकाश निर्मल देखकर बोले कि “जो ऐसा अंतःकरण हो जाए तब जीव सुखी हो जाय । व ऐसा सत्संग करते-करते होता है ।” (६७)

बडों का मत यह है कि अनेक प्रकार से देह दमन करना और ठंड, धूप, भूख, प्यास आदि दुःख सहन करना; परंतु केवल देह का जतन तो करना ही नहीं । (६८)

निरंजनानंद स्वामी के पास बैठे तो अंतर शीतल हो जाय; उस तरह ऐसे बडे साधु के पास बैठे तो सुख आए । वह सुख किसको आए ? तो जिसको उनमें स्नेह हो उसेे आए । (६९)

कोटि कल्प के बाद यह बात हाथ लगी है किन्तु यह सत्संग राजाको, ज्ञातिजनोंको और घरके लोगों को भाता नहीं है । वैसे ही देह, इन्द्रियाँ और अंतःकरण को भी भाता नहीं है । एक आत्माको ही अच्छा लगता है । और माया तो पेट पीट रही है कि ‘मेरे हाथ से गया ।’ (७०)

साधना करते करते मर जाय तो भी वासना मिटती नहीं; वह तो बडे(सत्पुरुष) जब अनुग्रह करें तभी मिटती है । (७१)

हमारा दर्शन करेंगे उसका भी कल्याण होगा; किन्तु अधिक महिमा कहे तो कोई वर्तमान धर्म का पालन नहीं करेंगे । यह तो मुक्त ने देह धारण कीया है; और वासना जैसा दिखाई दे रहा है वह तो देह धारण किया है उसका भाव है । अन्यथा तो देह नहीं रह पाता । (७२)

महाराज की कही हुई बात कही कि - महाराज ने कहा कि “करोड नौका से एक मनवार (बडा जहाज) भराती है, ऐसी सौ करोड मनवार भरनी है । उतने जीवों का कल्याण करना है । उतने जीवों का कल्याण कैसे होगा ? फिर हमने विचार किया कि हमारा दर्शन करें उसका कल्याण; फिर ऐसा सोचा कि हमारा दर्शन भी कितनें जीवों को होगा ? अतः हमारे साधु का दर्शन करें उसका भी कल्याण । फिर उसमें भी विचार आया कि साधु का दर्शन भी कितने जीवों को होगा । इसलिए हमारे सत्संगी का दर्शन करें उसका भी कल्याण और सत्संगी को भोजन कराए और उसका भोजन करें और सत्संगी को पानी पिलाए और उसका पानी पीएँ उन सबका कल्याण करना है ।” (७३)

गुरु का अंग पढाकर उसमें से प्रश्न पूछा कि “इस अंग में तो गुरु ही सब कुछ करते है ऐसा कहा है किन्तु कुछ पुरुषप्रयत्न तो बताया नहीं है, तो क्या समझा जाय ?” यह प्रश्न पूछा तब उत्तर किया कि सब चीज गुरु ही देते है, तभी तो यहाँ आ सके है । हालमें तो ऐसा ही है कि सर्व दोष टल जाएँ तो फिर आराम से सोते रहे; फिर कोई टोके तो भी सहन न हो और बिना ज्ञान तो उन्मत जैसा हो जाय । अतः सर्व से ज्ञान श्रेष्ठ है । (७४)

भगवान और साधु के महिमा की बहुत बात की तब प्रश्न पूछा कि ‘ऐसी महिमा का साक्षात्कार क्यों होता नहीं है ?’ उसका उत्तर : ‘यदि साक्षात्कार हो तो उद्दण्ड हो जाय । अतः धीरे धीरे ज्ञान देते हैं और महिमा की वृद्धि कराते हैं । जैसे फल-फूल वृद्धि को पाते हैं वैसे । उन भगवान को जैसा चाहे वैसा करना आता है जैसा योग्य हो ऐसा करते हैं और अधिक दे दे तो पागल हो जाय । अतः वह भगवान ठीक ही कर रहे हैं । (७५)

ये तो अनंत भगवान के भगवान हैं, इतना ही कहते हैं । उससे आगे ओर क्या कहें ? वे हमारे घर में आकर बैठे हैं । यह तो कुबे में हाथी बाँधे वैसा है । (७६)

और हमको तो भगवान की गर्ज नहीं है किन्तु भगवान आकर जबर्दस्ती से हमारे पीछे लगे हैं । महाराज ने कहा कि ‘भूत लगता है तो भी नहीं छोडता तो हम कैसे छोडेंगे ?’ (७७)

भगवान जीव के अवगुण की ओर देखते नहीं हैं । अतः कोई जीव भगवान की स्तुति करके बोले कि ‘मैं अपराधी हूँ’ उसके अपराध भगवान माँफ करते हैं । (७८)

हमें तो एक जन्म-मरण का रोग मिटाना आता है और कुछ नहीं आता । (७९)

और सर्व प्रकार की आसक्ति टल जाय तो यह लोक और देह अच्छे नहीं लगते और इस लोक में रहना पडे तो दुःख होता है ऐसा कहा; उस पर प्रश्न पूछा कि आसक्ति रहती है उसका दुख होता है । उसका क्या समझना ? फिरउसका उत्तर किया कि वह दुख तो अच्छा है क्योंकि निर्मानी रहा जाता है । अतः जो भगवान करते होंगे वह ठीक करते होंगे और देहका रुप, फरेणी गाँव में सुराखाचर को कान दिखाने के साथ ही उल्टी हो गई । ऐसा अन्य को दिखाई दे तो वैसा होता है । (८०)

वचनामृत पढाकर उसकी बहुत बातें करके बोले, कि ऐसा ज्ञान तो संग द्वारा और समय बितने पर होता है । जैसे विद्या पढते हैं वैसे होता है, किन्तु अनुगृह से नहीं होता और अनुगृह करें तो समाधि हो; वह तो विज्ञानदासजी को अक्षरधाम दिखाई देता था तो भी दो घर बसाये और साधु ने निकाले तब निकले । अतः ज्ञान श्रेष्ठ है । (८१)

यह तो प्रबंध होनेसे (नियम) रखते हैं; किन्तु धन और स्त्री नहीं चाहिए ऐसे मनुष्य अधिक नहीं मिलते । (८२)

वचनामृत की पूरी प्रत(पुस्तक) भी सत्संग में सहाय नहीं करेंगी । वे तो पुस्तक छोड छोड कर चले जाते है । अतः सहाय तो ऐसे साधु ही करेंगे । (८३)

लोया के सातवें वचनामृत में कहा है कि इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और अनुभव इन तीनाें की पहुँच हो तब पूरा ज्ञानी कहलाता है । उस पर बोले कि हमें तो सर्व पहुँचे हैं । और जो नहीं दिखाई देता है वह तो उन(भगवान)की इच्छा है । (८४)

पानी के सरोवर जैसा श्वेतद्वीप के मुक्तों को रहता है और अक्षरधाम की तो बात ही क्या कहें । इस लोक में कई प्रकार के विक्षेप आते हैं । अतः लात मारकर मुँँह लाल रखने जैसा है । (८५)

नंदराजाने सारी पृथ्वी का धन इकट्ठा किया और आखिर उस में से मौत हुई । चित्रकेतु राजाने करोड स्त्रियाँ इकट्ठी की, आखिर उस में से दुःख हुआ तब छोडी, वह मार्ग ही वैसा है । (८६)

हमारेमें त्यागी हो जाते हैं और संसार छोड देते हैं, वह तो भगवानमें स्नेह है इसलिये खींचाकर आते हैं । वह तो योग है परंतु सांख्य नहीं और वह स्नेह तो अतूट होता हैं परंतु सांख्य नहीं । और जिसको सांख्य हो और साधु बनने आये उसे कहे कि परिवारजन सब सोये हो और घर जलाकर आओ तो साधु करेंगे; तो सांख्यवाले को कठिन नहीं पडता और योगवाले से वह होता नहीं । (८७)

चिंतामणि रुपवान नहीं होती, वैसे ही भगवान और साधु मनुष्य जैसे ही होते हैं किन्तु वे दिव्य हैं और कल्याणकारी हैं । मनुष्य देह चिंतामणि है । (८८)

और यदि कोइ मार मार करता चला आ रहा हो तो भी ऐसा ही समझना कि “मेरे स्वामी का किया ही सब होता है, किन्तु उसके बिना किसीका हिलाया पत्ता भी हिलता नहीं है ।” (८९)

और ‘बंदर वैकुंठ में नहीं रह सकता’ ऐसी उक्ति है । इसलिये हमें भी भगवान के पास रह सके ऐसे स्वभाव करना । वे यहाँ करना या तो श्वेतद्वीप में जाकर करना । (९०)

सारा ब्रह्मांड स्वामिनारायण का भजन करेगा तब सत्संग हुआ समझना और तब तक होना है । और महाराज के मिले हुए एक संत के पीछे लाखों लोग फिरेंगें, तब तक सत्संग होना है । (९१)

जीव को चिपकने के (आसक्त होने के) दो ही ठिकाने हैं, वह भगवानमें चिपके या तो माया में चिपके । किन्तु बिना आधार कैसे रह सके ? (९२)

और दोष क्यों मिटते नहीं है ? उस प्रश्न का उत्तर कि वे (भगवान) तो धनवंतरी वैद्य हैं, वे कैसे झूठे होंगे ? और जैसे अक्षरानंद स्वामी को गोली देकर राफी (नामक रोग) निकाल दिया; ठीक उसी तरह काम क्रोध आदि कई राफियाँ हैं, उसको निकाल देंगे । हमें तो उससे लग जाना इतना ही करना है । (९३)

और गफलत मिटाने का साधन यह हैै कि सावधानी राखे तो मिटे; और दूसरा उपाय कि कोई शिक्षा व दण्ड करे तो मिटे । (९४)

यह तो बहुत बडा लाभ हुआ है; किन्तु सब नींद में जा रहा है वह क्या ? विषयमें लीन होकर निरंतर रहते हैं । यह दर्शन तो पंच महापाप को जला दें ऐसा है; किन्तु महिमा महेसूस नहीं होती है । (९५)

कर्मविपाक नामक ग्रंथ है जो महाराजने पढवाया था । उसमें कहा है कि “इस पापसे यह रोग होता है” उस तरह उसमें बहुत विस्तार से बताया गया है । (९६)

और समग्र पृथ्वीमें एक आदमी मर जाय तो उसका कोई शोक होता है ? वैसे अक्षरकी द्रष्टि को पाता है, उसको सारा ब्रह्मांड का प्रलय हो जाय तो भी थडक नहीं लगती । ऐसी भी एक समझ है । (९७)

और सांख्यकी द्रढता कैसे हो ? उस प्रश्नका उत्तर : ‘मनुष्य मरता है और देह वृद्ध हो जाती है, वह देखना और नित्य प्रलय, निमित्त प्रलय और प्राकृत प्रलय का विचार करना ।’ और सांख्य एवं योग सिद्ध करने का साधन तो यह समागम है । (९८)

जैसे ज्ञातिका, नामका और गाँवका निश्चय है; वैसे ही यह अभ्यास करे कि “मैं आत्मा हूँ, ब्रह्म हूँ, सुखरुप हूँ, भगवान का भक्त हूँ” शरीर वह में नहीं हूँ । ऐसा (अभ्यास) करे तो वह भी हो जाय । और यह देह हमें नित्य नरक (विष्टा) मसलवाता है, उससे बुरा क्या ? किन्तु बिना ज्ञान उसकी खबर नहीं है । (९९)

और अक्षरधाम जैसा सुख यहाँ मिल रहा है, उसमें भी कोई कोई दुःखी हैं । उसमें शरीर का दुःख कम और मन का दुःख अधिक है । (१००)

प्रकृति पुरुष पयँत तीन ताप हैँ और तीन गुण हैँ; और उससे परे गुणातीत सुख है । (१०१)

और भगवान एवं भगवान के साधु इन दो के सामने देखना और वे दो ही देखने जैसे हैं । दूसरे में माल नहीं है । (१०२)

बडों के प्रति मनुष्यभाव नहीं रहा है, वह कैसे जाँच करना ? इस प्रश्नका उत्तरः कि उनकी कोई क्रिया में दोष न दिखाई दे वही दिव्यभाव है । (१०३)

और भगवान की स्तुति करना किन्तु अपने को पतित व अधम नही मानना, क्योंकि ऐसा मानने से आत्मामें बल नहीं रहता और आत्मा ग्लानिवश हो जाता है । और हमको तो भगवान मिले हैं तो पतित किस लिये माने ? हमेंतो कृतार्थ मानना है । (१०४)

मोहामोह मिले निज प्रीतम । कुन पतियार करे पतियासे ।।उसमें क्या कहा ? तो जब खत लिखनेवाले मिले फिर खत से क्या काम ? ठीक उसी प्रकार हमें प्रगट संत मिले हैं फिर शेष क्या रहा ?और आज तो, महाराजने कहा कि ‘सबको कसनी में लेना है और सबको एकांतिक बनाना है वासना होगी तो सूर्य के लोकमें होकर जलाकर ले जायेंगे ।’ (१०५-१०६)

और राजाके कुँवर को हरिजनबंधु मार नहीं सकता । वैसे भगवानके भक्तके सिर पर काल, कर्म, माया आदि किसी का सामर्थ्य नहीं कि उसको पीडा दे सके । (१०७)

सुलभा थी वह समाधिवान थी और दूसरोंके शरीरमें प्रवेश कर सके ऐसी थी, किन्तु वन में गई वहाँ (प्राकृतिक सौंदर्य) अच्छा देखा तो ऐसा हुआ कि ‘कोई पुरुष हो तो रमण करें !’ (१०८)

और धर्मशाला थी वह तोडकर फिरसे बनाई । अतः अब पहलेवाली दिखाई नहीं देती है । उसी प्रकार प्रकृति का सारा कार्य नाश कर डालना उसका ही नाम सांख्य है । (१०९)

और अपने आप दो आदमीका काम करे, उससे भी बडोंकी आज्ञा से बैठे रहे अथवा कहे उतना ही करे वह श्रेष्ठ है । (११०)

जिसको विषय पराभव कर देते हो, उसको बडों को प्रसन्न करने का क्या उपाय है ? इस प्रश्नका उत्तर है कि ‘बडों की अनुमति एवं वे जैसा कहे वैसा करना वही है ।’ (१११)

बडों को क्या करने की तमन्ना है, वह कैसे समझ में आये ? इस प्रश्नका उत्तर कियाः उसमें वरतालका सोलहवाँ वचनामृत पढाकर बोले कि ‘इसमें जैसा कहा है वैसा करवाना है । वह क्या ? तो भगवान का भजन करना एवं भगवान के भक्त का संग, ये दो ही रहस्य एवं अभिप्राय हैँ । ये पकडकर लगे रहे तो प्रसन्न होने में क्या देर है ? इसलिए प्रसन्न करना चाहते हो उसे जुट जाना । (११२)

और ज्ञानी को भी ठंड, धूप, भूख, प्यास आदि देहके भाव दिखाई देते हैं, वह भी समझना । (११३)

और प्रियव्रत को संतान हुए किन्तु आत्माराम भागवत (संत) कहलाये क्योंकि भगवानकी कथा एवं भगवानके प्रिय ऐसे साधु के संग का त्याग नहीं किया । अतः जनक (राजा) ने कहा कि ‘इस मिथिला में मेरा कुछ नहीं जल रहा है ।’ किन्तु संतान हुए । और गोवर्धनभाई को तो शक्कर एवं नमक दोनों बराबर; परंतु संतान हुए; अतः साथ में रहे तो संतान तो होती हैं । (११४)

भगवान और बडे साधु के आश्रय से तो बादल जैसे दुःख आनेवाले हो, वे भी मिट जाते हैं । और साधन करके तो कूट कूटकर मरे तो भी नहीं मिटते । (११५)

और हृदय में ज्ञान भरा है । वह अब तक बाहर निकला नहीं हैं क्योंकि सामने सुननेवाले पात्र नहीं हैं । यह ज्ञान तो ब्रह्माके आयुष्य पयँत कहे तो भी पूरा न हो पाए; परंतु वह कहने की तो निवृत्ति नहीं मिल रही । (११६)

इन्द्रियाँ, अन्तःकरण के दुःख आते हो उसका क्या करे ? उस प्रश्न का उत्तर कि वह तो बडे बडे को भी आता था । अतः उसे सहन करना । वे तो स्वभाव हैं । (११७)

और बडे हैं वे किसी को अधिक सुख देते हैं और किसी को कम सुख देते हैं, उसका कैसे समझना ? इस प्रश्न का उत्तर किया कि ‘बडे तो समुद्र जैसे है । जैसे समुद्र में पानी की कमी नहीं है । वैसे किसी को भी कम सुख देते नहीं है किन्तु पात्र की योग्यता के अनुसार वैसा दिखाई देता है । वह उपर से तो जैसा बडे लोगो का खयाल रखना पडता है, वैसा गरीब का नहीं रखा जाता । यह तो व्यवहार कहलाता है कि पर्वतभाई पीछे बैठे और बडा आदमी हो वह आगे बैठे ।’ (११८)

श्रीजी महाराज भगवान है उनके स्वरुप में लगे रहना । और गृहस्थ को ग्यारह नियमों का पालन करना तथा त्यागीको तीन ग्रंथका पालन करना, उतना ही करना है और कुछ करना नहीं है । (११९)

कोटि जन्म से जो कसर मिटनेवाली हो वह आज मिट जाय और ब्रह्मरुप कर डाले यदि सच्चे संत मिले और वे कहें वैसा करे तो । (१२०)

कई रुपयों से आँख, कान आदिक इन्द्रियाँ मिलती नहीं हैं, वे भगवान ने दी हैं । किन्तु जीव तो कृतघ्नी है । (१२१)

और कोटि कल्प में भी भगवान का धाम न मिले वह ऐसे साधु को हाथ जोडे उतनेमें मिलता है । (१२२)

और अन्य अपराधों को महाराज मानते नहीं है किन्तु उन चारके द्रोह को मानते हैं । एक भगवान, दूसरे आचार्यजी, तीसरे साधु और चौथे सत्संगी । अतः इन चारों का द्रोह नहीं करना चाहिए । भगवान के स्वरुप की निष्ठा हुई उसको साधन सब हो चुके, शेष कुछ करना रहा नहीं है । (१२३-१२४)

और महाराज ने कहा था कि ‘स्त्री को संतान होने के बाद पुरुष के प्रति स्नेह कम हो जाता है । उसी प्रकार भगवान की मूर्ति के (हृदयमें) दर्शन होनेके बाद प्रकट की अधिक उम्मीद नहीं रहती ।’ (१२५)

इस लोकमें सयाना कोई प्रभु भजन करता नहीं है और जो पागल हो जाये वे भजते हैं । (१२६)

तथा बाजरी खाना और प्रभु भजना; ओर कुछ करना नहीं है । और रोटी तो भगवान को देना है, वे देंगे देंगे और देंगे । (१२७)

और धर्मशाला (संतआश्रम) के काम में लोगों ने बहुत परिश्रम किया । इनसे हम बहुत प्रसन्न हुए । ऐसे साधु का दर्शन तो पंच महापाप को जला दे ऐसा है, किन्तु ऐसी महिमा नहीं समझते हैं । यदि ऐसी महिमा समझे होते तो हृदय से आनंद के फव्वारे छूटते कि ये तो कोई बाते हैं ! ये तो अक्षरधाम की बाते हैं किन्तु बिना सांख्य कसर रह जाती है । सांख्यवाले को तो यह लोक नर्क जैसा लगता है किन्तु कहीं माल नहीं माना जाता । और यह कारखाना (निर्माण कार्य) तो मिट्टी का है उसमें माल मानना नहीं चाहिए । (१२८)

जिसे भगवान और साधु में स्नेह होगा तो उसके प्रति सबको स्नेह रहेगा और उनसे प्रतिकूल रहेगा, उससे सभी प्रतिकूल होंगे । यह बात समझ रखना, इसमें तो कोइ संशय नहीं है । (१२९)

दुःख मत मान लेना, जो चाहिए वह हमें मिला है; और अधिक धन दें तो प्रभुका भजन नहीं होता इसलिए नहीं देते है । (१३०)

महाप्रलय की आगमें भी वासना जली नहीं; वह वासना कारण शरीररुप माया है । उसे मिटाने का साधन एक तो भगवान की उपासना एवं दूसरी आज्ञा हैं । अतः शिक्षापत्री में कहा है कि ‘निजात्मानं ब्रह्मरुपम्‌’ ऐसा मानना चाहिए । यह आज्ञा है । इस वचन से तो महाराज ने सब को एकांतिक कर दिये है । (१३१)

और दुर्लभ से दुर्लभ सत्संग, और दुर्लभ से दुर्लभ एकांतिकभाव एवं दुर्लभ से दुर्लभ भगवान ये तीन बातें हमें मिल चुकी हैं । और सूख जाओ, अन्न छोड दो, वन में चले जाओ या तो गृहत्याग कर दो उन सबसे भी ये बातें सुनना वह श्रेष्ठ है । ये बातें तो पुरुषोत्तम के वचन हैं एवं गुणातीत है । और इन बातोंमें से तो अक्षरधाम दिखाई देता है । वे भगवान अक्षरधाम एवं मुक्तों को लेकर वैसे के वैसे यहाँ आये हैं । उसमें फर्क नहीं समझना और महिमा समजाती नहीं है इसलिये जीव दुर्बल रह जाता है । (१३२)

एक दिन में राज्य दे सकते हैं किन्तु विद्या नहीं दे सकते । और राजा के कुँवर को कितना भी खिलायें तो भी एक दिन में बडा नहीं होता वह तो धीरे धीरे बडा होता है । वैसे ज्ञान भी सत्संग से धीरे धीरे होता है । (१३३)

जिन्होंने बडों को जीव सौंप दिया हो उनको भी वासना रहती है । उसे मिटाने का साधन तो महिमा एवं आत्मनिष्ठा है । (१३४)

और वासना मिट जाय तो भी देहभाव रह जाता है । ऋषभदेव भगवान का देहावसान का समय हुआ तब उन्होंने मुँह में पत्थर का कौर रखा । क्यों ? तो खाने की आदत मिटाने हेतु; इस तरह बात समझना । (१३५)

यदि प्रसन्न होकर सिरपे हाथ रखें तो भी ज्ञान कैसे होगा ? ज्ञान तो बातें करने से होता है । और प्रसन्न हो जाय तो बुद्धि दें जिससे बातें समझमें आये । (१३६)

और ये बातें तो जादू है । उसे जो सुनेगा वह पागल सा हो जाय । पागल माने कया ? तो संसार झूठा हो जाय फिर उसे सयाना कौन कहेगा ? (१३७)

और इन्द्रियाँ एवं अंतःकरण तो मूल सुुरत एवं मुम्बई के लोगों जैसे हैं । उनको सत्संग होता ही नहीं है । और अंतर्कलह तो बडा भारी है । वह तो जिसको विघ्न डालें वही जाने । वह तो रंगरेज के रंग की तरह माया के पाश लगे हैं । इसलिये बातें स्पर्श नहीं करती है । (१३८)

और साधनाें से यदि निर्वासनिक हो जायेंगे तो भी क्या हुआ ? और उससे क्या लाभ है ? वे तो वृक्ष जैसे हैं । और जिसे भगवानकी निष्ठा है उसे वासना है तो भी क्या फिकर है ? उसका क्या भार है ? ऐसी बल की बहुत बातें की । (१३९)

और भगवान के आश्रय जैसी तो कोइ बात नहीं है । उसको तो सभी साधन हो गये है, कुछ करना शेष नहीं बचा । भगवान तो अधमउद्धारण, पतितपावन एवं शरणागत वत्सल है । वे दीनबंधु दयालु भगवान कैसे दयालु हैं ? ‘जाका जग में कोई नहीं, ताके तुम महाराज’ जिसका कोई नहीं उसके भगवान हैं । भगवान तो गरीब नवाज कहलाते हैं । और...प्रगटनें भजी भजी पार पाम्या घणा, गीध गुनका कपिवृंद कोटि ।व्रजतणी नार व्यभिचार भावे तरी, प्रगट उपासना सौथी मोटी ।।अतः प्रगट के जैसी तो कोई बात (श्रेष्ठ) नहीं है । और प्रगट सूर्य से ही ऊजाला होता है । अतः प्रगट का आश्रय हुआ है उसका बल रखना चाहिए । १४०

और निरीक्षण करके देखा, तो विषय का संबंध हो तब हम प्रभु भजते हैं अन्यथा नहीं भजते । तथा भोजन आवास आदिक सानुकूल हो तो भजते हैं । (१४१)

और यह जीव विषय से अलग होता नहीं है । यहाँँ भजन करवाते हैं, उससे पल दो पल के लिये अलग होता है । जिससे निर्गुण भावको प्राप्त हो जायेगा । और जीव को तो वचनामृत में लंबकर्ण (गधे) जैसा कहा है । ऐसा हो किन्तु यदि वो वर्तमान धर्मका पालन करे तो वो जीव तो अच्छा होगा । ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसे स्त्री नहीं चाहिए और ऐसी कोई स्त्री नहीं हैं जिसे पुरुष नहीं चाहिए । उससे भिन्न होने के लिए महाराज ने एक श्लोक लिखा है कि ‘निजात्मानं ब्रह्मरुपं’ जैसे उत्तर गुजरात की भूमि में पाताल तक खोदें तो भी पत्थर नहीं मिलता; यही उपाय है । (१४२)

और पहले तो मुमुक्ष भगवान को ढूंढते थे और आज तो भगवान मुमुक्ष को ढूंढ रहे हैं । (१४३)

और हम भगवानका भजन करते हैं उनसे बहुत बडा लाभ होगा । वह एक ब्रह्माण्ड जितना तो नहीं किन्तु सौ ब्रह्माण्ड जितना भी नहीं कहलायेगा । (अर्थात्‌ उससे अधिक कहलत्येगा ।) (१४४)

हमारे साथ रहते हैं और माल अन्यत्र मानते हैं उसको पहचान नहीं हैं । यह दर्शन तो बहुत जन्म के पुण्य से होते हैं । अन्यथा दर्शन होते नहीं और यह तो जैसा है वैसा समझ में आ जाय तो उसी क्षण पागल हो जाओगे और पागल नहीं बनते हैं वह भी भगवान की इच्छा है । यह दर्शन तो अति दुर्लभ है किन्तु बारिस बरसे तब उसकी महिमा नहीं होती परंतु न बरसे तब पता चले ! और बारिस न बरसे उसका दुःख तो शरीर को होता है किन्तु यह योग न हो तो उसका दुःख तो आत्मामें होगा और जिसे यह योग नहीं होगा उसको तो फिर रोना पडेगा । (१४५)

देह के निमित्त से, देश के निमित्त से और काल के निमित्त से जीव ग्लानि पा जाता है । वह ग्लानि नहीं पानी चाहिए । उसका तो स्वभाव ही वैसा है और किया सब भगवान का ही होता है; वे चाहे वैसा करें । स्थूल का दुःख आयें, सूक्ष्म का दुःख आयें एवं कारण का द्‌ुःख आये उसको मानना नहीं । महाराज ने भी समन्वय करके प्रभु का भजन करवाया है । (१४६)

ये कारखाना (निर्माण कार्य) तो एक साल के करें तो दो साल का खडा हो जाता है, और दो साल का करें तो चार साल का खडा हो जाता है । और हम सब मुस्तैदी से लगे तो जूनागढ से वरताल तक सडक बना दें जिससे छांव में चलें जाय और धूप तो लगे ही नहीं; किन्तु बातें करने का और समझने का बाकी रह जायेगा । और भगवान बिना तो आत्मज्ञान, वैराग्य, और धर्म आदि सब अभद्र है किन्तु वे कोई कल्याण कर्ता नहीं है । (१४७)

और तीस लक्षणयुक्त साधुरुप भगवान को समझना एवं उनचालीस लक्षणयुक्त राजारुप भगवानको भी समझ रखना । बाक़ी ऐश्वर्य से भगवानपन नहीं है । यह बात भी अवश्य समझ रखनी चाहिए । और अंतर में शीतलता बसी रहे परंतु धधक न जाये उसके दो उपाय हैं, एक तो भगवान का भजन करना और दूसरा भगवान को सर्वकर्ता समझना । उनमें सुख आये तो सुख भोग लेना और दुःख आये तो दुःख भोग लेना अतः कहा है कि दासके दुश्मन हरि कभी होते नहीं, जैसा करेंगे वैसा सुख होगा - ९ (१४८-१४९)

भगवानने मोह क्यों बनाया होगा ? ऐसा संकल्प करके जाँच की तो समझमें आया कि वह सोच
समझकर किया है अन्यथा ब्रह्माण्ड नहीं चलता । (१५०)

और मुक्तानंदस्वामी में स्नेह नहीं होता और सूअरी जैसी स्त्री हो उसमें प्रीति होती है क्योंकि देव की माया का मोह ही ऐसा है । (१५१)

बडों के प्रति सद्‌भाव ही निर्वासनिकता का कारण है और बडों के प्रति असद्‌भाव वही वासना का हेतु है । भगवान की पहचान हुई, साधु की पहचान हुई; उसने सब समझ लिया अब कहीं दाडेधूप नहीं करना हैं । (१५२)

और मोक्ष के लिये तो भगवान और साधु ये दो ही हैं । और अन्य साधनों का फल तो धर्म, अर्थ और काम है । (१५३)

और स्वामिनारायण नाम के मंत्र जैसा दूसरा कोई मंत्र आज बलवान नहीं है । उस मंत्र से तो काले नाग का जहर भी न चढे, उस मंत्र से तो विषय नष्ट हो जायँ; ब्रह्मरुप बन जायँ और काल, कर्म, माया का बंधन छूट जाता है । ऐसा बलवान यह मंत्र है । अतः निरंतर उस नामका भजन करते रहना । (१५४)

और लकडी, पत्थर, ईंटें एवं मनुष्य उसमें सबको देवकी माया का मोह होता है । भगवान की मूर्ति के सामने तो सब काल रुप है । और कथा है, वह तो भगवान की मूर्ति है । उससे समझ की (ज्ञानकी) दृढता होती है । अतः उसका अभ्यास करते रहना । (१५५)

और नरनारायणानंद स्वामी तो नरनारायण जैसे हैं । उन्होंने बुरहानपुरमें तीन वर्ष तक स्त्रियों की सभामें बातें की इसलिये श्रीजीमहाराज ने उनको नरनारायण कहकर पूजा की और उनके पुत्र योगानंद स्वामी एवं कृष्णानंद स्वामी हुए थे । अतः गृहस्थाश्रम में रहे तो पुत्र तो होते हैं वह तो बडे बडे भी संसार में रहकर आये हैं । (१५६)

और चार प्रकार के सत्संगियों में पहला सबसे श्रेष्ठ आत्मा एवं परमात्माके ज्ञानवाला और उसके बाद दूसरा ध्यान एवं प्रीतिवाला; ध्यान और प्रीतिसे (भगवानमें) जुडा हो तो पार हो जायेगा । तत्पश्चात्‌ तीसरा आज्ञा पालन करने वाला, वह तो आज्ञा में रहकर मुश्किल से पूरा करे; वह भी पार हो जाये तो ठीक । उसके बाद चौथा जिसे कोई साधु के साथ स्नेह हुआ हो, उसके द्वारा भी टिकता है । इस तरह चार प्रकार के भक्तों के रुप कहे । फिर कोई हरिभक्त ने प्रश्न पूछा कि ‘वे चार प्रकार के भक्तों में प्रथम ज्ञानी कहा उसको किसी भी प्रकार का विघ्न आता है या नहीं ?’ उसका उत्तर किया कि ‘कोई धक्का दें तो गिर पडे और फिर खडा हो जाता है वैसा होता है एवं जैसे बारिस की ऋतुमें फिसल पडते है और फिर खडे हो जाते हैं । वैसे विचार द्वारा देश काल के प्रभाव को मिटा देता है । किन्तु देश काल तो आये भी सही ।’ यही उत्तर है । (१५७)

और कोटि कल्पमें भी बिना ज्ञान प्राप्त किये अंत नहीं है । वह क्या तो ‘निजात्मानं ब्रहमरुपं’ इस श्लोक में कहा है वैसा मानना, जैसे गुजरात की भूमि में पत्थर न आयें वैसे । हरिभक्तों को तो विषय नहीं कहा जाता । उन्हें तो आज्ञा है । (१५८)

मिले होते परंतु यदि ऐसे साधु न मिले होते तो इतना प्रयत्न करके कौन समझाते ? महाराज के सत्संगी से भी साधु के सत्संगी अधिक हैं । (१५९)

और कथा पढवाते थे तब बात आयी कि ‘व्यासजी को शांति नहीं हुई’ उस पर बोले कि हमें भगवान मिले हैं तो भी शांति नहीं है उसका क्या कारण है ? तो एक तो विषय के प्रति राग के कारण, दूसरा भगवान की आज्ञा अनुसार नहीं बरतने से और तीसरा अज्ञान, उन तीनों के कारण शांति नहीं होती है । (१६०)

और बडे बडे साधु का संग करना चाहिए । क्यों ? तो किसी में एक गुण हो, किसी में दो गुण हो और किसी में तीन गुण हो; उन सबके संग से वे वे गुण आते हैं और सर्व गुण सम्पन्न एक मिल जाय तो कुछ कमी ही न रहे । किन्तु ऐसे(सर्व गुण संपन्न) बहुत नहीं होते । (१६१)

और किसी को सूर्य की उपमा दे सकते हैं ? वे तो एक ही हैं । वैसे भगवान भी एक ही हैं । अनंत अवतार उन एक भगवान का दिया ऐश्वर्य पाये है । आजके जैसा समय पृथ्वी पर आया नहीं है और आयेगा भी नहीं । ये साधु आये नहीं हैं और आयेंगें भी नहीं । ये भगवान भी आये नहीं हैं और आयेंगे भी नहीं । अनेक अवतार हो गये अनंत होंगे किन्तु ये साधु और ये भगवान वे आये नहीं है और आयेंगे भी नहीं । (१६२)

और अक्षरधाम से खुद पुरुषोत्तम यहाँ जीवों के कल्याण के लिये स्वतंत्रता से आते हैं और अनंत जीवों का कल्याण करके चले जाते हैं । और मुक्त तो आज्ञा से आते है और कोइ मुक्त तो वासना के कारण आते हैं; वे तो प्रियव्रत जैसे, अम्बरीष जैसे या तो भरतजी जैसे बनते हैं । (१६३)

और अलभ्य लाभ मिला है एवं एकांतिक मुक्ति प्राप्त कर ली है । आज सत्संग का भर यौवन है और आज तो गन्नेका बीचका भाग है, वह हमको मिला है; उसमें रस अधिक एवं (खानेंमें) सुगम भी है । (१६४)

और काम क्रोधादिक दोष तो जैसे मुँहासे या दाद जैसे हैं; ये तो देह का भाव हैं । वह मिट जायेगा । और बडें सत्पुरुष दृष्टि करें तो इसी क्षण मिट जाय; किन्तु बडों का अवगुण तो क्षय रोग जैसा है । (१६५)

एक तो भगवान की आज्ञा और दूसरा संत का स्वरुप एवं तीसरा भगवान का स्वरुप इन तीन बातों में भगवान प्रसन्न, प्रसन्न और प्रसन्न । और उसको धन्य है । अतः ये तीन बातें अवश्य रखना । (१६६)

और यह सत्संग मिला है वह तो पारसमणि तथा चिंतामणि मिलि है । उसमें जीव बहोत वृद्धि पाता है । (१६७)

और आश्रय का रुप कैसा कहा ! कि कोई हमारे मंदिर में कल ही आया हो और वह बीमार पडे और बीस साल तक बीमार रहे तो भी उसकी सेवा-चाकरी करनी पडती है । जैसे गृहस्थ के बीबी बच्चे को उसका आश्रय है तो वह देश परदेश जाकर भी उसका खयाल रखता है । वैसे भगवान अपने आश्रित की खबर रखते हैं । (१६८)

और सी बात साधु द्वारा है, अतः उसे प्रधान रखने चाहिए किन्तु साधु गौण हो जाय और ज्ञान प्रधान हो जाय ऐसा नहीं करना । (१६९)

और महिमा समझमें आ जाती है फिर भूल जाते हैं, इसलिए सौ बार पढे सुने तो फिर भूलते नहीं । श्रीजीमहाराज की उपस्थिति में प्रेम बहोत था और आज ज्ञान का प्राधान्य है । कई संस्कारी जीव आये हैं, अतः साधु में हेत तुरंत हो जाता है । (१७०)

सभी बडे बडे साधु हो, श्वेतद्वीप जैसा स्थान हो, ब्रह्मा के कल्पपर्यंत आयु हो और उन सब संतोका संग करके उनके गुण सीख लें तब सत्संग होता हैं और वासना टलती है । और जो कहे ऐसे सर्व गुण एकमें हो, ऐसे(संत) का संग मिले तो सर्व गुण आते हैं और वासना मिट जाती हैं । वह संग आज हमें मिला है । (१७१)

एक तो यज्ञ करने समग्र पृथ्वीमें घोडा फिरावे, उसमें बडा भारी प्रयास; क्योंकि कोई बांध ले तो यज्ञ अधूरा रह जाय और एक तो आंगन में घोडा फिरा ले; उसमें क्या कहा ? तो इन्द्रियाँ, अन्तःकरण वश करना वो पृथ्वीमें घोडा फेरने जैसा है और अपने को ब्रह्मरुप मानना वह तो आंगन में घोडा फेरने जैसी बात है । तथा साधु के चौसठ लक्षण कहे गये हैं वे सीखना वह तो पृथ्वी में घोडा फेरने जैसा कठिन है । और चौसठ लक्षणवाले संत में जुड जाना वह आँगन में घोडा फेरने जैसा सुगम है । (१७२)

और तप करके जल जाय तो भी यदि भगवान का आश्रय न हो तो भगवान लेने नहीं आते; और हिंडोला-सेजमें सोया रहे तथा दूध, शक्कर एवं चावल का भोजन करे, सेवा करनेवाले और कमानेवाले तो दूसरे हो, तो भी उसको अंत समय में भगवान विमान में बिठाकर ले जाते हैं; यदि भगवान का आश्रय हो तो । अतः मोक्ष का कारण तो आश्रय है । (१७३)

फुरसत हो तब भगवानकी मूर्ति धारकर बैठना । वह मूर्ति क्या ? तो भगवान की कथा, कीर्तन, ध्यान आदि भगवान की मूर्ति है और जहाँ देह हो वहाँ काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, स्नेह, मान, निद्रा आदि सब होते हैं उन सबको तो देह के साथ रखना । जैसे कोई अफीम का व्यसन रखते हैं वैसे । वे सुख समान दिखाई दे रहे हैं किन्तु वे तो देह को दुःख दें वैसे हैं, ऐसा समझना । (१७४)

और अपना तो अन्तिम जन्म हो चुका है, अन्तिम जन्म माने क्या ? तो मनसे प्रकृति के कार्य में माल न मानना, यही अन्तिम जन्म है । किसी व्यक्ति की किसीने थोडी सी भी सहायता की हो तो भी भूलता नही है, तो भगवान के लिये हमने कुछ किया हो या करें उसे वे कैसे भूलेंगे ? वे भगवान तो भूले वैसे नहीं है और भगवान की दया तो अपार है । सर्वत्र दया वहाँ से ही आई है । (१७५-१७६)

भगवान मिले, साधु मिले, अब हृदय में दुःख न आने देना । और प्रारब्ध से आये उसे भोग लेना । (१७७)

जैसे शब्द सूने वैसा जीव हो जाता है । अतः भगवानके बलवान भक्त हो, उनके शब्द सूने तो जीव में बल आता है, किन्तु नपुंसक के संग से बल नहीं मिलता । (१७८)

ये तो बडों की दृष्टि पड चुकी है, इसलिए विषयकी तीक्ष्ण वृत्ति कम हो गई है; अन्यथा उसके बिना रह नहीं सकते । (१७९)

और अविद्या का भी भगवान चलने दे तो चले, अन्यथा उसका कया भार है ? वह तो भगवान द्रष्टि करे तो फटकर मर जाय, यह बात भी
समझ रखनी चाहिए । (१८०)

जन अवगुण प्रभु मानत नाही, ऐही पूरवकी रीतदीन बंधु अति मृदुल स्वभाउ, गाउं निश दिन गीत जाओ इस प्रकार कल्याण होगा । (१८१)

और संत हैं वहाँ नियम हैं, धर्म हैं, ज्ञान हैं; एवं संत हैं वहाँ अनंत गुण हैं और भगवान भी वहीं है । उसके द्वारा ही जीव पवित्र होता है । वचनामृत में कहा है कि ‘भगवान कहते है कि तप, त्याग, योग, व्रत, दान आदि साधनों से मैं ऐसा वश नहीं होता हूँँ, जेसा शुद्ध अन्तःकरणवाले साधु के संग से होता हूँ । जिसे यह सत्संग मिला है उसके पुण्यका अन्त नहीं है । अजामिल महापापी था किन्तु उसको सनकादिक मिले, उनको प्रणाम किया और कहा कि ‘मुझ से तो कुछ नहीं होता’ तब साधु तो दयालु हैं, अतः पुत्रका नाम नारायण रखवाकर भी मोक्ष किया । (१८२)

भगवान के धाम में जो सुख है, उनमें से एक छींटा डाला वह प्रकृति पुरुष में आया, वहाँ सें प्रधान पुरुष में आया, वहाँ से वैराट पुरुष में आया, वहाँ से देवों में आया और वहाँ से यहाँ मनुष्य में आया है । उस सुखमें जीवमात्र सुखी है । अतः सुख मात्र के मूल कारण तो भगवान हैं । उनके सुख से सुखी होना । (१८३)

भक्तिमाताने महाराज से कहा कि ‘मेरी स्त्री की देह, जिससे मुझे अधिक समझ में नहीं आएगा, अतः संक्षेप में कहिए तब महाराजने साधुके चौसठ लक्षण कहे और कहा कि जिसने ऐसे साधुमें आत्मबुद्धि की उसको तो सब संपूर्ण हो चुका ।’ और महाराज ने कहा कि ‘वैसे साधुके दर्शन तो हम भी चाहते हैं ।’ आदि बहु महिमा कही । (१८४)

जिसको ज्ञान न हो उसको तो ऐसा होता है कि ‘हम क्या पायेंगे और कहाँ जायेंगे ?’ और जिन्हें ज्ञान हो उनको तो अहो ! अहो ! होता रहता है कि यह प्राप्ति हुई अब कुछ करना शेष रहता नहीं हैं । (१८५)

सौ जन्म का शुद्ध ब्राह्मण, सोमरस को पीनेवाला हो, उससे भी भगवान का भक्त श्वपच हो वह श्रेष्ठ है । ऐसी भगवान के भक्त की महिमा समझना ऐसा प्रह्‌लाद का वाक्य है । (१८६)

और भगवान जब पृथ्वी पर आयें तब राजसी, तामसी एवं अधम का भी उद्धार कर देते हैं । कोई ताल मेल नहीं रहता । (१८७)

और यह जीव तो जैसे परदेश से मूढ लोग को पकड लाएँ ऐसे है । उनको कुछ सुझ-बुझ नहीं है, जब उनको साधु ज्ञान देकर मनुष्य करते हैं तब मनुष्य होते हैं । (१८८)

और पुरुषोत्तम की उपासना द्वारा जीव अक्षर जैसा हो जाता है । और बडों को मिलने पर तो वह बहुत बडप्पन पा लेता है । जू को प्रसव हो तो लीख आती है और हथनी को प्रसव हो तब बैल जैसा बच्चा आता है । उस पर वचनामृत पढवाया कि ‘भगवान को जैसा ाने वैसा खुद होता है’ । (१८९)

और कोटि कल्पके पाश लगे हैं, इसलिये अभी भगवान में जुडने जाते हैं किन्तु माया में जुड जाते हैं, परंतु जब ज्ञान होगा तब माया में जुडने जायेंगे तो भी भगवान मेें जुड जायेंगे । अब तो इन्द्रियाँ एवंं अन्तःकरणके भावसे मुक्त होकर साधु में जुड जाना और साधु भगवान में जोडेंगे । अपने बल पर छूटने जायेंगे उतना अधिक बंधन होगा । (१९०)

और देहका भाव न दिखाई दे ऐसे तो एक स्वरुपानंद स्वामी ! क्योंकि वे तो देहरुप रहते ही नहीं हैं और दूसरों को तो देहके भाव दिखाई देते हैं । (१९१)

एक शब्द से तो स्वरुपानंद स्वामी को ज्ञान हो जाय और हमको तो करोड शब्द पडने पर ज्ञान होता है किन्तु तुरत समझ में नहीं आता । पूर्वमें बड़े बड़े हुए, उनमें किसीमें किसी प्रकार का दोष होता है लेकिन उसे कहना नहीं चाहिए । उससे तो जीव बिगड जाता है । ऐसी बातमें तो शिवजी के आचरण से चित्रकेतु को संस्कार हुए । सो चिडिया की मौत ढेले से । सत्संग का बडप्पन तो निश्चय से है किन्तु साधनों से नहीं है । (११२-१९३)

अपना कल्याण तो प्रत्यक्ष भगवान के आश्रय से है और शास्त्रानुसार रहना वह तो दूसरे के कल्याण के लिये है क्योंकि अपना गुण जिसको आये उसका भी कल्याण होता है । (१९४)

कई लोग धर्म पालनमें सख्त होते हैं किन्तु समझ कम होती है । और कई लोग धर्म में सामान्य होते हैं तो भी समझ श्रेष्ठ होती है । अतः जिसे समझ हो वो सत्संगमें आगे बढता है । (१९५)

ब्रह्मभाव एवं महिमा कि बातें बहुत नहीं करते है क्योंकि उससे तो लोग पागल हो जाते हैं, इसलिये वर्तमान धर्म एवं पुरुष प्रयत्न की बातें करते हैं; क्योंकि अनंत जीवों को भगवान का भजन करवाना है । हम मानते हैं कि हमें भगवान के प्रति प्रेम है, किन्तु हमसे अधिक तो भगवान और साधु को हमारे प्रति स्नेह है । (११६-१९७)

और जीव मात्र लघुशंका के हैं और उनका ही चिन्तन करते हैं, उसके बिना रह नही सकते । वह भी कहाँ तक ? वैराट तक भी नहीं रह सकते और उससे तो एक सनकादिक तैर सके । और यह तो महाराजने नया उठाव किया है, और हम भी कोई अच्छे लोक से आये होंगे अतः यहाँ बैठ सकते हैं और ऐसा संयोग प्राप्त हुआ है, अन्यथा प्राप्त नहीं होता । एवं बिना विषय तो जीव रह सकता नहीं है इसलिए वेदों द्वारा नियम बनाकर विषयों की छूट दी गई है; फिर भी जीव वेद के अनुसार चलते नहीं हैं । सो अच्छे अच्छे लोग भी नहीं चलते, क्योंकि विषय का बल बहुत भारी है । इस तरह बात की । (१९८)

इस कारखाने (निर्माणकार्य) में तो ब्रह्माण्ड जितना व्यवहार करना और आसक्त न होना ऐसे तो एक सहजानंद स्वामी हैं । यह बात तो कैसी है ? कि आठ रत्ती भार की चूही और उसके उपर हजार मण का पाट पडे, तब चूही का नामो निशान मिट जाय ऐसी बात है । अतः महाराज ने कहा है कि गोपालानंद स्वामी एवं मुक्तानंद स्वामी भी हल्के लोग जैसे रहे या न रहे अतः हमको तो भगवान एवं संत ये दोको रखना है । सुवर्ण रखकर उस पर रुपये देना तो नुकसान न हो और दूसरे व्यापार में तो नुकसान भी हो सकता है । इसलिये आत्मनिष्ठा आदि गुण है, किन्तु भगवान एवं साधु जैसा कोई नहीं । (१९९)

प्रत्येक विषय गिरनार जैसा बडा है । सो सारे संसार के सुतार, लुहार, राज मिलकर हजार या पांचसौ वर्ष तक खुदाई करें तब खुदा जाय । इस तरह बात कही वह समझनी चाहिए । (२००)

भगवान का भजन करना वह सबसे अधिक है और उससे भी स्मृति रखना अधिक श्रेष्ठ है और उससे भी ध्यान करना वह श्रेष्ठ है । और उससे भी अधिक श्रेष्ठ तो अपनी आत्मा में भगवान को धारना वह है । (२०१)

और सर्वकर्ता तो भगवान है । अब हम चाहे कि नींद में चले जाय तो जा नहीं सकते और सोये हो तो चोर आकर लूंटकर चले जाय किन्तु हम जाग नहीं सकते; अतः सर्वकर्ता तो भगवान है । (२०२)

एवं यह विषयरुपी फंदा जीवके गले में डाल दिया है, उसका जोर है । जैसे नदी का प्रवाह चलता हो तब तक जोर दिखाई नहीं देता किन्तु उसे बंद करे तब पता चलता है । सो बडे बडे सौभरी व पराशरादि दिग्गजों को भी पराजित किये है । वह वासना जो लिंगदेह, आत्यन्तिक प्रलय में भी नहीं जला वह आज ज्ञान से जलता है । परंतु महाराजने तो सर्व द्वार बंद कर दिये हैं । सो जीव क्या करेगा ? जैसे पानी की नाली में साली चलाने से बहाव के द्वार बंद हो जाते हैं । फिर पानी कहीं जा नहीं पाएगा इस प्रकार बंद किया है । (२०३)

अन्त्य प्रकरण का तेरहवाँ वचनामृत पढाकर उसमें ‘देशकाल की अति विषमता हो जाय, तब उसमें भी एकान्तिकता कैसे रहे ?’ इस प्रश्न पर बात की, कि निश्चय रहे वही एकान्तिकता है और वही रहेगा । जैसे चिंतामणि रही और दूसरा सारा धन गया तो भी कुछ गया नहीं है; और चिंतामणि गइ और बाकी सब धन रहा तो भी कुछ रहा नही है । ठीक उसी तरह निश्चय रहा तो सब कुछ रहा और अन्तमें वही रहेगा । (२०४)

अन्त्य प्रकरण के पैंतीसवें वचनामृत में कहा है कि ‘छह लक्षण युक्त संत हो तो उनकी सेवा करने से भगवान की सेवा का फल मिलता है और उनका द्रोह करने से भगवान के द्रोह का पाप लगता है ।’ सो आज तो अधिकांश सारा संप्रदाय ऐसा है । (२०५)

और सच्चे भगवदीय हो उनमें (सत्व, रज, तम) गुणका प्रभाव नहीं होता । वे तो सावधानीरुपी ज्ञानके द्वार पर खडे रहकर देखते रहते हैं । (२०६)

और महाराज ने कहा कि ‘हमेें संकल्प होता है कि सबको मुक्तानंद स्वामी जैसे कर दें, फिर संभालने न पडे’ क्योंकि मुक्तानंद स्वामी को तो ज्ञान प्रधान । सो वे तो ज्ञान से सब मिथ्या कर दें और मुक्तानंद स्वामी को तो ‘शब्द आकाशका भाग है ।’ इस तरह निषेध करना आता था । दूसरों को तो वैसा ज्ञान नहीं है, इसलिए ये सब नियम बनाये हैं कि देखना नहीं, सुनना नहीं इस प्रकार का नियम प्रबंध किया है । (२०७)

और ब्रह्मवेत्ता के अभिप्राय से वेद का मार्ग जो विधि निषेध, उसका भी मूल्य नहीं है, ऐसा जडभरत ने रहुगण राजा से कहा था । और उसकी समझ में तो आत्मा एवं परमात्मा ये दो ही बातें रखनी चाहिए, ऐसा कहा । उस विषयमें अन्त्य प्रकरणका अन्तिम वचनामृत पढाकर बोले कि इस वचनामृत में भी ‘आत्मा और परमात्मा इन दो बातका वेग लगा देना’ ऐसा महाराज का सिद्धांत है । (२०८)

और मेरा शरीर पच्चीस साल से बिना आयु रहा है, वह क्यों ? तो मुमुक्षुओं की भलाई के लिए रहा है । और महाराज के स्वरुप को समझाने के लिये हमको रखा है । (२०९)

और अभी आया हुआ होगा उसको अक्षरधाम का सुख मिलता होगा और महाराज को मिला हुआ होगा एवं मुक्तानंद स्वामी को मिला हुआ होगा उसको अक्षरधाम का सुख नहीं मिलता होगा । ऐसा समझदारी में रहा है । (२१०)

हमें ज्ञान तो आता नहीं है और वैराग्य तो है नहीं । इसलिए ‘मैं भगवान का और वे मेरे’ ऐसा समझना । स्नेह तो पंद्रह आना संसार में है और एक आना हमारे प्रति है । और कल्याण तो उनकी (भगवानकी) शरण में गये इसलिये वे समर्थ है सो करेंगे, वह उनका बडप्पन है । (२११)

और जैसा है वैसा कहेंगे तो कोई घर वापस नहीं जा पायेगा; और जाय तो वहाँ रह नहीं सकता, ऐसा कहकर बोले किताजी तीक्ष्ण घार, अडतामां अळगुं करे ।त्यां लेश न रहे संसार, वज्र लाग्या कोई वीरना ।। ऐसा बोले । (२१२)

राजा को पानी नहीं पिलाया तो भी उसने संकल्प किया था इसलिये गाँव भेट दिया । जैसे जीव अपने स्वभाव छोडते नहीं है, वैसे भगवान भी अपना मोक्ष करने का स्वभाव छोडते नहीं है । (२१३)

मानी को मान देकर जीतना, गर्ववान हो उसके आगे दीन होकर जीतना, लोभीको पदार्थ देकर जीतना और गरीब हो उसको दबाकर जीतना; इस तरह कुछ ज्ञान कलायें सीखनी चाहिए । (२१४)

दिव्यभाव एवं मनुष्य भाव एक करके समझे वह मायाको तैर चुका है, और वही माया है यह समझ रखना । और ऐसा न समझे तो जब प्रथम ऐश्वर्य बतायें तब आनंद होता है और जब रोना आदि मनुष्य भाव बतायें तब शंकित होते हैं । तथा दिव्यभाव और मनुष्यभाव एक करके समझता है उसे क्या साधन करना शेष रहता है ? कुछ भी नहीं । (२१५)

और वणथली में बात कही कि यह वणथली गाँव किसी को दे तो वह पागल हो जाय; और बडौदा दें तो बात ही क्या करना ! किन्तु हमको तो करोड करोड बडौदा मिले हैं, ऐसा भी नहीं कह सकते । अब तो देह रहे तब तक बाजरी खाकर प्रभु भक्ति करना । रोटी तो भगवान और साधुको देना हैं वे देंगे । और देहान्त होगा कि भगवान के पास जाकर बैठना है; वह जैसे वस्त्र उतार दें वैसे शरीर पडा रहेगा, इस प्रकार बात की । (२१६)

जैसे गृहस्थ अपनी माँँ, बहन या बेटी को खुले अंग देखे तो मुँह फेर लेता हैं, किन्तु सामने नही देखता । वैसे भगवान भी अपने आश्रितो के दोषके सामने देखते नहीं है । (२१७)

ये पृथ्वी के राजा-प्रजा आदिक सर्व जीव प्राणी मात्र जो हैं, वे इन्द्र बारिश न बरसावे तो सब मर जाय । और उस इन्द्र का ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सामने कोई मूल्य नहीं है । और उन सबका वैराटनारायण के सामने कोई मूल्य नहीं है । और उस वैराट का प्रधानपुरुष के सामने कोई मूल्य नहीं है । और उन सबका अक्षर के सामने कोई मूल्य नहीं है । और उस अक्षर से परे जो पुरुषोत्तम भगवान है वे आज हमें साक्षात मिले हैं; उनका बल रखना चाहिए । (२१८)

और बडे संतों के समागम से विषय की वासना मिट गई है तो भी नहीं मिटी सी लगती है । उसका कारण यह है कि जैसे तलवार में मरिया के दाग पडे हों वे सान पर चढाने से मिट जाते हैं । किन्तु अति जंग चढ गया हो तो वे मिटते नही फिर उस पूरी तलवार को पिगाल कर नयी बनाते हैं तब मिटते हैं । उसी तरह यह देह त्याग कर ब्रह्मरुप होंगे तब सब वासना मिट जायेगी । (२१९)

ये साधु तो भगवान के हजूर के रहनेवाले हैं और अणुमात्र भी दूर रहें ऐसे नहीं हैं । और दूर रहते हैं वो भी किसी जीव के कल्याण के लिये रहते हैं । और इस जन्म में जो बात हो रही है वह जन्मांतर में भी नही कर सकते; और ऐसी बात करना भी नहीं आता । आजीवन अभ्यास करें तो भी वैसी बात सीख नहीं सकते । इस प्रकार बात कही । (२२०)

और भगवान एवं साधु का ज्ञान जिसको हुआ है उसको कुछ करना शेष नहीं रहा । वह तो यहाँ है तो भी अक्षरधाम में बैठे है । पाँच माला कम-अधिक फिरे तो उसकी चिंता नहीं है । वह तो सामर्थ्य के अनुसार करना किन्तु भगवान और ये साधु इन दोनों को आत्मामें रखना । अपना बडप्पन साधन के बल से नहीं है, अपना बडप्पन तो उपासना के बल से है । (२२१)

और आज भगवान यहाँ अक्षरधाम सहित पधारे हैं, उनके स्वरुप का पर भाव समझ में नहीं आता है यही बडा पाप है । इसलिए यादव जैसे नहीं होना किन्तु उद्धवजी जैसे भक्त होना । और बडे साधुको दूसरें जैसा कहना तथा उससे निम्न कहना, वह उसका द्रोह होता है । और आज जैसी बात हो रही है और समझमें आ रही है वैसी कभी समझ में नहीं आई । (२२२)

ज्यों के त्यों अक्षरधाम से आए हैं, ऐसा पर भाव अखंड रहे तो ‘अहो ! अहो !’ जैसा (आनंद) रहे । और जैसे साधु हैं वैसे पहचाने नहीं जाते हैं । (२२३)

और जीव एवं देह का व्यवहार भिन्न समझना चाहिए । और ऐसा न समझे तो यह दुर्लभ प्राप्ति होने पर भी कमी रह जाती है । और भगवान की आज्ञा से गृहस्थाश्रम करें तो भी निर्बंध है । (२२४)

कृपानंद स्वामी आदि बडे बडे साधु जैसा बल हममें नहीं है । इसलिए बडों के समान साधन करने का वाद छोडकर ग्यारह नियमों का पालन करना । उनसे उनके जैसे बलवान हो जाएँगे क्योंकि इस सत्संग में उपासना, धर्मादिक सब है, कुछ बाकी नहीं है । (२२५)

भगवान की मूर्ति, भगवान का धाम, भगवान के पार्षद और जीव ये चार अविनाशी हैं, बाकी सब नाशवंत है । उसमें आत्मा है वह बद्ध है । जैसे किसी को बेड़ी पहनाते है, उसमें से निकल नहीं पाते । वैसे आत्माको प्रकृतिरुप स्त्री और पुरुष बेड़ीयाँ हैं । वह कैसे भी तूटे ऐसी नहीं है । वह तो ज्ञान से टूटती हैं अन्यथा शरीर द्वारा त्याग करने पर भी टूटती नहीं है । उस पर हिजड़े का एवं बैल का दृष्टांत दिया । उसे शरीर से त्याग हैं किन्तु वासना नहीं मिटती । (२२६)

और कोटि साधन करें किन्तु इस तरह बातें करना और सुनना उसके बराबर नहीं होता और दूसरे से तो इतनी प्रवृत्तिमें बातें नहीं होती । इस जीवको माया से निर्लेपता दो प्रकार से है । एक ज्ञान द्वारा और दूसरी भगवान की आज्ञा से । दूसरा तो नियमों के सहारे है । किन्तु देशकाल में उसका भंग होने पर जीव हतोत्साह हो जाता है ।(२२७-२२८)

और ज्ञान द्वारा स्थिति करना वह देखने से भी अधिक है । पर्वतभाई, कृपानंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी उन सभी को समाधि नहीं थी फिर भी उन्हें मूर्ति दिखाई देती थी । और पर्वतभाई आज हम जैसा समझ रहे हैं वैसा समझते थे । अतः अपने को ब्रह्मरुप मानकर, भीतर भगवान रहे हैं ऐसा मानना वह ज्ञान की स्थिति है, वह श्रेष्ठ है और उसमें विघ्न नहीं है । और उसके बिना तो सच्चिदानंद स्वामी जैसे समाधिवान को भी दुख आते थे । अतः प्रेमी नहीं बनना ज्ञानी बनना किन्तु ज्ञानी बनना । और अपनी समझ को कृपानंद स्वामी की तरह छुपाकर रखना है । (२२९)

और जैसे परछाई को पहुँँच नहीं सकते वैसे विषय तथा साधन को भी पहुँँच नहीं सकतेे । और उसका अंत भी नहीं है । अतः ज्ञान हो तब 
सुख होता है । (२३०)

और हम भगवान के हैं किन्तु माया के नहीं ऐसा मानना; और ये बातें तो अनंत संशयों को तोड दें ऐसी भगवान पुरुषोत्तम की बातें हैं ।

देह को अपना रुप मानें तो उसमें सब दुख रहे हैं और न मानें तो उसमें दुख नहीं हैं । शास्त्रमें बहुत प्रकार के शब्द हैं जिसे सुनकर भ्रमित हो जाते हैं और सिर घूम जाता है । ब्रह्मरुप मिटकर देहरुप हो जाते हैं और शास्त्रमें तो सर्व शब्द समान नहीं होते । दो इस प्रकार के तो दो उस प्रकार के होते किन्तु सधी एक प्रकार के नहीं होते । और ज्ञान हुआ किसे कहते हैं ? तो शास्त्र सुनकर और किसी की बात से निर्णय बदल न जाय तो वह पक्का ज्ञान कहलाता है । (२३१-२३२)

और भगवान को निर्दोष समझने से मोक्ष हो जाता है । दोष मिटाने का अभ्यास करें तो मिट जाते हैं अन्यथा जब तक देह रहे तब तक दुख रहता है । जो दोष दिखाई दे रहे हैं वे सब तत्त्व के दोष है । (२३३)

और व्यवहार देह के द्वारा करना किन्तु मन से तो अलग ही रहना । और मन उसमें जूडने आए तो ज्ञान द्वारा त्याग करना । (२३४)

या तो अष्टांग योग या तो रोग, उनके बिना अंतर का मैल जाता नहीं है । उसपर एक भक्त का दृष्टांत दिया कि रोग आ गया था फिर अच्छा हुआ । (२३५)

एक भक्त ने प्रश्न पूछाः कि सूली पर चढाया हो तो भी कैसे समझे तो संकल्प नहीं होता कि भगवान इससे छुडाए तो अच्छा । ऐसी कौन सी समझ है ? उसका उत्तर किया कि वह तो भगवान को सर्व कर्ता समझे कि भगवान बिना दूसरे किसी का किया कुछ नहीं होता, ऐसा समझे उसको संकल्प नहीं होता और धैर्य रहता है । यदि ऐसा न समझे तो वह थोडे ही दुख में घबरा जाता है । धैर्य रहता नहीं । इस लोक में महाराज को भी बिना कसूर दुख आते थे, सो यह लोक ही ऐसा है । उसका रुप जान रखना चाहिए । (२३६)

और इतनी बात तो सौ जन्ममें भी समझ में नहीं आती, इसलिए ये बातें समझ रखना । दो सच्चे साधु एवं तीन अच्छे हरिभक्त के साथ जीव जोडना जिससे सत्संग से विमुख न हो पाएँ । यद्यपि काम, लोभ थोडे रह गए होंगे तो भी फिकर नहीं है, सो महाराजने वचनामृत में कहा है कि यद्यपि काम, लोभ के संकल्प न हो किन्तु भगवान एवं भक्तमें जीव नहीं जोड रखा तो क्या हुआ ? उनके प्रति कुभाव रखने से असुर हो जाएगा । अतः समझने की बात तो भगवान के अच्छे भक्त में जीव जोडना उतना ही करना है । दूसरी बहुत झंझट करते हैं उसका प्रयोजन यह है कि यह प्रथा चलानी है और नियम पालन करवाने है इसलिए करनी पडती हैं । (२३७)

प्रतिदिन लाख रुपए लाता हो किन्तु सत्संग का बूरा बोलता हो तो वह मुझे पसंद नहीं और सोया सोया खाता हो किन्तु भगवान एवं भक्त का अच्छा बोलता हो तो उसकी सेवा मैं कराऊँ ऐसा मेरा स्वाभाव है । (२३८)

यदि सत्पुरुष मिलें तो उसका संग करना अन्यथा पतित का संग तो करना ही नहीं । (२३९)

और माया का बल बहुत है । वह माया तो वैराग्य को भी खा जाती है और आत्मनिष्ठा को भी चबा जाती है क्योंकि पृथ्वी के जीव पृथ्वी में ही चिपके । (२४०)

जैसे कुसंगी एवं सत्संगी में भेद है वैसे साधारण एवं एकांतिक में भेद है । नव योगेश्वर थे उसमें से एकने बात कही तो (दूसरे) आठ मंद पड गए । फिर वे सब मिलकर (उस) एक को मारने तैयार हुए । इस प्रकार यह बात ऐसी है । जो एकांतिक हो वह तो निष्काम होता है । वह एक भगवान का निरुपण किया करते हैं और जो सकाम होता है वह भगवान से माँगा करता है । (२४१)

भगवान और साधु का माहात्म्य जैसा है वैसा जाना नहीं जाता । वह तो किसी को दो आने, किसी को चार आने, और किसी को अठ्ठनी किन्तु जैसा है वैसा दिखाई नहीं देता । सांख्य तो बिलकुल नहीं है और सांख्य के बिना अपूर्णता दूर नहीं होती । (२४२)

कई लोगों को भगवान एवं साधु के सबंध का सुख आता है । वो किस प्रकार और कैसे समझे तो सुख आए ? इस प्रश्न का उत्तर किया कि वह तो साधुता सीखें तो आए और उसके बिना तो दोष पीडा दें इसलिए सुख नहीं आता । फिर पूछा कि कई लोगों को स्वप्न में सुख आता है, वह कैसे आता है ? उसका उत्तर कि उसका कोई निर्धार नहीं है क्योंकि स्वप्न में तो भगवान दिखाई दें और दूसरा भी कुछ दिखाई दें । अतः ज्ञान द्वारा होता है, वही सच्चा है । (२४३)

और जैसा है वैसा कहा नहीं जाता और कहें तो आधी सभा उठ चल पडे; किन्तु शास्त्र में कहे हैं ऐसे अति उत्तम साधु मिले और उनका कहा करे तो कोटि जन्म से मिटनेवाली कसर आज ही मिटा दें और ब्रह्मरुप कर दें । वह तो ‘गोकुल गाँव को पिण्डो है न्यारो ।’ और यह तो जीभ पकडकर बोल रहे हैं, ऐसा कहा । (२४४)

और भगवान जैसा कोई पदार्थ नहीं है वे हमें मिले हैं; और जिसने दाँत दिये हैं वह चबेना नहीं देगा ? और हमारे भाग्य में क्या रोटी नहीं लिखी होगी ? क्या हमने प्रभु को बेच डाले है ? अतः भगवान भूखे जगाते हैं किन्तु भूखे सुलाते नहीं । किसी भी प्रकार से खाना देते हैं । और प्रभु भक्ति कर सकें इसलिए हमको गरीब रखे हैं । यद्यपि पृथ्वी का राज दिया होता तो नरक में पड चुके होते; इसलिए दिया नहीं है । यह देह तो पत्ते की थाली के स्थान पर है, उसमें लड्‌डू खा लेना चाहिए । वह क्या ? तो इस देह से भगवान मिल जाए फिर अब देह को कुछ भी हो जाओ !दास के दुश्मन हरि कभी होते नहीं, जैसा करेंगे, वैसा सुख होगा’’

और हमको तो स्नेह है इसलिए बात कर रहे हैं कि स्वामि-नारायण नाम का मंत्र बहुत बलवान है । अतः जप करते रहना । २४५

ये बातें करनेवाले दुर्लभ हैं, मनुष्य देह दुर्लभ है और देह निरामय रहना वह भी दुर्लभ है । ये तीनों बात दुर्लभ है । इसलिए भजन कर लेना । (२४६)

दतात्रेय ने दो जीवों का कल्याण किया; कपिलजी ने एक जीव का कल्याण किया और ऋषभदेवने सौ जीवोंका कल्याण किया । आज साधुु कहते है कि ‘हम दैवी जीवों का कल्याण करेंगे, किन्तु आसुरी का कल्याण हमसे नहीं होगा ।’ तब भगवान बोले कि आसुरी का कल्याण हम करेंगे, वे मुंझासूरु, मानभा, जोबन पगी और तखापगी आदि तो पाप के पर्वत कहे जा सकते हैं । उनको तो भगवान सत्संग कराये; किन्तु वे साधु द्वारा न मुडे । (२४७)

और दस हजार सूर्य का तेज सुदर्शन चक्र में है; उसका प्रकाश दीप जैसा हो उतना मायाका अंधकार घट है । उसका एक छींटा जीव में डाला है, वह सुषुप्ति अवस्था है । उसको मिटाने के लिए महाराज का अवतार है । (२४८)

और जिसका किया सब हो रहा है वे तो मानो कुछ जानते ही नहीं है, और बीच में दूसरे कई मनोरथ करते हैं । (२४९)

और कोटि कल्पसे विषय भोग किया हैं उसका पाश लगा है । उसको मिटाने का साधन शिक्षापत्री में ‘निजात्मानं ब्रह्मरुपं’ यह श्लोक लिखा है । (२५०)

शास्त्र में भगवान को समदर्शी कहे हैं वह सत्य नहीं है । भगवान तो भक्त के हैं किन्तु अभक्त के नहीं । अतः समदर्शी नहीं हैं । (२५१)

भगवान अपने भक्तमें रहते हैं वे भी पात्रता के अनुसार रहते हैं । जैसे जैसे बडे भगवदीय, वैसे वैसे उनमें विशेषरुप से रहते हैं । (२५२)

भगवान शूली का दुःख काँटें से मिटाते हैं, वह कैसे समझ में आए ? उसका उत्तर कि वैसा तो हमारे जीवन में कई बार होता होगा और ब्रह्माण्ड में भी होता है वह निरीक्षण करें तो पता चलें । जो दुष्कालमे सें सुकाल किया आदि कई उपद्रव मिटा देते हैं । (२५३)

और इस लोक में देश-काल की विषमता तो रहे; तथा अधिक न्यून वर्ताव तो रहा करे किन्तु रुचि अच्छी रखना । अन्ततः रुचि ही सहाय करती है । (२५४)

ऐसी बातें तो कहीं भी नहीं होती है । विषय तो मिथ्या हो गये हैं और वासना जैसा दिखाई दे रहा है वह तो देहधारी को ऐसा होता है । उसमें सदाशिवभाई की हवेली का दृष्टांत दिया और कहा भगवान की इच्छा समझनी चाहिए । (२५५)

हमको तो अपने स्वरुप को अक्षर मानना, वह न मान सकें तो भी स्थूल देह को तो अपना नहीं मानना और महाराज का अभिप्राय तो ‘तीनों देहको अपना स्वरुप नहीं मानना और अक्षर ही मानना ।’ वह कैसे तो जैसे ब्राह्मण के घर जन्म हुआ सो ब्राह्मण; ठीक वैसे हमें भगवान प्राप्त हुए सो हम अक्षर ऐसा मानना । (२५६)

और लकडी की या लोहे की जंजीर से भी स्त्री और धन की जंजीर बडी है । वे दोनों से छूट जाय तो भी इन्द्रियाँ अन्तःकरण की जंजीर बडी है; और उन दोनों से न दबे वह माया से पर आया हुआ हो वह न दबे, दूसरा तो दब जाय । इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण से न दबें वह देव व मनुष्य नहीं कहलायेगा । (२५७)

श्वान, सूकर, बिलाड, खर, तेना टोळा मांहिलो जंत तेने मूके संत करी जो मळे सद्‌गुरु संत ।अर्थ : श्वान, सूकर, बिल्लाड, गधा आदि जैसा जीव प्राणी को संत कर देते यदि जो उसे सदगुरु संत का सत्संग हो जाय । ऐसा कहकर कहा कि ‘वस्तु नहीं कोई संत समाना’ वे हमें मिले हैं । (२५८)

और महाराज कहते कि नाम किसका लें परन्तु आगे कल्याण तो कैसे किये हैं ! तो अपने सामर्थ्यानुसार किया है । और किसीने तो बडे बडे कुएँ खोदे हैं । (२५९)

और खट्‌वांग राजा का कल्याण दो घडी में किया । ये संत तो बडे दयालु हैं; यह बात उनको तो पता न चलें किन्तु संबंध (हृदय के भाव संबंध) का लिखा है ऐसा समझना । (२६०)

और मध्य प्रकरण का नववाँ वचनामृत पढाकर बोले कि महाराज को पुरुषोत्तम जानता हो फिर भी विषम देशकाल के कारण सत्संग से बाहर निकल जाय तो भी उसे अक्षरधाम मिलेगा और ऐसा नहीं जानता हो तो उसे दूसरा धाम मिलेगा । (२६१)

और महाराज कहते थे कि ‘जो हमारा द्रोह करता है वह भी हमारे पक्ष में बोल रहा है क्योंकि वे जानता हैं कि ‘कोई एक भगवान है फिर यह दूसरे भगवान कैसे हुए ?’ इसलिये वह हमारा द्रोह नहीं कर रहा है ।’ (२६२)

और देह त्याग कर जिसे पाना है वे ही ये प्रगट बातें कर रहें है, किन्तु सर्व को समझ में नहीं आता, और जो त्याग वैराग्य की बातें करते हैं वह भी सही रास्ते पर चढाने के लिए कर रहें है; किन्तु समझना तो इतना ही है । (२६३)

वचनामृत के अर्थ समझमें आए ऐसे नहीं है, किन्तु बहुत अभ्यास रखें तो अपने आप समझमें आ जायेंगे ऐसा महाराज का वरदान है । यह ज्ञान महाराज सब को देना चाहते हैं । (२६४)

और प्रकृति-पुरुष कूटस्थ कहलाते हैं और गृहस्थ भी कूटस्थ कहलाता है और सांख्यविचार एवं ज्ञान के मतानुसार निर्लेप भी कहलाता है । (२६५)

आज हममें से एकडमल बनाकर निकाल दिया हो तो वह भी जगत का प्रभु है; ऐसी आज अपनी महिमा है । (२६६)

और श्रीकृष्ण को बाण लगे उसे भी भगवान का कर्तव्य समझना और प्रह्‌लाद को नहीं लगे वह भी भगवान का कर्तव्य समझना । (२६७)

देशकाल विषम आने पर सत्संगियों के गाँवों में रहकर जीवन गुजरान करेगें; और मरने का तो डर ही नहीं है और कल्याण तो त्यागी और गृहस्थ दोनोमें है । (२६८)

और हरिभक्तों को बातें करने की आज्ञा दीः कि बातें करते रहना, वे बातें क्या तो ? ‘स्वामिनारायण भगवान है, स्वामिनारायण भगवान हैं ।’ ऐसी बातें करना । (२६९)

और भगवान तो तीस साल सत्संग में रहे और अब साधु द्वारा दश-बीस पीढियों तक रहेेंगें । (२७०)

और जूनागढ की जमानत महाराज ने दो बार ली है । एक बार वरताल में और दुसरी बार गढपुर में, एैसा कहा । उस पर एक संतने पूछा कि ‘जमानत ली वह कैसे समझें ?’ तब स्वामी बोलेः कि ‘माया का बंधन नहीं होने देते ।’ फिर से संत ने पूछा कि ‘वह जमानत कहाँ तक रहेगी ?’ तब स्वामी ने कहा कि ‘हम हैं तब तक तो सही, किन्तु अभी तो महाराज का ज्ञान है ।’ और महाराज ने कहा किः ‘जूनागढ जायेगा उसकी करोड जन्म कि कसर मिटा देंगे ।’ और हम गढपुर से आये तब यह पाथेय बँधवाया था । (२७१)

और उदासीनता आयें तो क्या करना चाहिए ? यह प्रश्न पूछने पर उत्तर किया कि स्वामिनारायण स्वामिनारायण भजन करना जिससे चिंता मिट जाय । (२७२)

झीणाभाई ने महाराज से जूनागढमें मंदिर करने का वर माँगा वह भी खुद की ही प्रेरणा होगी; इसलिये यहाँ मंदिर किया और उसमें साधु भी वैसे ही रखे हैं । जो इस मंदिर में चँदा तो अब तक किया नहीं है । (२७३)

इस लोक की सब क्रियाएँ तो बच्चाें के खेल जैसी समझना किन्तु उसमें माल नहीं मानना । इस तरह निरंतर देखते रहना । (२७४)

और महाराज कहते थे कि ‘हममें जो गुण और अवगुण हैं वे कहते हैः कि हमें सारे ब्रह्माण्ड के लोग मानें-पूजें किन्तु हमको उसका अभिमान न आये वह हममें गुण है । और हम अनेक जीवात्माओं को समाधि कराते हैं किन्तु मुक्तानंद स्वामी एवं गोपालानंद स्वामी को समाधि नहीं कराते वह हममें अवगुण है । (२७५)

कोई भगवान को याद करे तो उसकी सेवा मुझे करवानी है, उसके कपडे मुझे धुलवाना हैं और उसको बैठे बैठे भोजन देना है । (२७६)

और कथा-वार्ता बदरिकाश्रम, श्वेतद्वीप, अक्षरधाम और इस लोक में बडे एकान्तिक के पास इन चार जगह पर ही होती है और दूसरी जगह कहीं भी नहीं होती । और जहाँ विषय हैं वहाँ कथावार्ता नहीं है । (२७७)

और हमने कुछ अच्छा कार्य किया हो और उसका हमको अभिमान आता हो, इसलिए बडे पुरुष कहें कि यह काम बिगाडा तो भी प्रसन्न रहना क्योंकि हमें तो आगे पीछे का दिखता नहीं और वे बडे तो दीर्घदर्शी हैं सो भविष्य का देखते हैं । (२७८)

और सांख्य विचार करने की बात कही कि सांख्य विचार तो प्रतिदिन नियम रखकर करना । बिना सांख्य सुख नहीं होता और सांख्य तो आँख है । उस आँख से तो सब कुछ दिखाई दे । दतात्रेय सांख्यवान थे इसलिये उसे सुखी रहना आता था । इसलिए सांख्य विचार करने लगे तो धीरे धीरे सिद्ध होता है । उसमें सांख्य क्या ? तो यह लोक, भोग सब मिथ्या है और आत्मा है वह सत्य है, आकाश के समान निर्लेप है तथा देह इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण से असंगी है । (२७९)

जिसने भगवान के लिए कुछ किया हो उसको भगवान अपने धाममें ले जाये तो भी वह भगवान में जुडता नहीं । वह तो जैसे तलवार को तेज करते हैं वैसे साधु बातें करके माँजे तब भगवान से जुडता हैं अतः ज्ञान सीखना ही श्रेष्ठ है । (२८०)

और करोड कामों को लात मारें(ठेल दें) तत्पश्वात भगवान की बातें होती है । ध्यान तो फिर उसके भी बाद होता है । (२८१)

और भगवान के भक्तों को तीन प्रकार के ध्यान में से एक प्रकार का ध्यान रहता है । वह निश्चय रुपी ध्यान रहता है या साधु के पास जाना है ऐसा रहता है या तो ‘मैं भगवान का भक्त हूँ’ ऐसा रहता है । बाकी तैल धारावत्‌ मूर्ति में वृत्ति रहे वह तो स्वरुपानंद स्वामी आदिक की बात है । (२८२)

हमें तो भगवान मिले हैं इसलिए अपने को अक्षर मानना’ ऐसा बोले उस पर प्रश्न पूछा कि विषय पराजित कर देते हो फिर अक्षर कैसे मानें ? उसका उत्तर किया कि विषय तो देह के भाव हैं वे तो एक ओर रहे हैं; फिरभी अक्षर मानना किन्तु आत्मा को नरक का कीडा मत मानना । हम तो जैसे वामनजी के साथ लकडी बढ गई वैसे बढ रहे हैं । (२८३)

और सूक्ष्म देह का कलह बडा भारी है और उससे स्थूल देह को धक्का लग जाता है, उसका क्या करें ? यह प्रश्न है । उसका उत्तरः वह कलह तो बडे बडे को भी है और वह टल जाय तो सिद्ध हो गये समझना । फिर करना क्या रहा ? उतना ही तो करना है । (२८४)

और भगवान को जिसकी खामी मिटाना है उसको इसलोक में जन्म देकर अज्ञानी कर डालते हैं; जिनसे वह अति दीन हो जाता है । फिर उसे ऐसा होता हैं कि ‘मेरा कल्याण कैसे होगा ?’ ऐसा करके भी खामी मिटाते हैं । (२८५)

एक हरिभक्तने पूछाः ‘ऐसा योग न रहे और खामी रह जाय तो क्या होगा ?’ उसका उत्तरः ‘जिन्हों ने यह योग दिया है वे ही खामी मिटायेंगे ।’ (२८६)

वरताल का तीसरा वचनामृत पढाया; उसमें चार प्रकार के भक्तों के भेद कहे हैंः उनमें से एक तो दीये जैसा, दूसरा मशाल जैसा, तीसरा बिजली जैसा और चौथा वडवानल अग्नि जैसा । वह वचनामृत पढवाकर बोले कि आज तो सत्संग में बहुधा वडवानल जैसे ही हैं । (२८७)

और भगवान के साथ रहने पर भी अपूर्णता रह गई वह किस कारण से ? तो साधु के समागम बिना । (२८८)

ये भगवान जैसे साधु हैं किन्तु उनके पास रह नहीं सकते हैं वह बडी खामी है । (२८९)

और अब तो महाराज साधु द्वारा दर्शन दे रहे हैं, बातें कर रहे है एवं मूर्ति द्वारा दर्शन दे रहे हैं । (२९०)

और हम तो कोटि कल्प से देख रहे हैं कि पचास कोटि योजन पृथ्वी में ऐसे साधु नहीं हैं । (२९१)

और बडे सत्पुरुष परोक्ष होने के बाद आजकी तरह अपने आश्रितों की खबर रखते हैं या नहीं ? उस प्रश्न का उत्तरः वे परोक्ष हो ऐसे कहाँ हैं ? वे तो आजकी तरह दिखाई नहीं देते ! बाकी खबर न रखे तो ब्रह्माण्ड की स्थिति कैसे रहेगी ? (२९२)

और इन्द्र ने विश्वरुप को मार दिया तो चार ब्रह्महत्या लगी । उसमें एक तो गुरु की, दूसरी पुरोहित की, तीसरी ब्राह्मण की और चौथी ब्रह्मवेत्ता की । बादमें उनको नारदजी मिले । उन्होंने कहाः कि ‘तुम्हारे भाई वामनजी हैं वे भगवान के अवतार हैं उनका तुम आश्रय ग्रहण करो ।’ फिर इन्द्र ने वामनजी का निश्चय किया, जिससे ब्रह्महत्या टल गई । उतना काम वामनजी के आश्रय करने से हुआ अतः आश्रय बडी बात है । (२९३)

कोटि तप करके, कोटि जप करके, कोटि व्रत करके, कोटि दान करके और कोटि यज्ञ करके भी जो भगवान एवं साधु को पाना था वे आज हमको मिले हैं । (२९४)

जो सत्संग करे उनको तो दुःख नहीं रहता । वह सत्संग क्या है? तो आत्मा और परमात्मा वे दो ही हैं । (२९५)

निरंतर माला फेरें, उससे भी समझ (ज्ञान) श्रेष्ठ है । अतः वह बात मुख्य रखना चाहिए । (२९६)

भगवान की मूर्ति को चिंतामणि कहा गया है । वह समझमें आया है या नहीं ? उस प्रश्न का उत्तर किया कि चिंतामणि तो सही किन्तु बालक के हाथ में हैं । (२९७)

स्वरुप निष्ठा हैं एवं महिमा हैं वे तो दुल्हे के स्थान पर है और दूसरे साधन तो बारात के स्थान पर है और समझ है वह तो दोसौ बखतरधारी रक्षकों के स्थान पर हैं, विषय हैं वे तो बगावती डाकू-लूटेरे के स्थान पर हैं । (२९८)

और सत्पुरुष के संबंध से जीवको जो संस्कार मिलते हैं वे तो एक जन्म या दो जन्म के बाद भी भगवान के धाममें ले जाते हैं ऐसा प्रगट का प्रताप है । उसका विवरणः उनका दर्शन हो, उनका गुण लें, उनका पक्ष रखें, उनके आगे हाथ जोडें, एवं ‘साधु बहुत अच्छे हैं’ ऐसा बोलें उनको अन्न-जल दें, इत्यादिक रुपसे संबंध होता है । एवं जिस वृक्ष के नीचे बैठें एवं जिस वृक्ष के फल खायें और जिस पशु का दूध-दहीं खायेंं इत्यादिक अनन्त प्रकार से जीवको संबंध होता है; वे सब भगवान के धाम को पाते हैं । ऐसा प्रगट का संबंध बलवान है । परोक्ष के संस्कार का फल तो खाना मिले, शरीर स्वास्थ्य ठीक रहे, लोक में मान बढे और धर्म रहे आदि परोक्ष के आश्रय का फल है । (२९९)

विषय में तो विराट, प्रधानपुरुष एवं प्रकृतिपुरुष तक सब गोते खाते हैं परंतु अक्षरधाम में विषय नहीं है । ३००

हमें तो अक्षरधाम में जाना है ऐसा संकल्प रखना । (३०१)

ये बातें तो जिनके बुरे आशय होंगे उनको भी दबाकर ऊपर उठ आयें ऐसी हैं । (३०२) इस लोक में अक्षरधाम का सुख याने क्या ? तो शुभ संकल्प हो और अंतर में सुख-शांति बनी रहे वही । और यमपुरी जैसा दुःख याने क्या ? तो हृदय में बुरे संकल्प हो और पीडा रहे वही । (३०३)

कोटि कल्पसे भगवान खाना दे रहे हैं फिर भी जीवको पता नहीं है, वह अज्ञान है सो महाराज कहते थे कि ‘हमको अन्नदाता तो मानना, अधिक महिमा तो बादमें ।’ (३०४)

प्रथम प्रकरण का तिरसठवाँ वचनामृत पढाकर महिमा की बहुत बातें कही कि जैसा इसमें कहा है ऐसा नहीं समजाने से जीव दुर्बल रहता है; परन्तु भगवान के प्रताप से, काम, लोभ, स्वाद, स्नेह, और मान वे समुद्र जैसे हैं किन्तु गौपद जैसे हो जायेंगे । सो ऐसी महिमा है इसलिए कभी भी जीव में दुर्बलता आने न देना । लक्ष्मीजी एवं भगवान तो हमारी सेवा में हैं क्योंकि मा-बाप तो बच्चों की सेवा में ही होते हैं । और हम चाहे वैसा होता है किन्तु सामर्थ्य दबाकर रखा है और यह प्राप्ति तो बडे इश्वरों को भी दुर्लभ है । (३०५)

अक्षरधाम में सुख किस प्रकार से है ? तो जैसे राजा का पुत्र कहीं भी फिरता रहे; परंतु वह राज्य का मालिक है । इस प्रकार का सुख है । वहाँ कई मुक्त तो निर्विकल्परुप से जुडे हुए हैं, और कई मुक्त तो बातें-महिमा कहते हैं और सुनते हैं, जैसा यहाँ है वैसा ही वहाँ है उसमें थोडा भी भेद नहीं है । (३०६)

हम में विषय की अरुचि तो निष्कुलानंद स्वामी, कृपानंद स्वामी, मावा भक्त तथा उना गाँववाले रणछोडजी ऐसे बहोत को होगी । और बाकी हमारी तो धर्म से शोभा है । मोक्षका कारण तो भगवान की निष्ठा ही है । (३०७)

और भगवान ने जो जो निर्माण किया है वैसा ही हो रहा है । उस भगवान से निमित्त कंचन और स्त्री में सब आकर्षित हो रहे हैं और मनुष्य को मैथुन का नियम नहीं है किन्तु पशु पक्षियों को है आदि अनेक चक्कर चढा दिये हैं तो वैसा ही हो रहा है । (३०८)

कारियाणी का सातवाँ वचनामृत पढाकर बात कही कि निश्चय है वही आत्यन्तिक कल्याण है । निश्चय है वही सिद्ध दशा है । और जो (सर्वत्र मूर्ति) देखने को कहा है वह भी ज्ञानयुक्त दृष्टि को ही कहा है । ज्ञान बिना दिखाई दे तो वह न्यून है और विषय मिथ्या करने के लिए तो सांख्य समझना चाहिए । ‘एक भगवान ही दिखाई दे’ ऐसा कहा है वह भी निर्विकल्प निश्चयरुप से दिखाई देते हैं । (३०९)

और किसी बात की चिंता आ जाय तो भगवान के ऊपर डाल देना । हम तो बलवान नहीं और वे तो बलवान सो उनको रक्षा करना आता है । जैसे प्रह्‌लाद की रक्षा की वैसे अनेक प्रकार से रक्षा करते हैं । (३१०)

साधु की एवं साधु के समागम की महिमा बहुत कही और बोले कि उससे परे कोई बात नहीं है । जैसे भगवान के गुणों का अन्त नहीं आता वैसे संत के गुणों का भी अन्त नहीं है । ऐसा कहकर उस विषयक गुरु का अंग बुलवाया और स्वामी भी साथ में बोले । (३११)

हम तो सौ - दोसौ लोगों को पंख में लेकर उड जाय ऐसे हैं; उतना ही नहीं सारे ब्रह्माण्ड के जीवों को लेकर उड जाय ऐसे हैं । उससे भी अधिक अनंत कोटि ब्रह्माण्डों को भी ले चलें ऐसे हैं; परंतु ऐसा मान नहीं सकते क्योंकि मनुष्याकृति है । (३१२)

जीव के टेढेपन को क्या कहे ! जीव तो जीव ही । सो कहा हैः कि ‘ऊट तो सर्वांग टेढा ।’ वैसा जीव टेढा है, और लंबकर्ण जैसे जीवका भी भगवान को भला करना है । (३१३)

अन्तर में शीतलता हो और कोई वचन मारे तो आग बबूला हो उठे । उसको शान्त करने का उपाय तो ज्ञान है । (३१४)

भगवान एवं बडे साधु का निश्चय जिसको हुआ है वह खुद को पूर्णकाम माने उसको दूसरे के संग की अपेक्षा नहीं रहती । उसका दृष्टांत कि जिसके घर में सौ करोड मन अन्न पडा हो तथा सौ करोड रुपए पडे हों, उसको दुष्काल पडे तो भी मरने का डर न लगे । दूसरा दृष्टांतः दो हजार बख्तरधारी सैनिक साथ में हो उसे लूंट जाने डर नहीं लगता । उसी प्रकार महिमा सहित निश्चयवाले को डर नहीं लगता । (३१५)

सारी पृथ्वी का राज्य करे तो भी बंधन नहीं होता जो यदि ज्ञान हो तो उसके बिना तो वन में जाकर रहे तो वहाँ भी भरतजी की तरह बंधन हो जाय । अतः ज्ञान श्रेष्ठ है । (३१६)

छोटा बच्चा हो उसे डर लगे तो अपने माँ-बाप की छाती से चिपक जाय । वैसे ही हमको कोई भी दुःख आये तो भगवान का भजन करना, स्तुति करना तो भगवान रक्षा करे । (३१७)

हमारा सिद्धांत तो यह है कि अनेक प्रकार की क्रियाएँ करवाएँ किन्तु क्रियारुप न होने दें, उसमें बँधन न होने दें और उसका निषेध करते रहें । जब कि दूसरे क्रिया करवाएँ वे तो उसमें जोड दें, सो क्रियारुप होकर क्रिया करें और क्रिया में से निवृत्त होकर भी उस क्रियाके मनोरथ किया करें । हमारा मत तो क्रिया करवाने में भी क्रियारुप नहीं होना और क्रिया छोडकर भी उनका संकल्प न करना । व्यवहार आया तो क्रियाएँ तो करनी पडती है, उससे ही पूर्णता नहीं मान लेना । (३१८)

प्रथम साधना काल में तो, पूर्ण ज्ञान नहीं होता तब तक सत्संग का सुख भी नहीं आता । किस तरह ! तो जैसे पहली थोडी बारिस आयें तब नदी में नया-पुराना पानी मिले । फिर बहुत बारिस होने के पश्चात्‌ सब पानी नया हो जाता है । उसी तरह अधिक समागम करते करते सत्संग का सुख आता है । (३१९)

किसीको भगवान प्रधान होते हैं और किसीको व्यवहार प्रधान होता है । वे दोनों बराबर कहाँ मिलेगा ? इसलिये यह बात भी जान रखना ।
३२०

और आज दिन तक कारखाने (निर्माण कार्य) करवायें और अब तो ज्ञान देना है जो फिरे ही नहीं । फिर कहा कि सभीके सुखको देखना और सभीके रुप को जानना । भगवान के सिवा अन्य में माल नहीं है ऐसा ज्ञान सीखना और फिर कहा कि गिरनार जैसा बडा काम, मेरु जैसा बडा मान और लोकालोक जैसी बडी वासना है । उन सबके मूल उखाड फेंकना, ऐसा ज्ञान देना है । (३२१)

अपनी देह में जीव के साथ कोटि कोटि सूर्य का प्रकाश है पर यदि वह दिखाई दे तो किसी की परवाह न रहे । इस तरह महिमा बताई । (३२२)

मुक्तानंद स्वामी जैसे साधु बातें करते हो तो दो हजार लोगों की सभा बैठी हो उन सबके संकल्पों के उत्तर होते जाय, इस प्रकार महाराज के साधु तो सब जानें और बातें करे । (३२३)

महाराज का मत तो कथा, कीर्तन, वार्ता, ध्यान आदि ही करवाना है । मनुष्य का तो स्वभाव बन गया है कि दूसरा किये बिना नहीं रहा जाता । फिर हम क्या करें ? और ऐसा योग हुआ है उसमें समझ न पाया और स्वभाव छोडकर बडे सत्पुरुष के साथ जुडेगा नहीं वह देरी से धाम में जायेगा । उसमें भगवान को कोई जल्दी नहीं है और कारखाने (निर्माण कार्य) तो दिन-प्रतिदिन बढते जायेंगे । (३२४)

और ये साधु जैसे हैं वैसे जान पडे तो उनको छोडकर दूर नहीं जा सकते । यदि कुछ चमत्कार दिखायें तो व्यापकानंद स्वामी की तरह बंदीखाना हो, इसलिए दिखाते नहीं है वह भी ठीक है । (३२५)

और ‘व्यवहारेण साधु’ सो एक दूसरे से व्यवहार पडने पर साधुता का पता चलता है किन्तु उसके बिना साधुता का पता नहीं चलता । (३२६)

आज तो बडों का संबंध है इसलिए सुख है किन्तु विषम देशकाल में तो ऐसा योग न रहे तो भी सुख रहे ऐसा क्या उपाय है ? इस प्रश्न का उत्तर किया कि बडे के गुण, विभूति, ऐश्वर्य, प्रताप, गंभीरता, धैर्य आदि द्वारा उनकी महिमा का विचार करके और बडों की हृदय में स्फुरणा रहे उनसे सुख रहता है । (३२७)

यह जीव को कभी बुढापा आता होगा या नहीं ? ऐसा कह कर कहा कि जीव को जब ज्ञान होता है तब बुढापा आता है किन्तु उसके बिना तो वृद्धत्व आता नहीं है । (३२८)

और भगवान के लिये हमने जो जो किया है और कर रहे हैं वह (भगवान) सब कुछ जानते हैं । जिसकी गोद में सिर रखा है वे रक्षा करेंगे; और हमारा तो (थोडा भी) भगवान बहुत मान लेते हैं । (३२९)

और ज्ञानी को भगवान ने अपनी आत्मा कही है सो उद्धव ज्ञानी । और प्रेमी भक्त का तो भगवान (एहसास) रखते हैं किन्तु बिना ज्ञान अधूरा है । सच्चिदानंद स्वामी को प्यास लगी तो महाराज को प्यास बुझती नहीं थी । फिर सच्चिदानंद स्वामी को पानी पिलाया तब महाराज की प्यास बुझी । फिर भी महाराज का मत तो ‘निजात्मानं ब्रह्मरुपं’ मानना वही है । (३३०)

और पुरुष को स्त्री के जैसा स्नेह भगवान के प्रति होता नहीं है; उसे तो ज्ञान के द्वारा स्नेह होता है और ‘कृपानंद स्वामी एवं निष्कुलानंद स्वामी का हेत तो स्त्री जैसा है’ ऐसा महाराज कहते थे । (३३१)

और जडभरत इस लोक के व्यवहार में जुडे नहीं वह क्यों ? तो परमेश्वर के भजन में बंधन रुप हो इसलिये, अतः वे पागलसे हुए । और जो इस लोक में लग पडते है उसे लोग सयाने कहते है किन्तु परमेश्वर के मार्ग में वे सयाने नहीं है । (३३२)

और भगवान की कथा कैसी हैं ? तो चौकीदार आकर कहे कि जागो... जागो... फिर जो जागे उसको चोर का भय दूर हो जाय, उस प्रकार कथा ऐसी है । (३३३)

शिक्षापत्री का अन्तिम श्लोक नित्य बोलते हैं उसमें कहा है किः निजाश्रितानां सकलार्तिहन्ता, सधर्मभक्तेरवनं विधाता । दाता सुखानां मनसेप्सितानां, तनोतु कृष्णोऽखिलमंगलं नः।। अपने आश्रित जो भक्तजन उनकी समग्र पीडा को हरनेवाले और धर्म सहित जो भक्ति उनकी रक्षा करनेवाले और अपने भक्तजनों के मनवांछित सुख को देनेवाले ऐसे जो भगवान वह हमारे समग्र मंगलता का विस्तार कीजिए । (३३४)

और एक रुचिवाले दो भी हैं तो हजारो और लाखों हैं । उसके बिना हजारों और लाखों हैं तो भी अकेले ही हैं ऐसा समझना । (३३५)

और भगवान को अपने भक्तों को मार-कूट कर भी ब्रह्मरुप करना है । (३३६)

और शास्त्र में कहा है कि ‘श्रेयांसि बहु विघ्नानि’ और लोकमें भी कहते हैं कि ‘अच्छे काममें सौ विघ्न’ अतः परमेश्वर भजने में एवं परमेश्वर का स्वरुप जानने में बहुत बाधाएँ हैं, उन बाधाओं को जानकर और उससे छूटकर अति गर्जवान बनें तो वह परमेश्वर के सन्मुख जा सकता है अन्यथा नहीं जा सकता क्योंकि इस लोकमें अनेक विघ्न हैं । (३३७)

और ‘पूर्वका संस्कार’ ऐसा कहा जाता है, वह पूर्वका संस्कार जो पूर्व जन्म में किया हो उसे कहा जाता है; किन्तु हमें ऐसा नहीं समझना । तो फिर पूर्व संस्कार माने क्या ? तो आज जो क्रिया करे वह कल पूर्व संस्कार कहलायेगी ऐसा समझना । इसलिए हमें बडाें का समागम हुआ तो आज हमें बहुत पूर्व संस्कार हुए ऐसा समझना । (३३८)

और इस कीर्तन में कही गई बात निरंतर याद रखना कि उधो संत सुखी रहे संसार में, राजा भी दुःखिया रंक भी दुःखिया, धनपति दुःखित विकार में, बिना विवेक भेख सब दुःखिया, झूठा तन अहंकार में । उधो ०...अतः समझवाले को संत कहते हैं । जो अम्बरीष, प्रह्‌लाद और जनक आदिक राजा थे, किन्तु वे साधु कहलाते हैं ऐसा समझना । (३३९)

और ज्ञान में भी बहुत भेद है किस तरह ? तो जैसे एक गुजरात का घोडा हो, उसके सामने लकडी उठाये तो भाग जाता है और एक काठियावाड का तालीम बद्ध घोडा हो वह तो तलवार, बरछी, बंदूके आदि की वर्षा होती हो तो उसमें भी सामने चलें, इस प्रकार ज्ञानमें भेद है । (३४०)

और आगे जो भक्त हो गये उसकी आज सत्संग के भक्तों को उपमा नहीं दी जा सकती क्योंकि आगे जो हुए वे कोई भी अक्षरधाम के निवासी नहीं हैं । और आज तो पुरुषोत्तम के आश्रित हैं वे सब अक्षरधाम के अधिकारी हैं । (३४१)

और कथा करें, कीर्तन करें और बाते करें; किन्तु ‘यह देह मैं नही हूँ’ ऐसा न माने । इसलिये आठों प्रहर भजन करते रहनाः मैं देह नहीं हूँ किन्तु देह में रही जो आत्मा है वह मैं हूँ, ब्रह्म हूँ, अक्षर हूँ । मेरे स्वरुप में परमात्मा परब्रह्म पुरुषोत्तम प्रगट प्रमाण अखंड रहे हैं । वे कैसे हैं तो सर्व अवतार के अवतारी हैं, सर्व कारण के कारण हैं और सर्व से परे हैं । वे प्रगट प्रमाण यह मुझे मिले हैं । इस बात में सांख्य एवं योग दोनों आ चुके । (३४२)

इति श्रीसहजानंद स्वामी के शिष्य गुणातीतानंद स्वामी उपदेशित बातों (सत्संग कथा) में भगवान एवं संत की महिमा कही गई उस विषयक प्रथम प्रकरण समाप्त ।


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